करगिल युद्ध: भारत की इस खतरनाक तोप से डरे थे पाकिस्तानी घुसपैठिए | Kargil War: dangerous cannon of India, Pakistan infiltrators are afrai | Patrika News h3>
धनुष वर्तमान समय में सेना के पास सबसे बड़ी तोप में से एक है। यह बोफोर्स की तुलना में 10 किमी ज्यादा दूरी यानी 40 किमी तक गोला दाग सकती है। इस तोप में लगातार नए परिवर्तन किए जाते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तोप ने सारे पैमानों को पार किया है। इसकी तैनाती भी सीमा पर होने लगी है। जीसीएफ के मोर्टार भी आमने-सामने की लड़ाई में काम आए थे, उसकी तकनीक भी बदलती रही है।
पहाड़ों पर आसानी से चढ़ा शक्तिमान
वीकल फैक्ट्री जबलपुर (वीएफजे) में बने शक्तिमान सैन्य वाहन की खूबियों की सेना कायल रही। ऊंची पहाड़ियों में हथियार और सैनिकों को पहुंचाने में ब़डी मदद की। उस समय यही ट्रक था जो दुर्गम स्थलों तक आसानी से पहुंचता था। इसी प्रकार स्टालियन और एलपीटीए वाहन शुरुआती उत्पादन के चरण में था। अब भी इनका उत्पादन हो रहा है। बस तकनीक में बदलाव हो गया है। अब सेना के रक्षा कवच के लिए यहां पर मॉडिफाइलड माइन प्रोटेक्टिड वीकल (एमएमपीवी) का उत्पादन किया जा रहा है।
पहले बोफोर्स अब धनुष में उपयोग
ऑर्डनेंस फैक्ट्री खमरिया (ओएफके) में बना 155 एमएम का गोला उस समय दुश्मन के खेमे में विध्वंस मचा रहा था। इसका इस्तेमाल उस समय बोफोर्स तोप में किया जा रहा था। ऊंचे पहाड़ पर बैठा दुश्मन ऊपर से हमला कर रहा था, तब हमारी सेना को बहुत नुकसान हुआ था। जानकारों ने बताया कि जब बोफोर्स से गोला दागा तब वहां खलबली मच गई। यही गोला आज स्वदेशी धनुष तोप में इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार हल्के वजन और घातक 30 एमएम बीएमपी-2 गोला की मांग अभी भी सेना से आती है। इसका उत्पाद हो रहा है।
भूख भी नहीं तोड़ पाई हमारा हौसला
रिटायर आर्डरली सूबेदार मेजर निसार अहमद ने बताया कि करगिल की लड़ाई हमारे हौसले की परीक्षा थी। उस समय मैं 22 ग्रेनेडियर्स अशोका पलटन में था। हम हैदराबाद में तैनात थे। मई में करगिल भेजा गया। बटालिक सेक्टर में हमने लड़ाई लडी। मैं एलएमजी ऑपरेट करता था। और अपने प्लाटून का गाइड था। दुश्मन ऊंचे पहाड़ पर था। ऐसे में उसके मूवमेंट का अंदाजा लगाना बड़ा मुश्किल हो रहा था। वह एक पत्थर भी फेंकता था तो वह नीचे आकर बम बन जाता था। लेकिन हमने हिम्म्त नहीं हारी। एक चुनौती यह भी थी कि ऊंचाई पर हथियार और खाना दोनों की सप्लाई मुश्किल थी। एक लीटर पानी भी आता था तो वह नीचे से पहुंचता था। हमारे पास पूड़ी थी, उसी से 5 से 6 दिन काम चलाया।
जब खाने की सप्लाई हुई तो हथियारों के कॅरियर में। लेकिन हमारे कमांडर हारून ने हौसला बढ़ाया। खालूवार क्षेत्र में ही संदेश आया कि आगे की पॉजीशन पर दुश्मन से लड़ते हुए हमारे साथियों का एमुनेशन खत्म हो गया है। उन्हें कवर फायर देना है। तभी बर्फ की धुंध का फायदा उठाकर दुश्मन हेलीकाफ्टर से आए और हमला कर दिया। हमारे साथी जवान इसमें शहीद हुए। लेकिन हौसला नहीं छोड़ा। इस बीच 1 इलेवन जीआर के कैप्टन मनोज पांडे और सीईओ कर्नल ललित थापा फौज के साथ हमारी मदद के लिए आए। दुश्मन भाग निकला लेकिन कैप्टन पांडे इसमें शहीद हो गए। मेेरे लिए भारतीय सेना बहुत अहम है। हर भारतीय यदि एक सप्ताह भी इसमें रह गया तो देश के प्रति उसका लगाव दोगुना हो जाएगा।
