UP Chunav: यूपी में दलित समाज तलाश रहा नया सियासी ठिकाना, ट्रेंड में बदलाव कर रहे बड़ा इशारा h3>
हाइलाइट्स
- दलित वोट बैंक में लगातार दिख रहा है बिखराव, बसपा पर पड़ा असर
- दलितों के एक समूह में ही प्रभावी दिख पा रही हैं मायावती, घटाई चमक
- 2014 से लगातार बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन में आई गिरावट
- दलित समाज के एक हिस्से के बीजेपी में शिफ्ट होने से बदली स्थिति
लखनऊ: 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। यह मायावती के लिए तो बड़ा झटका था ही, साथ ही सियासी गलियारों में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय भी बना। इसे नजरअंदाज करना इसलिए भी मुश्किल था, क्योंकि यह सब मोदी लहर के कारण हुआ था। मोदी लहर में भी समाजवादी पार्टी 5 और कांग्रेस 2 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बहुजन समाज पार्टी का रिजल्ट बहुत ही खराब गया। 403 विधानसभा सीटों में महज 19 पर ही बसपा जीत दर्ज कर सकी।
सवाल यहीं से उठा कि क्या उत्तर प्रदेश में दलित समाज में नया सियासी ठिकाना तलाश लिया है। मोटे तौर पर कहा गया कि 2014 के चुनाव में मायावती का जीरो हो जाना और बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का 80 में से 73 सीटों को जीत लेना दिखाता है कि दलित समाज के वोट का एक हिस्सा बसपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है। 2017 के चुनाव में बसपा के 19 सीटों पर सिमट जाने के बाद यह बात और भी मजबूती के साथ कही जाने लगी। दलित वोट अब बहुजन समाज पार्टी में नहीं रहा।
लेकिन, मायावती कभी भी इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुई। उनका कहना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भले ही एक भी सीट न मिली हो, लेकिन उन्हें वोट 19 फीसदी मिला। यह वोट दलित समाज का था। 2017 के चुनाव को लेकर भी उनका यही तक था। एक तरह से वह कहना चाह रही थी कि दलित उनके साथ अभी भी है। बाकी जातियों के वोट नहीं मिल रहे हैं।
क्या है अंदर की हकीकत
90 के दशक तक यूपी में दलित वोट कांग्रेस का ही वोट बैंक रहा था। 90 के दशक में जब पूरे देश में सियासत का चेहरा बदला, तो यूपी में दलित समाज बहुजन समाज पार्टी के साथ गोलबंद हुआ और बसपा की सबसे बड़ी ताकत बना। बसपा के टिकट के लिए मारामारी होती थी, क्योंकि उम्मीदवारों को लगता था कि बीएसपी निशान पर उन्हें 20-21 फीसदी वोट तो बगैर किसी मेहनत के ही मिल जाएगा। दूसरी जातियों के वोटों के लिए थोड़ी सी मेहनत कर लेने पर भी चुनाव जीत सकते हैं।
ऊपर से देखने में तो दलित समाज एक लगता है, लेकिन अंदर उनके भी पाले बंटे हुए हैं। दलित समाज में सबसे ज्यादा जाटव जाति का हिस्सा है, जिससे खुद मायावती आती हैं। यह जाति तो पूरे तौर पर बहुजन समाज पार्टी के साथ जुड़ी रही है। लेकिन, बाकी जातियां उस हद तक मायावती के लिए गोलबंद नहीं रही हैं। क्योंकि, जाटव के साथ उनका संबंध में नहीं बन पाता है। तमाम मौके पर वे दूसरे राजनीतिक पाले में खड़े हो जाते हैं।
2009 के लोकसभा चुनाव में बाराबंकी से मायावती के प्रमुख सचिव रह चुके पीएल पुनिया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे। बाराबंकी अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित सीट है। मायावती ने पूरी ताकत लगा रखी थी कि पीएल पुनिया चुनाव ना जीत पाएं। लेकिन, वह जीत गए। वजह यही मानी गई कि उस सीट पर पासी जाति के वोट ज्यादा हैं और वह कांग्रेस के साथ गोलबंद हो गए थे।
क्या बड़े बदलाव की तरफ है इशारा
2014 से देश में जो मोदी लहर चली, उसका असर उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिला है। यूपी में बीजेपी के पक्ष में पहले से ज्यादा दलित समाज के वोट जाने लगे हैं। जाटव समाज में भी बिखराव देखने को मिला है, जो बहुजन समाज पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। 2022 के चुनाव में बसपा के चुनावी अभियान में पहले जैसी गर्मी नहीं दिखाई पड़ रही है। वजह यही है कि उम्मीदवारों के बीच अब बसपा के लिए पहले जैसा आकर्षण नहीं रहा है। एक वजह यह भी है कि दलित वोटरों कि बीएसपी के लिए पहले जैसी गोलबंदी नहीं दिख रही है। हालांकि, बसपा की तरफ से यह सफाई कई मौकों पर आ चुकी है कि उनका वोटर मुखर नहीं है। आर्थिक रूप से कमजोर है। इसलिए, बसपा का चुनावी अभियान कम अन्य दलों को कमजोर दिख रहा है।
एससी सीटों पर दलों की स्थिति
विधानसभा चुनाव 2017
कुल आरक्षित सीटें : 84
बीजेपी : 71
अपना दल (एस) : 01
एसबीएसपी : 03
सपा : 06
बसपा : 01
निर्दलीय : 01
विधानसभा चुनाव 2012
कुल आरक्षित सीटें : 85
