मौर्य काल में शरद पूर्णिमा पर्व का क्या महत्व था ?

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शरद् पूर्णिमा
शरद् पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा का अपना विशेष महत्व रहा है. वर्तमान ही नहीं प्राचीन समय से ही शरद पूर्णिमा का पर्व विशेष महत्व रखता है. अगर मौर्य काल की बात करें जो भारत का पहला साम्राज्य था. उस समय भी इत त्यौहार का विशेष महत्व था. शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को ही हम शरद पूर्णिमा कहते हैं. अगर ज्‍योतिष शास्त्र  के अनुसार, देखें तो पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता.

शरद् पूर्णिमा

यदि इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल यानी देश के स्वर्णयुग में शरद पूर्णिमा को समूचे राज्य में कौमुदी महोत्सव के रूप में पूरी भव्यता के साथ मनाया जाता था।. इस दौरान राजा-प्रजा सभी गीत-संगीत व राससंग का भरपूर आनन्द लेते थे. आज भी देश के कई हिस्सों महाराष्ट्र, आंध्र तथा मथुरा-वृंदावन सहित अनेक स्थानों पर शरद पूर्णिमा को रास-लीला व अमृत उत्सव का आयोजन बड़ी धूम-धाम से किया जाता है.

शरद् पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा, कौमुदी पूर्णिमा, रास पूर्णिमा व चन्द्र उत्सव के नामों से जानी जाने वाली इस आश्विन पूर्णिमा की वैज्ञानिकता के पीछे हमारे तत्वदर्शी ऋषियों का सारगर्भित व शिक्षाप्रद दर्शन निहित है. ज्योतिषीय की मान्यता है कि साल में सिर्फ इसी दिन चंद्रमा अपनी 16 कलाओं के साथ पृथ्वी के सर्वाधिक निकट होता है. यह पर्व मानसून के अंत का प्रतीक माना जाता है.

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इस दिन चन्द्रमा की धवलता पूरे चरम पर होती है. आकाश में न बादल होते हैं और न ही धूल-गुबार होते हैं. प्रदूषण के कारण अब भले चन्द्रमा उतना शुभ्र व चमकदार न दिखे किन्तु ज्यादा नहीं एक-दो दशक पीछे का समय याद करें तो अच्छे से याद आता है कि शरद चन्द्र की रोशनी में सुई में धागा आराम से पिरो लिया जाता था.