धनुष वर्तमान समय में सेना के पास सबसे बड़ी तोप में से एक है। यह बोफोर्स की तुलना में 10 किमी ज्यादा दूरी यानी 40 किमी तक गोला दाग सकती है। इस तोप में लगातार नए परिवर्तन किए जाते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तोप ने सारे पैमानों को पार किया है। इसकी तैनाती भी सीमा पर होने लगी है। जीसीएफ के मोर्टार भी आमने-सामने की लड़ाई में काम आए थे, उसकी तकनीक भी बदलती रही है।
पहाड़ों पर आसानी से चढ़ा शक्तिमान
वीकल फैक्ट्री जबलपुर (वीएफजे) में बने शक्तिमान सैन्य वाहन की खूबियों की सेना कायल रही। ऊंची पहाड़ियों में हथियार और सैनिकों को पहुंचाने में ब़डी मदद की। उस समय यही ट्रक था जो दुर्गम स्थलों तक आसानी से पहुंचता था। इसी प्रकार स्टालियन और एलपीटीए वाहन शुरुआती उत्पादन के चरण में था। अब भी इनका उत्पादन हो रहा है। बस तकनीक में बदलाव हो गया है। अब सेना के रक्षा कवच के लिए यहां पर मॉडिफाइलड माइन प्रोटेक्टिड वीकल (एमएमपीवी) का उत्पादन किया जा रहा है।
पहले बोफोर्स अब धनुष में उपयोग
ऑर्डनेंस फैक्ट्री खमरिया (ओएफके) में बना 155 एमएम का गोला उस समय दुश्मन के खेमे में विध्वंस मचा रहा था। इसका इस्तेमाल उस समय बोफोर्स तोप में किया जा रहा था। ऊंचे पहाड़ पर बैठा दुश्मन ऊपर से हमला कर रहा था, तब हमारी सेना को बहुत नुकसान हुआ था। जानकारों ने बताया कि जब बोफोर्स से गोला दागा तब वहां खलबली मच गई। यही गोला आज स्वदेशी धनुष तोप में इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार हल्के वजन और घातक 30 एमएम बीएमपी-2 गोला की मांग अभी भी सेना से आती है। इसका उत्पाद हो रहा है।
भूख भी नहीं तोड़ पाई हमारा हौसला
रिटायर आर्डरली सूबेदार मेजर निसार अहमद ने बताया कि करगिल की लड़ाई हमारे हौसले की परीक्षा थी। उस समय मैं 22 ग्रेनेडियर्स अशोका पलटन में था। हम हैदराबाद में तैनात थे। मई में करगिल भेजा गया। बटालिक सेक्टर में हमने लड़ाई लडी। मैं एलएमजी ऑपरेट करता था। और अपने प्लाटून का गाइड था। दुश्मन ऊंचे पहाड़ पर था। ऐसे में उसके मूवमेंट का अंदाजा लगाना बड़ा मुश्किल हो रहा था। वह एक पत्थर भी फेंकता था तो वह नीचे आकर बम बन जाता था। लेकिन हमने हिम्म्त नहीं हारी। एक चुनौती यह भी थी कि ऊंचाई पर हथियार और खाना दोनों की सप्लाई मुश्किल थी। एक लीटर पानी भी आता था तो वह नीचे से पहुंचता था। हमारे पास पूड़ी थी, उसी से 5 से 6 दिन काम चलाया।
जब खाने की सप्लाई हुई तो हथियारों के कॅरियर में। लेकिन हमारे कमांडर हारून ने हौसला बढ़ाया। खालूवार क्षेत्र में ही संदेश आया कि आगे की पॉजीशन पर दुश्मन से लड़ते हुए हमारे साथियों का एमुनेशन खत्म हो गया है। उन्हें कवर फायर देना है। तभी बर्फ की धुंध का फायदा उठाकर दुश्मन हेलीकाफ्टर से आए और हमला कर दिया। हमारे साथी जवान इसमें शहीद हुए। लेकिन हौसला नहीं छोड़ा। इस बीच 1 इलेवन जीआर के कैप्टन मनोज पांडे और सीईओ कर्नल ललित थापा फौज के साथ हमारी मदद के लिए आए। दुश्मन भाग निकला लेकिन कैप्टन पांडे इसमें शहीद हो गए। मेेरे लिए भारतीय सेना बहुत अहम है। हर भारतीय यदि एक सप्ताह भी इसमें रह गया तो देश के प्रति उसका लगाव दोगुना हो जाएगा।