165 साल बाद कंकालों ने बताई ब्र‍िटिश क्रूरता की आप बीती, 282 भारतीय सिपाह‍ियों की शहादत कुएं में थी दफन

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165 साल बाद कंकालों ने बताई ब्र‍िटिश क्रूरता की आप बीती, 282 भारतीय सिपाह‍ियों की शहादत कुएं में थी दफन

165 साल बाद कंकालों ने बताई ब्र‍िटिश क्रूरता की आप बीती, 282 भारतीय सिपाह‍ियों की शहादत कुएं में थी दफन

चंडीगढ़: जल‍ियावाला बाग नरसंहार (Jallianwala Bagh massacre)। जब भी इस घटना का जिक्र होता है तो हर भारतीय का खून खौल उठता है। लेकिन क्‍या आपको पता है क‍ि भारत में ऐसा एक नरसंहार और हुआ था। इसकी पुष्टि हो पाई 165 साल बाद। पंजाब, अमृतसर के अजनाला (Ajnala) के कुएं में वर्ष 2014 में कुछ कंकाल और अवशेष मिले थे। इस कुएं को लोग कालियांवाला कुआं (Kalianwala kuan) भी कहते हैं। अजनाला कस्‍बा है और गांव का नाम है खूह कालियांवाला (Khuh Kalianwala)। स्थानीय पुरातत्वविदों ने इस पर काम करना शुरू किया। इसके बाद देश के दूसरे ह‍िस्‍सों से पुरातत्वविद भी इस मुहिम से जुड़े। अब जाकर ये पता लग सका क‍ि ये कंकाल क‍िसके हैं। जर्नल फ्रंटियर्स इन जेनेटिक्स में गुरुवार को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ये कंकाल उन 282 भारतीय क्रांत‍िकारियों के हैं जिन्‍होंने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह (Ajnala Massacre) किया था। तब अमृतसर के आयुक्‍त रहे फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने इनकी हत्‍या करवाई थी। वैसे ही जैसे जनरल डायल ने जल‍ियावाला बाग में निर्दोष भारतीयों का नरसंहार कराया था।

क्रांतिकार‍ियों की लाशों से पट गया था कुआं
घटना 1 अगस्‍त 1857 की है। जल‍ियावाला बाग नरसंहार से लगभग 62 साल पहले। इसके बारे में खुद तब अमृतसर के आयुक्‍त रहे फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने अपनी किताब The Crisis in the Punjab, from the 10th of May Until the Fall of Delhi में लिखा है। वे लिखते हैं क‍ि मियां मीर छावनी (वर्तमान में पाकिस्तान, लाहौर में) में तैनात भारतीय सैनिकों ने पोर्क-ग्रीस कारतूस का विरोध शुरू कर दिया। 10 मई को मेरठ में अंग्रेजों के ख‍िलाफ बगावत शुरू हो चुकी थी। अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं।

29 मार्च, 1857 को सैनिक मंगल पांडे बैरकपुर छावनी में अपने अफसरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को आसानी से शांत करा दिया। मीर छावनी में भी इसे लेकर बगावत हुई। इस विद्रोह में अंग्रेजों की सेना में शामिल भारतीय सिपाहियों ने कुछ ब्रिटिश अधिकारियों को मार दिया। मारने के बाद के बाद सिपाही भारत के हिस्‍से में पड़ने वाले पंजाब की ओर जाने लगे।

फ्रेडरिक कूपर की किताब द क्राइसिस इन द पंजाब का वह ह‍िस्‍सा जिसमें 282 सौनिकों का जिक्र है।

फ्रेडरिक लिखते हैं क‍ि ये सिपाही 23 मिल दूर तक गये थे जहां इन्‍हें पकड़ लिया गया। कुछ को पहले ही पुलिस स्‍टेशन में बंधक बनाकर रखा गया था। पहले सबको फांसी होनी थी। इसके लिए फंदे की व्‍यवस्‍था भी हुई थी। लेकिन जब भागे हुए सिपाह‍ियों को वापस लाया गया तो कुल विद्रोह‍ियों की संख्‍या 282 हो गई थी। इतने लोगों को फांसी देने के लिए रस्‍सी नहीं थी। इन 282 सिपाहियों की हत्‍या कर दी गई। अब सवाल यह था इनके शवों का क्‍या क‍िया जाये। फ्रेडरिक लिखते हैं क‍ि पुलिस स्‍टेशन से लगभग 100 यार्ड की दूरी पर एक सूखा कुंआ था। शवों को उसी में फेंकने का फैसला लिया गया। सैनिकों की मदद से शव को एक के ऊपर एक करके कुंए में डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी गई। चूंक‍ि शव बहुत ज्‍यादा थे, तो कुएं को भरने के लिए ज्‍यादा म‍िट्टी की जरूरत नहीं पड़ी। कुआं लाशों से ही पट गया था।

