हर स्त्री शक्तिरूपा | Gulab Kothari Article on Women’s Day Every Women ShaktiRoopa | Patrika News

179
हर स्त्री शक्तिरूपा | Gulab Kothari Article on Women’s Day Every Women ShaktiRoopa | Patrika News

हर स्त्री शक्तिरूपा | Gulab Kothari Article on Women’s Day Every Women ShaktiRoopa | Patrika News

International Women’s Day: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर ‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विचारोत्तेजक अग्रलेख-

जयपुर

Updated: March 08, 2022 02:36:25 pm

International Women’s Day: कृष्ण कह गए हैं कि-‘मम माया दुरत्यया’ और यह भी कह गए मैं ही माया भी हूं। माया क्या है? आज हम जिस देश-काल में जी रहे हैं, वह स्वयं भी माया की चकाचौंध के लिए ही जाना जाता है। माया शरीर है और यह युग शरीर के लिए जीने वाला है। हर कोई ग्लैमर का दीवाना है। इस दीवानगी को यदि पागलपन भी कहें, तो ज्यादा ठीक समझ में आ जाएगा। हमारे शिक्षित वर्ग से लेकर विकसित देशों के उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग तक, इस शरीर के रहस्य को कोई नहीं जानता। डॉक्टर भी नहीं जानते। सभी प्राणियों के नर-मादा शरीर एक ही सिद्धान्त पर निर्मित होते हैं, कार्य करते हैं। हम भी प्रकृति में पशु ही हैं, अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष तथा अभिनिवेश रूप पांच पाशों से बंधे होना ही पशुता कासूचक है।

‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी

आज समूची दुनिया महिला दिवस मना रही है। महिला क्या शरीर का नाम है? शास्त्र तो कहते हैं कि स्त्री भी पुरुष है-‘स्त्रिय: सतीस्तांऽमे पुंस आहु:’ (ऋग्वेद-1.164.16)। क्या स्वरूप है पुरुष का? वृषा प्राण रूप-इन्द्रप्राण से समन्वित अग्नि का नाम है पुरुष। योषा प्राण रूप-पूषा प्राण (पृथ्वी) से समन्वित सोम का नाम है स्त्री।

जो पुरुष कहलाता है, वह भी वास्तव में स्त्री है। जो वस्तुत: स्त्रियां हैं, पुुरुष नहीं है। उन स्त्री बने रहने वालों को व्यवहार में पुरुष कह रहे हैं। वास्तव में वे स्त्रियां ही हैं। सम्पूर्ण विश्व का निर्माण दो तत्वों से होता है- अग्नि और सोम। शरीर से पुरुष आग्नेय है और स्त्री सौम्या। साथ ही अद्र्धनारीश्वर का सिद्धान्त कहता है कि दोनों में दोनों हैं। कोई तत्व अकेला नहीं होता।

इसका अर्थ है कि पुरुष के आग्नेय शरीर के गर्भ में सोम रहता है। और स्त्री के सौम्य शरीर में अग्नि गर्भित है। सूर्य अग्नि युक्त ‘अह’ (दिन) से पुरुष शरीर की तथा चन्द्र-सोम युक्त अदृश्य सोम से सौम्य शरीर का स्वरूप बनता है। पुरुष दक्षिण-दक्ष-अग्नि रूप है, स्त्री वामा-उत्तरा-सौम्या है। यह भौतिक स्वरूप है।

पुरुष शरीर अग्नि है किन्तु इसकी सूक्ष्म प्रतिष्ठा सोम है-सोम प्रधान शुक्र तत्त्व है। अन्न भी सोम है और शरीर का अन्तिम धातु भी शुक्र है। यही पुरुषत्व है। मूल में शुक्र (रेत) को ही वास्तव मेे पुरुष कहेंगे। सोम तत्त्व योषा तत्त्व के कारण स्त्री है, पुरुष नहीं है।

