क्या भारतीय इतिहास में सभी किसानों को अपनी फसलों का मूल्य स्वयं तय करने का अधिकार था?

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किसान
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कृषि बहुत पुराना व्यवसाय है. प्राचीन भारत में भी लोगों के द्वारा बड़े स्तर पर कृषि की जाती थी. किसानों के हालात की बात करें, भारत के इतिहास की बात करें या वर्तमान की किसानों की हालात दयनीय बनी हुई हैं. किसानों का हमेशा से शोषण होता रहा है. अभी लगान की दर ज्यादा निर्धारित करके, कभी प्राकृतिक कारणों से और कभी उचित मूल्य ना मिलने से.

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भारत के इतिहास की बात करें या वर्तमान की किसानों को अपनी फसलों के मूल्य स्वयं तय करने का अधिकार होता है. लेकिन यह सिर्फ एक पक्ष है. इसका व्यवहारिक पक्ष बिल्कुल अलग है. किसान अपने खेत में फसल उगाता है, जो उपज होती है, वो उसकी खुद की होती है. जिसको बेचना चाहे या जिस भाव में बेचना चाहे, बेच सकता है. लेकिन इतिहास में या फिर वर्तमान के भी व्यवहारिक पक्ष की बात करें, तो किसान के ऊपर साहूकारों का कर्जा है. जो उनकी फसलों को औने-पौने दामों पर उनकों बेचने के लिए मजबूर कर देते थे.

किसान आंदोलन

इसी शोषण को रोकने के लिए सरकार द्वारा मंडी व्यवस्था की शुरूआत की गई थी ताकि साहूकार किसानों से जबरदस्ती औने-पौने दामों पर फसल को ना लें सकें. लेकिन मंडी व्यवस्था में MSP सरकार द्वारा तय किया जाता है. यहाँ भी सिर्फ कहने को किसान अपनी फसल को अपने मूल्य पर बेच सकता है, लेकिन व्यवहारिक तौर पर उसको सरकार द्वारा तय किए गए MSP पर या 10 से 20 रूपया औसतन बेचनी पड़ती है.

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किसानों की फसलों का मूल्य किसान अपने हिसाब से कभी तय नहीं किया. उसे बाजार की मांग को देखकर ही औन-पौने दामों पर हमेंशा अपनी फसल बेचनी पड़ी है. भारत की आजादी के बाद भी हालत ज्यादा नहीं बदले हैं. किसान का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यहीं रहा है कि वो कभी अपनी फसल का मूल्य खुद निर्धारित नहीं कर पाया.