क‍िताब में छिपाई क्रूरता की सच्‍चाई
फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने अपनी क‍िताब में इसका जिक्र कहीं नहीं किया क‍ि 282 सिपाहियों का नरसंहार कैसे हुआ। फ्रेडरिक ने क्रूरता की हदें पार कर दी थी और इसका जिक्र उनके ही देश के लिबरल सांसद, चार्ल्स गिलपिन ने 1859 में भरी सभी में किया था। उन्‍होंने फ्रेडरिक के इस नरसंहार के विरोध में 14 मार्च 1859 को DESTRUCTION OF THE 26TH NATIVE INFANTRY—OBSERVATIONS के नाम से सदन में दिये अपने संबोधन में कहा था क‍ि फ्रेडरिक ने भारतीय सेना की 26वीं नेटिव बंगाल इन्फैंट्री रेजिमेंट के सैनिकों की बेहद क्रूरता से हत्‍या करवा दी। ये सभी उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे। उन्‍हें अपनी सफाई तक नहीं देनी दी गई। अपने बचाव में बोलने तक नहीं दिया गया। यहां तक उन पर कोई चार्ज तक नहीं लगा था। इतना क्रूर भला कोई कैसे हो सकता है।

वर्ष 2014 में मिले इन सैनिकों के अवशेषों की जब जांच-पड़ताल हुई तो उसमें भी यह सामने आया क‍ि कुएं में डालने से पहले इनके साथ बर्बरता की गई थी। जांच करने वाली टीम में शामिल फोरेंसिक मानवविज्ञानी डॉ. जेएस सहरावत भी शामिल हैं। उन्‍होंने रिपोर्ट में इसका उल्‍लेख किया है कैसे इन भारतीय सैनिकों को टॉचर्र किया गया था। वे अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, ‘सही सलामत बरामद 86 खोपड़ियों में से प्रत्येक की भौंहों के बीच चोट के निशान थे। सिर में गहरे चोट के निशान हैं। जैसे उन्‍हें बहुत पास से गोली मारी गई हो।’

MR gilpin

लिबरल सांसद, चार्ल्स गिलपिन ने 1859 में फ्रेडरिक हेनरी कूपर के अजनाला में क‍िये गये नरसंहार की निंदा की थी।

प्रकाश‍ित रिपोर्ट में यह भी बताया गया है क‍ि उत्खननकर्ताओं ने पत्थर की गोलियां भी बरामद कीं जिनका इस्तेमाल आमतौर पर 19वीं शताब्दी में बंदी लोगों को मारने के लिए किया जाता था। हड्डी के नमूनों में पता चला क‍ि शरीर की कई हड्डियों को तोड़ा गया। तोड़ने के तरीके से पता चला क‍ि गोली मारने से पहले उनके साथ क्रूरता की गई। सहरावत यह भी कहते हैं क‍ि कंकाल के अवशेषों की स्थिति को देखते हुए अब हम यह कह सकते हैं क‍ि शवों को एक ऊंचाई से कुएं में फेंका गया था।

जांच से पर्दा कैसे हटा?
हत्‍या की बात छिपाने के लिए कुएं की जमीन पर बाद में गुरुद्वारा बन गया। गुरुद्वारा दूसरी जगह गया। पहली बार इस घटना का ज‍िक्र तब हुआ था जब पंजाब की एक शोधार्थी छात्र को इंग्लैंड में हेनरी कूपर की किताब द क्राइसिस ऑफ पंजाब मिली। इसके बाद उन्‍होंने इसकी जानकारी पंजाब विश्वविद्यालय के एन्थ्रोपोलाजिस्ट विभाग को दी। वर्ष 2014 में कुआं खोजा गया और उसकी खुदाई हुई। तब वहां बड़ी संख्‍या में नर कंकाल मिले। शुरुआत में माना जा रहा था क‍ि ये कंकाल 1947 में बंटवारे के समय हुए दंगे में मारे गये सिखों के हैं।

अजनाला का वह कुआं जिसमें कंकाल मिले थे।

अजनाला का वह कुआं जिसमें कंकाल मिले थे।

डॉ. जेएस सेहरावत ने इन कंकालों का डीएनए और आइसोटोप अध्ययन, सीसीएमबी हैदराबाद, बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट लखनऊ और बीएचयू जंतु विज्ञान विभाग के प्रो.ज्ञानेश्वर चौबे के साथ ही मिलकर किया। खुदाई में दांत, जबड़े के टुकड़े, कशेरुक, खोपड़ी, फलांग (उंगली या पैर की अंगुली की हड्डी), फीमर (जांघ की हड्डी), हंसली (कॉलर की हड्डी), हथियारों के साथ-साथ कुछ सिक्के, आभूषण और पदक भी कुएं की साइट से निकाले गए थे। दांतों के 9,646 नमूने मिले थे। इनमें से अब तक 4,000 से अधिक का विश्लेषण किया जा चुका है।