इसी प्रकार स्त्री की मूल प्रतिष्ठा है शोणित (रक्त)। इसमें मलीमस-अत्रिप्राण रहता है। अत्रिप्राण से ही प्रजनन धर्म का उदय होता है। शोणित आग्नेय है-सोम के भीतर सूक्ष्म रूप से अग्नि रहता है। इसी आग्नेय प्रतिष्ठा के कारण स्त्री आग्नेय पुरुष है। इसीलिए मंत्र कहता है कि सभी स्त्रियां (अभिधा से) पुरुष ही है।

क्या स्वरूप बना स्त्री-पुरुष का? आग्नेय होने से पुरुष रुक्ष है, कर्कश है, वहीं भीतर सौम्य होने से स्निग्ध है, मृदु है, भीरु है। स्त्री सौम्या होने से स्निग्धा, सौम्या, मृदुता से युक्त है तथा शोणित रूप से आग्नेय-रूक्षा, कर्कशा, पिशुना है, अभया है। महाकाली है। स्त्री के इस स्वरूप पर आघात हो जाए तो यह सूक्ष्म रूप जाग पड़ता है।

स्थूल दृष्टि से पुरुष-स्त्री सूक्ष्म में स्त्री-पुरुष हैं। स्थूल में आकृति है, सूक्ष्म में प्रकृति है। तीसरा धरातल है-अहंकृति या अहम्। अहम् का सम्बन्ध अति सूक्ष्म प्राणात्मा से है। इसी के निष्कर्ष को सिद्धान्त रूप में स्वीकार किया है। जहां महद् योनि में जीव उत्पन्न होता है, वहीं सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी के सम्बन्ध से क्रमश: अहंकृति-प्रकृति-आकृति भाव पैदा होते हैं। तीनों ही भूतभाव क्रमश: सौर-चान्द्र-पार्थिव सम्वत्सर कहलाते हैं। तीनों ही योषा-वृषा रूप दाम्पत्य भावों से युक्त रहते हैं।

सौर (सूर्य) सम्वत्सर में प्राण रूप अग्नि-सोम ही अंहकृति (आत्मभाव) की प्रतिष्ठा बनते हैं। इनमें प्राण सोम गर्भित प्राणाग्नि तो पुरुष की अहंकृति तथा प्राण-अग्नि गर्भित प्राण सोम स्त्री की अहंकृति (आत्मा) बनता है। इन्हीं को पुंभ्रूण तथा स्त्रीभ्रूण कहते हैं। ये ही पुरुष-स्त्री सृष्टि के मूल प्रवर्तक हैं। इन आत्मभाव लक्षण भू्रण को ही कर्मभोक्ता-कर्मात्मा कहते हैं। ये ही दम्पति के शुक्र शोणित में कर्म भोगने के लिए प्रविष्ट होते हैं। इन्हीं से पुरुष-स्त्री की सृष्टि होती है। यह सूर्य का प्रभाव है।

चन्द्रमा के प्रभाव क्षेत्र-प्रकृति में सोम की प्रधानता रहती है, अग्नि गौण हो जाता है। फलस्वरूप अग्निप्राण प्रधान जो पुंभ्रूण है, वह सूक्ष्म भूत (सोम रूप) स्त्री भाव में आ जाता है। जो सोमप्राण रूप गौण भाव है, सूक्ष्म अग्नि भूतात्मा भाव में पुरुष भाव प्रतिष्ठित हो गया। अर्थात् जो पुरुष रूप अग्नि से तथा स्त्री रूप सोम से पहले था, वह सूक्ष्म स्तर पर उल्टा हो गया। यहां दोनों अग्नि-सोम चन्द्रमा के (सूक्ष्म भूत) शुक्र-शोणित कहलाए। सूर्य क्षेत्र में पुंभ्रूण/स्त्रीभ्रूण थे।

पृथ्वी से आकृति का प्रादुर्भाव होता है। पृथ्वी सूर्य का उपग्रह है। पृथ्वी को गायत्री अग्नि का क्षेत्र कहा है। सूर्य सावित्र अग्नि का क्षेत्र है। अत: दोनों अग्नि रूप होने से अग्नि की प्रधानता ही रहती है। अत: जो भूताग्नि-भूतसोम (पार्थिव) आकृति भाव से ही जुड़ा है, इसमें भूत-अग्नि तो शुक्र से युक्त होकर पुरुष का भौतिक स्वरूप बन जाता है।