सपा : 59
बसपा : 14
कांग्रेस : 04
बीजेपी : 03
रालोद : 03
निर्दलीय : 01
विधानसभा चुनाव 2007
कुल आरक्षित सीटें : 89
बसपा : 61
सपा : 13
बीजेपी : 07
कांग्रेस : 05
रालोद : 01
आरएसपी : 01
निर्दलीय : 01
UP Election: दलित वोट बैंक में बिखराव ने घटा दिया है मायावती और बसपा का आकर्षण
हाइलाइट्स
- दलित वोट बैंक में लगातार दिख रहा है बिखराव, बसपा पर पड़ा असर
- दलितों के एक समूह में ही प्रभावी दिख पा रही हैं मायावती, घटाई चमक
- 2014 से लगातार बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन में आई गिरावट
- दलित समाज के एक हिस्से के बीजेपी में शिफ्ट होने से बदली स्थिति
सवाल यहीं से उठा कि क्या उत्तर प्रदेश में दलित समाज में नया सियासी ठिकाना तलाश लिया है। मोटे तौर पर कहा गया कि 2014 के चुनाव में मायावती का जीरो हो जाना और बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का 80 में से 73 सीटों को जीत लेना दिखाता है कि दलित समाज के वोट का एक हिस्सा बसपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है। 2017 के चुनाव में बसपा के 19 सीटों पर सिमट जाने के बाद यह बात और भी मजबूती के साथ कही जाने लगी। दलित वोट अब बहुजन समाज पार्टी में नहीं रहा।
लेकिन, मायावती कभी भी इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुई। उनका कहना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भले ही एक भी सीट न मिली हो, लेकिन उन्हें वोट 19 फीसदी मिला। यह वोट दलित समाज का था। 2017 के चुनाव को लेकर भी उनका यही तक था। एक तरह से वह कहना चाह रही थी कि दलित उनके साथ अभी भी है। बाकी जातियों के वोट नहीं मिल रहे हैं।
क्या है अंदर की हकीकत
90 के दशक तक यूपी में दलित वोट कांग्रेस का ही वोट बैंक रहा था। 90 के दशक में जब पूरे देश में सियासत का चेहरा बदला, तो यूपी में दलित समाज बहुजन समाज पार्टी के साथ गोलबंद हुआ और बसपा की सबसे बड़ी ताकत बना। बसपा के टिकट के लिए मारामारी होती थी, क्योंकि उम्मीदवारों को लगता था कि बीएसपी निशान पर उन्हें 20-21 फीसदी वोट तो बगैर किसी मेहनत के ही मिल जाएगा। दूसरी जातियों के वोटों के लिए थोड़ी सी मेहनत कर लेने पर भी चुनाव जीत सकते हैं।
ऊपर से देखने में तो दलित समाज एक लगता है, लेकिन अंदर उनके भी पाले बंटे हुए हैं। दलित समाज में सबसे ज्यादा जाटव जाति का हिस्सा है, जिससे खुद मायावती आती हैं। यह जाति तो पूरे तौर पर बहुजन समाज पार्टी के साथ जुड़ी रही है। लेकिन, बाकी जातियां उस हद तक मायावती के लिए गोलबंद नहीं रही हैं। क्योंकि, जाटव के साथ उनका संबंध में नहीं बन पाता है। तमाम मौके पर वे दूसरे राजनीतिक पाले में खड़े हो जाते हैं।
2009 के लोकसभा चुनाव में बाराबंकी से मायावती के प्रमुख सचिव रह चुके पीएल पुनिया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे। बाराबंकी अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित सीट है। मायावती ने पूरी ताकत लगा रखी थी कि पीएल पुनिया चुनाव ना जीत पाएं। लेकिन, वह जीत गए। वजह यही मानी गई कि उस सीट पर पासी जाति के वोट ज्यादा हैं और वह कांग्रेस के साथ गोलबंद हो गए थे।
क्या बड़े बदलाव की तरफ है इशारा
2014 से देश में जो मोदी लहर चली, उसका असर उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिला है। यूपी में बीजेपी के पक्ष में पहले से ज्यादा दलित समाज के वोट जाने लगे हैं। जाटव समाज में भी बिखराव देखने को मिला है, जो बहुजन समाज पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। 2022 के चुनाव में बसपा के चुनावी अभियान में पहले जैसी गर्मी नहीं दिखाई पड़ रही है। वजह यही है कि उम्मीदवारों के बीच अब बसपा के लिए पहले जैसा आकर्षण नहीं रहा है। एक वजह यह भी है कि दलित वोटरों कि बीएसपी के लिए पहले जैसी गोलबंदी नहीं दिख रही है। हालांकि, बसपा की तरफ से यह सफाई कई मौकों पर आ चुकी है कि उनका वोटर मुखर नहीं है। आर्थिक रूप से कमजोर है। इसलिए, बसपा का चुनावी अभियान कम अन्य दलों को कमजोर दिख रहा है।
एससी सीटों पर दलों की स्थिति
विधानसभा चुनाव 2017
कुल आरक्षित सीटें : 84
बीजेपी : 71
अपना दल (एस) : 01
एसबीएसपी : 03
सपा : 06
बसपा : 01
निर्दलीय : 01
विधानसभा चुनाव 2012
कुल आरक्षित सीटें : 85
सपा : 59
बसपा : 14
कांग्रेस : 04
बीजेपी : 03
रालोद : 03
निर्दलीय : 01
विधानसभा चुनाव 2007
कुल आरक्षित सीटें : 89
बसपा : 61
सपा : 13
बीजेपी : 07
कांग्रेस : 05
रालोद : 01
आरएसपी : 01
निर्दलीय : 01
UP Election: दलित वोट बैंक में बिखराव ने घटा दिया है मायावती और बसपा का आकर्षण