कोविड के जब मामले बढ़ते हैं तो साइलेंट पेशेंट्स पर दबाव और बढ़ता है…

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कोविड के जब मामले बढ़ते हैं तो साइलेंट पेशेंट्स पर दबाव और बढ़ता है…



<p>अमेरिका में जिन्हें साइलेंट पेशेंट्स यानी खामोश मरीज कहा जाता है, उन्हें हम सीधी भाषा में केयरगिवर कह सकते हैं. केयरगिवर मतलब तीमारदार. कोविड-19 के बढ़ते मामलों के बीच मरीजों के अलावा उनके तीमारदारों की भी एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त है, और अक्सर उनमें औरतें ही शामिल हैं. बीमार औरत हो या पुरुष, उनकी देखभाल की ज्यादातर जिम्मेदारी औरतों पर ही आ जाती है. क्या इन साइलेंट पेशेंट्स की तरफ किसी का ध्यान जाता है.</p>
<p>यूं दुनिया के हर कोने में तीमारदारों में औरतें बड़ी संख्या में हैं. पेड या अनपेड, दोनों तरह की केयरगिविंग में. केयरगिवर्स की दर्जन भर संगठनों ने 2017 में एक रिपोर्ट तैयार की थी- एंब्रेसिंग द क्रिटिकल रोल ऑफ केयरगिवर्स अराउंड द वर्ल्ड. इसमें कहा गया था कि अमेरिका में 65 मिलियन से ज्यादा अनपेड फैमिली केयरगिवर्स हैं जो बूढ़े, बीमार और विकलांग लोगों की देखभाल करते हैं. अनपेड फैमिली केयरगिवर्स का मतलब है, परिवार के वे सदस्य जो बिना किसी वेतन के किसी दूसरे की देखभाल करते हैं. इसी तरह यूरोपीय क्वालिटी ऑफ लाइफ सर्वे में पता चला था कि यूरोप में 100 मिलियन के करीब केयरगिवर्स हैं जोकि यूरोपीय संघ की आबादी का 20 प्रतिशत हैं. इनमें से 70 प्रतिशत से अधिक तीमारदारी औरतें करती हैं. ग्लोबल हेल्थ सेक्टर में औरतों का पेड और अनपेड वर्क ग्लोबल जीडीपी का करीब पांच प्रतिशत है जोकि 2018 में 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है.</p>
<p>अब, ये सारे आंकड़े विश्व स्तर के हैं. भारत के आंकड़े इनमें अलग से नहीं हैं. और अपने यहां तो ऐसे आंकड़े हैं ही नहीं. यहां यह मानकर चला जाता है कि औरतों का काम सेवादारी करना है. रसोई पकाने से लेकर साफ सफाई और लोगों की देखभाल. कोविड जैसी महामारी ने उन पर पहले ही दबाव बढ़ाया है. अब जैसे जैसे महामारी पैर पसार रही है, घरेलू स्तर पर उनका बोझ बढ़ता जा रहा है.</p>
<p><strong>घर काम बढ़ता जा रहा है<br /></strong>भारत जैसे देश में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की हालत पहले खराब रही है. तिस पर, रोजाना पॉजिटिव मामलों के बढ़ते जाने से बार-बार कहा जा रहा है कि होम आइसोलेशन को बढ़ावा दिया जाए. चूंकि मरीज घर पर है, इसलिए उसकी देखभाल का जिम्मा भी परिवार के सदस्यों पर आ जाता है. जहां परिवार के सभी सदस्य पॉजिटिव हो रहे हैं, वहां घर पर काम की जिम्मेदारी भी औरतों पर आ जाती है. इसके बावजूद कि उसकी तबीयत ठीक न हो. भोजन-पानी, दवाओं के अलावा, घर की साफ-सफाई की भी. घर में संक्रमित होने के कारण साफ सफाई, सैनिटेशन भी जरूरी हो जाता है.जहां संक्रमण एक सदस्य को है, वहां भी पेड प्रोफेशनल को काम पर नहीं रखा जा सकता. उस स्थिति में खाना पकाने से लेकर बच्चों को पढ़ाने का काम भी औरतों के ही मत्थे आ जाता है. चूंकि डेकेयर बंद हैं, स्कूल और ट्यूशंस तक. भारत में पहले ही मुफ्त के घरेलू कामों में औरतों का काफी समय जाता है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने पिछले साल पहला टाइम यूज सर्वे किया था. इसमें कहा गया था कि देश की 81.2 प्रतिशत औरतें मुफ्त के घरेलू कामों में दिन में औसत चार घंटे 59 मिनट खर्च करती हैं. इसके मुकाबले ऐसा करने वाले आदमियों की दर 26.1 प्रतिशत है और वे दिन में सिर्फ 1 घंटे 37 मिनट ही मुफ्त का घरेलू काम करते हैं. यह सर्वे महामारी के सिलसिले में नहीं किया गया था. महामारी की तीमारदारी को इसमें जोड़ दें तो दिल दहल सकता है.</p>
