UP Election Result: लगातार तीन चुनावों में अखिलेश की हार क्या कहती है, मोदी युग या रणनीतिक चूक…समझिए क्या है हकीकत

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UP Election Result: लगातार तीन चुनावों में अखिलेश की हार क्या कहती है, मोदी युग या रणनीतिक चूक…समझिए क्या है हकीकत

UP Election Result: लगातार तीन चुनावों में अखिलेश की हार क्या कहती है, मोदी युग या रणनीतिक चूक…समझिए क्या है हकीकत

नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election) के नतीजों के बाद अखिलेश यादव (Akhilesh yadav) की ‘किचन कैबिनेट’ के एक युवा नेता की बेहद मासूम टिप्पणी यह रही कि ‘भैया की बदकिस्मती है कि जब से उन्होंने पार्टी की कमान संभाली, मोदी युग (Modi Era) शुरू हो गया।’ लेकिन यह तर्क आधा ही सच है। सच यहां तक है कि अखिलेश यादव के समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) का चेहरा बनने के बाद से ही मोदी युग शुरू हुआ।

2012 में मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने अखिलेश यादव को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपी और उसके बाद 2014 से ही मोदी युग शुरू हो गया। जो बाकी का आधा सच है, वह यह है कि ऐसा नहीं कि 2014 में ‘मोदी युग’ की शुरुआत के बाद राज्यों में बीजेपी को शिकस्त नहीं दी जा सकी है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने लगातार दो बार ‘मोदी युग’ में ही जीत दर्ज की। बंगाल में भी ऐसा ही हुआ। वहां भी ममता बनर्जी ने मोदी युग की शुरुआत के बाद 2016 और 2021 में जीत दर्ज की। पंजाब में भी लगातार दो चुनावों से बीजेपी हार ही रही है। बिहार में महागठबंधन 2015 में बीजेपी को हरा चुका है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी मोदी युग के दौरान ही बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। यानी राज्यों में बीजेपी अपराजेय नहीं है।

2012 के मुकाबले आधी ताकत
साल 2012 के जिस विधानसभा चुनाव के जरिए यूपी में अखिलेश यादव की ताजपोशी हुई थी, उस चुनाव को अखिलेश यादव का चुनाव नहीं कहा जा सकता। वह चुनाव मुलायम यादव के प्रबंधन में लड़ा गया था। उस प्रबंधन का हिस्सा ही अखिलेश यादव की साइकल यात्रा थी, जिसने उन्हें यूपी की राजनीति में स्थापित करने का मौका दिया। उस पूरे चुनावी अभियान में खुद अखिलेश यादव कहते रहे थे कि समाजवादी पार्टी की सरकार बनने पर ‘नेता जी’ (यूपी की राजनीति में मुलायम सिंह यादव को इसी नाम से जाना जाता है) ही मुख्यमंत्री बनेंगे।

यह अलग बात है कि उस चुनाव में जब समाजवादी पार्टी को बहुमत हासिल हुआ तो परिवार में तय हुआ कि यही सबसे सही मौका होगा जब मुलायम सिंह यादव अपनी राजनीतिक विरासत अखिलेश को सौंप दें। अखिलेश के राजनीतिक उत्तराधिकारी बनने के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की आधी-अधूरी चली लेकिन बाकी के तीन चुनाव 2017, 2019 और 2022 पूरी तरह से अखिलेश यादव की रणनीति के अनुसार लड़े गए। पार्टी प्रत्याशियों के चयन से लेकर गठबंधन तक के सभी फैसले अखिलेश के ही थे।

संयोग यह कि इन तीनों चुनावों में समाजवादी पार्टी को बुरी तरह का हार का सामना करना पड़ा। पार्टी के जो लोग 2022 के नतीजों के जरिए यह कह कर अपनी पीठ ठोक रहे हैं कि सरकार भले ही सरकार न बन पाई हो लेकिन विधानसभा में उनकी सीट 47 से बढ़कर 111 हो गई हैं, उन्हें यह भी याद रखना होगा कि 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के हिस्से 224 सीट आई थीं। यानी 2012 के मुकाबले समाजवादी पार्टी आधी ताकत पर ही है।

मुलायम-अखिलेश में यह है फर्क
यूपी की राजनीति के लिए मुलायम सिंह यादव के कुछ ‘मंत्र’ रहे हैं। जैसे वह कभी भी कांग्रेस के साथ दोस्ती के पक्षधर नहीं रहे। उन्होंने जो मुकाम हासिल किया, वह गैर कांग्रेसवाद के जरिए ही किया। अखिलेश यादव ने 2017 के चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन कर चुनाव लड़ा और कांग्रेस के लिए अपने कई सीटिंग विधायकों सहित करीब सौ सीटें छोड़ दी थीं। इनमें से कांग्रेस सिर्फ सात सीटें ही जीत पाई थी। 1993 में बीएसपी के साथ गठबंधन से मिले अनुभव के बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि यह फैसला उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चूक थी।

वर्ष 2019 के चुनाव में अखिलेश यादव ने बीएसपी से गठबंधन किया और आधी सीट उन्हें दे दीं। बहुजन समाज पार्टी ने इस गठबंधन के सहारे लोकसभा में अपनी सीट शून्य से दस कर लीं लेकिन समाजवादी पार्टी की सीटें पांच की पांच ही रह गईं। 2019 के नतीजे आते ही बीएसपी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन भी खत्म कर लिया। मुलायम सिंह यादव के चुनावी अभियान का हिस्सा अलग-अलग जाति समूहों के कद्दावर नेता हुआ करते थे, जैसे-बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, बृजभूषण तिवारी, मोहन सिंह, भगवती सिंह, सलीम इकबाल शेरवानी, आजम खां।

वहीं, अखिलेश यादव का पूरा चुनावी अभियान अकेले उन पर ही केंद्रित रहता है और जो उनके टीम का हिस्सा भी हैं, वे ज्यादातर युवा हैं और उनकी वैसी ‘मास अपील’ नहीं है। मुलायम सिंह बहुत पहले ही नॉन यादव ओबीसी की अहमियत जान गए थे, इस वजह से उन्होंने नॉन यादव ओबीसी नेताओं की नई पौध तैयार की थी लेकिन अखिलेश के कार्यकाल में यह काम गति नहीं पा सका।

अखिलेश के लिए आगे का रास्ता
दो साल बाद 2024 लोकसभा चुनाव में खुद को साबित करने के लिए अखिलेश यादव के पास एक और मौका होगा। यह चुनाव और भी कठिन होंगे क्योंकि यह चुनाव प्रधानमंत्री पद के लिए होगा। उत्तर प्रदेश की जनता जान रही होगी कि अखिलेश प्रधानमंत्री पद की रेस में नहीं है। अखिलेश यादव को इस चुनाव में अपने जनाधार को बचाए रखने की जद्दोजहद करनी होगी। वैसे उनके पास अभी दो साल का मौका है, अपनी रणनीतिक चूक दुरुस्त करने का।

कभी 26 सांसद थे समाजवादी पार्टी के
1992 में बनी समाजवादी पार्टी के 1996 के लोकसभा चुनाव में 16 सांसद जीते थे और 2004 के लोकसभा के चुनाव में यह संख्या 36 पर पहुंच गई थी। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव ऐसे रहे, जिसमें समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन सबसे न्यूनतम रहा है। सिर्फ पांच-पांच सांसद जीते।



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