शोधकर्ताओं ने दांतों के नमूनों का भी गहन अध्ययन किया क्योंकि 165 साल पुरानी हड्डी के अवशेष अच्छी तरह से संरक्षित नहीं थे। डीएनए को 50 अच्छी गुणवत्ता वाले दांतों के नमूनों से निकाला गया और जैविक नमूनों से आनुवंशिक उत्पत्ति का निर्धारण करने के लिए माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (एमटीडीएनए) विश्लेषण किया गया। इसके अलावा 85 दांतों के नमूने का ऑक्सीजन आइसोटोप जांच हुई।

Skeletal excavated from Punjab’s Ajnala

अजनाला में म‍िले नरकंकाल

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में जूलॉजी विभाग के सह-शोधकर्ता ज्ञानेश्वर चौबे बताते हैं क‍ि हम जो खाना खाते हैं वह दांतों पर जमा रहता है। इससे हम यह पता लगा पाते हैं क‍ि आख‍िरी समय क्‍या खाया गया था। इन दांतों का जब हमने परीक्षण किया तो चता चला क‍ि हमें मसूर के निशान जैसे खाद्य पदार्थ मिले। इससे हम यहा पता लगा सकें क‍ि मारे गए सैनिकों की उत्पत्ति सीधे गंगा के मैदानी इलाकों में हुई थी।

सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के मुख्य वैज्ञानिक और सेंटर फॉर डीएनए फ़िंगरप्रिंटिंग और डायग्नोस्टिक्स, हैदराबाद के, के थंगराज बताते हैं क‍ि कई शोध विधियों ने इस बात का समर्थन किया कि कुएं में पाए गए मानव कंकाल पंजाब या पाकिस्तान में रहने वाले लोगों के नहीं थे, जैसा कि आमतौर पर माना जाता है। बल्कि, डीएनए उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के लोगों के साथ मेल खाते हैं।

अजनाला के कुएं से बरामद अंंग्रेजी सिक्‍के और नर कंकाल

अजनाला के कुएं से बरामद अंंग्रेजी सिक्‍के और नर कंकाल

सैनिकों की औसतन उम्र 33 वर्ष थी
सहरावत ने बताते हैं क‍ि ट्रेस तत्वों और प्राचीन डीएनए विश्लेषण के आधार पर सैनिकों की औसत आयु की गणना 21 से 49 वर्ष के बीच की गई, जिसमें औसतन 33 वर्ष थे। चूंकि हड्डी में तत्वों का जमाव उम्र के साथ बदलता रहता है, दांतों के 89 प्रतिशत से अधिक नमूने 21 से 49 वर्ष की आयु वर्ग में पाए गए।

कंकाल के अवशेषों के साथ पुरातत्वविदों ने कुछ आभूषण, पदक और सिक्के भी बरामद किए हैं – कुछ 1799, 1806, 1841 और 1853 की महारानी विक्टोरिया के प्रतीक हैं। इससे यह प्रमाणित हुआ क‍ि अवशेष सैनिकों के थे।

जल‍ियावाला बाग नरसंहार की तरह अंग्रेजों ने और नरसंहार किये
लंदन में क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में ब्रिटिश इंपीरियल हिस्ट्री के वरिष्ठ व्याख्याता डेनिश अकादमिक डॉ किम वैगनर अपनी क‍िताब अमृतसर 1919: एन एम्पायर ऑफ फियर एंड द मेकिंग ऑफ ए नरसंहार में लिखते हैं क‍ि भारत में अंग्रेजों ने जल‍ियावाला बाग के अलावा भी कई नरसंहार क‍िये थे। वे लिखते हैं क‍ि भारतीयों के प्रति अन्य औपनिवेशिक अधिकारियों का रवैया डायर के समान ही था। उनका मानना था कि भारतीय केवल पाशविक बल को समझते हैं।

Kim wagner

अमृतसर 1919: एन एम्पायर ऑफ फियर एंड द मेकिंग ऑफ ए नरसंहार

वे लिखते हैं क‍ि जलियांवाला बाग से दो हफ्ते पहले दिल्ली के कमांडिंग ऑफिसर ब्रिगेडियर ड्रेक-बुकानन ने 30 भारतीय नागरिकों की हत्या करवा दी थी। इस तरह की हत्याओं को अंजाम देने वाले अन्य लोगों की मानसिकता डायर के समान थी। इनमें जिला आयुक्त फ्रेडरिक हेनरी कूपर भी शामिल थे जिन्होंने 1857 में सिपाहियों की एक पूरी रेजिमेंट का सफाया कर दिया था और उनके शवों को अमृतसर शहर के पास अजनाला में एक कुएं में फेंक दिया था। इस कुएं को स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर शहीदान वाला खू के नाम से जाना जाता है।



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