<p><strong>करियर लगभग चौपट है<br /></strong>कोविड के बढ़ते मामलों के बीच बहुतों की नौकरियां जा रही हैं. जिनकी कायम है, उनके लिए अनपेड वर्क और पेड वर्क के बीच संतुलन बनाना मुश्किल हो रहा है. औरतों को वर्कफोर्स में बहुत मुश्किल से जगह मिली है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के डेटा कहते हैं कि शहरी महिलाओं की रोजगार दर में लगातार गिरावट हो रही है. महामारी से पहले शहरी क्षेत्रों में 7.5 प्रतिशत महिलाओं के पास नौकरियां थीं. फिर अप्रैल में यह संख्या गिरकर 5 प्रतिशत हो गई और अब तक इसमें कोई रिकवरी नहीं हुई है. फरवरी 2021 के डेटा में महिलाओं की रोजगार दर 5.4 प्रतिशत है. ऐसे में केयरगिविंग का काम बढ़ने से बची खुची नौकरियों पर ध्यान लगाना मुश्किल हो रहा है. नौकरियों के साथ पार्ट टाइम काम पर असर हुआ है. अगर कोविड ने परिवार के किसी प्रिय को लील लिया है तो उसका मानसिक दबाव और तनाव नौकरियों को संभाले रखने में परेशानियां पैदा कर रहा है.</p>
<p><strong>घटती आमदनी तो अपने प्रति लापरवाही<br /></strong>महामारी ने आर्थिक तंगी की है तो इसका असर सीधा औरतों पर पड़ा है. वे सबसे पहले अपने प्रति लापरवाह हो जाती हैं.यूएन विमेन के आंकड़े कहते हैं कि आर्थिक संकट औरतों पर ज्यादा हमला करता है क्योंकि औरतों की आमदनी कम होती है. उनकी बचत भी कम होती है. वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का ज्यादा बड़ा हिस्सा हैं और उन्हें सामाजिक संरक्षण भी कम मिलता है. जाहिर सी बात है, संक्रमण में जब आमदनी पर असर हो रहा है तो औरतें परिवार के बाकी सदस्यों का ज्यादा ध्यान रखती हैं. 2016 के सोशल एटीट्यूट्स रिसर्च फॉर इंडिया के एक सर्वे में उत्तर प्रदेश की हर 10 में से चार औरतों ने कहा था कि वे घर के बाकी लोगों (यानी मर्दों) के खाने के बाद खाना खाती है. परंपराएं अक्सर बड़ी चोट करती हैं. ऐसे में अपने खान पान और सेहत का ध्यान रखना मुश्किल होता है. बीमारी में बिसूरने के बाद जी उचाट होता है, और रही सही भूख भी खत्म हो जाती है.</p>
<p><strong>मानसिक स्वास्थ्य पर असर, इसकी तरफ किसका ध्यान जाता है<br /></strong>अमेरिकी न्यूज मैगजीन टाइम ने इस साल मार्च में लॉन्ग कोविड पर एक आर्टिकल छापा था. कोविड मरीजों और उनके केयरगिवर्स पर लिखे इस आर्टिकल में बताया गया था कि कैसे फैमिली केयरगिवर्स को जबरदस्त तनाव से गुजरना पड़ता है. उनमें डिप्रेशन और मेंटल हेल्थ इश्यूज़ होने की ज्यादा आशंका होती है. साथ ही दूसरी शारीरिक परेशानियां भी हो सकती हैं, क्योंकि उनकी भूख और नींद पर असर होता है. कई बार तीमारदारी के कारण उन्हें अपने मेडिकल अप्वाइंटमेंट्स को रद्द करना पड़ता है. फिर, अगर परिवार में आर्थिक तंगी हो तो यह कैसे कहा जा सकता है कि तीमारदार को योग क्लास ज्वाइन करनी चाहिए या खुद थेरेपिस्ट से मिलना चाहिए. आर्टिकल में न्यूयॉर्क के वेल कोर्नेल मेडिकल सेंटर के एक डॉक्टर के हवाल से बताया गया था कि वे लोग मरीजों के मेडिकल अप्वाइंटमेंट्स में ही केयरगिवर को भी बुलाते हैं. और दोनों की मानसिक और शारीरिक सेहत पर चर्चा करके, उनमें सुधार करने की कोशिश करते हैं.</p>
<p>क्या यह अपने यहां भी संभव है? महिला तीमारदारों और केयरगिवर्स को यह मौका मिलना मुश्किल ही है. कोविड-19 ने दूसरी बीमारियों को हाशिए पर डाल दिया है, और अस्पतालों में कोविड मरीजों के अलावा दूसरे मरीजों की जांच तक नहीं हो रही. ऐसे में महिला केयरगिवर्स की तरफ किसका ध्यान जाने वाला है.</p>
<p><em><strong>(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)</strong></em></p>