हिंदी के प्रति प्रेम… विधानसभा में अचानक याद आ गए अटल, क्या नीतीश का मन फिर डोल रहा?
हिंदी-हिंदी क्या है मामला
दरअसल इन दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हिंदी की चिंता कुछ ज्यादा ही करने लगे हैं। इतना ही नहीं अंग्रजी के इस्तेमाल भर से उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जा रहा है। सोमवार को ही बिहार विधान परिषद में एक डिस्प्ले बोर्ड पर सदन के कार्यवाही की जानकारी अंग्रजी में दी जा रही थी। किस सदस्य को बोलना है, किसे कितना देर बोलना है। नीतीश कुमार की नजर डिस्प्ले बोर्ड पर पड़ी तो वे उखड़ गए। सभापति देवेश चंद्र ठाकुर की तरफ मुखातिब होते कहा कि एकदम हिन्दी को खत्म कर दीजिएगा क्या? डिस्प्ले बोर्ड पर ऑनरेबल लिख दिए हैं। स्पीकिंग टाइम लिखा हुआ है। इ सब का क्या अर्थ है। बिहार में इस तरह से क्यों लिखते हैं? काहे के लिए चलवाए हैं इ सब, फालतू चीज है। इसको ठीक कराइए। सब हिन्दी में रहना चाहिए। ई सब ठीक कराइए।
कृषि कार्यक्रम में भी भड़के थे सीएम नीतीश
बिहार सरकार के कृषि विभाग का कार्यक्रम था। चौथे कृषि रोड मैप के लिए सरकार की ओर से किसान समागम कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किसानों से राय मांग रहे थे। इसी बीच लखीसराय के किसान अमित कुमार ने सुझाव के क्रम में अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया। बस फिर क्या था मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आग बबूला हो गए। उन्होंने कहा कि यह इंग्लैंड नहीं है, भारत है। हिन्दी में बोलिए। किसानों की बात अंग्रेजी में नहीं बल्कि हमारे अपने मातृभाषा में होनी चाहिए।
क्या है हिंदी के पीछे का राग की वजह
जाने अनजाने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लीक पकड़ कर तो नहीं चल रहे हैं। अब इसे संयोग भी कह सकते हैं कि जिस तरह से देश के प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रीय अस्मिता के पैमाने पर देश की राजनीति को विश्व के आगे मजबूती से रखकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने में लगे हैं। क्या बिहार राज्य के सीएम नीतीश भी भाषाई अस्मिता को गंभीरता से उठा अपने को प्रोजेक्ट करने में लगे हैं। नीतीश कुमार का अंग्रेजी के इस्तेमाल पर उखड़ जाना यह भी दर्शाता है कि भाषाई अस्मिता के साथ कतई समझौता नहीं करने जा रहे। अंग्रजी बोल कर अपनी मौलिकता से अलग थलग रहने को वे तैयार भी नहीं हैं।
सेफ गेम की आधारभूमि तैयार कर रहे नीतीश
हिंदी-हिंदी की चर्चा करना और अंग्रेजी के प्रयोग पर उखड़ जाना। उधर, श्रद्धेय अटल जी का जिक्र करना। या फिर अमित शाह, राजनाथ सिंह को फोन करना और प्रधानमंत्री का फोन आना। ये सारी बातें ये इशारा कर रहीं कि नीतीश कुमार राजनीति का सेफेस्ट गेम खेलने के आग्रही रहे हैं। सो, राजनीति का एक सिरा बीजेपी के पास रखना उनकी राजनीतिक सोच का ही प्रतिफलन है।
नीतीश कुमार यह समझ चुके हैं कि बिहार में लोकसभा का चुनाव करप्शन के मुद्दे लड़ा जाना है। यही वजह भी है कि प्रशांत किशोर के लाख कहने पर भी नीतीश कुमारएक बार भी यह नहीं कह सके कि लालू परिवार भ्रष्टाचार में शामिल नहीं है। इसके पीछे की सोच शायद यह हो सकती है कि लोकसभा सीट के बंटवारे में मनमाफिक हिस्सेदारी नहीं मिली तो भ्रष्टाचार के सवाल पर आसानी से पाला बदला जा सके।
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क्या कहते हैं राजनीतिक विशेषज्ञ
राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ संजय सिंह कहते हैं कि नीतीश कुमार अपने को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में खुद को मोदी के बरक्स रखना चाहते हैं। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की सुरक्षा के सवाल को अपना यूएसपी बना रहे। नीतीश कुमार ने भाषाई अस्मिता का दामन थाम लिया है। जहां तक बीजेपी के शीर्ष नेताओं से बातचीत या संपर्क की बात है तो यह भी राजनीति का एक हिस्सा हो सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बीजेपी ने जितना लिबरल होकर जेडीयू को हिस्सेदारी दी है वह आरजेडी से उम्मीद नहीं की जा सकती। जेडीयू का फिलहाल 16 सीटों पर कब्जा है। आगामी लोकसभा चुनाव में इतनी हिस्सेदारी की उम्मीद नहीं दिख रही। इसलिए सभी मोर्चा खोल कर रखना नीतीश कुमार की मजबूरी हो सकती है।