भूत-सोम गौण भाव में शोणित से मिलकर स्त्री-शरीर का रूप ले लेता है। जो पुरुष सूक्ष्म भाव में स्त्री भाव में (शुक्र रूप) परिणत हुआ था, पुन: पुरुष शरीर बन जाता है। इसी प्रकार शोणित रूप में पुरुष भाव में परिणत स्त्री पुन: शरीर रूप स्त्री बन रही है। इस प्रकार सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी द्वारा उत्पन्न अहंकृति, प्रकृति और आकृति तीनों भाव, अग्नि-सोम के द्वारा, मानव युग्म के पुरुष-स्त्री, स्त्री-पुरुष, पुरुष-स्त्री रूप (सुसूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल) हो जाते हैं।

ये तो हुई रसायन-शास्त्र की बात। प्रकृति अति गूढ़ है। पुरुष रूप पुंभू्रण के गर्भ में सौम्य प्राण भी तो प्रतिष्ठित रहता है। सौम्य स्त्रीभ्रूण के गर्भ में भी अग्नि प्राण रहता है। किन्तु गर्भ में रहने वाला स्वयं सौम्य प्राण तो सौर मण्डल का स्त्रीभाव नहीं बन सकता। सौर अग्नि प्राण के गर्भ में तो सोम राजा है। सूर्य के आगे महद्लोक है।

यह भी पढ़ें

उठो! जागो!!

वही ब्रह्म की योनि रूप है, किन्तु सूर्य से अलग है। यही सौर मण्डल का मूलाधार है। स्वयंभू (अव्यक्त) के अग्नि प्राण (ऋषि) को गर्भ में लिए परमेष्ठी लोक का सोम ही दाम्पत्य भाव में महद्लोक में गर्भाधान करता हैं। सौर मण्डल अक्षर ब्रह्म है, प्रकृति है। इसे ही चेतना कहते हैं। यही जीव भाव को प्रवृत्त करती है। अत: आत्मा को चिदात्मा कहा जाता है।

वैसे यह अव्यय पुरुष है जो अक्षर का भी आलम्बन है। स्त्री-पुरुष के जिन भावों का ऊपर वर्णन किया है, उनका आत्मा से सम्बन्ध नहीं है। समस्त 84 लाख योनियां जीव भाव हैं, लेकिन उनमें से मात्र मानव में आत्मभाव विकसित है। आत्मा तथा जीव पर्याय नहीं हैं। आत्मा अव्ययात्मक है, जीव अक्षरात्मक है। अव्यय पुरुष है, अक्षर प्रकृति है। अत: स्त्री-पुरुष शरीर-मन-बुद्धि से तो प्राकृत (प्रकृति द्वारा) होते हुए भी तत्त्व रूप में अप्राकृत ही हैं। पुरुष आत्म-भाव रूप है।

सूर्य मण्डल की प्रतिष्ठा (भृगु-अंगिरामय) महद् ब्रह्म ही है। अव्यय ही गर्भ धारण करता है। वही अग्नि प्राण के गर्भ में रहता है। स्त्री-पुरुष रूप व्यक्ति भाव इसी से होता है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ‘संस्कृति और सभ्यता’ ग्रन्थ में इस बात की पुष्टि की है कि सौर अग्नि प्राणों का मूलाधार सौम्य महद् तत्त्व है।

यह भी पढ़ें

लोकतंत्र या ‘तंत्रलोक’

अत: पुरुष में स्त्रीभाव ही प्रमुख है। अग्नि सत्य है, आकृति है। सोम ऋत है, आकृति-विहीन (हवा-आकाश-अग्नि आदि) है। महद् रूप परमेष्ठी ऋत भाव है। गोपथ में इसी को ‘जाया’ कहा है। पुरुष भाव की प्रतिष्ठा होने से पुरुष स्त्री ही है। ऋत ही सत्य बनता है, स्त्री ही पुरुष बनती है।

पहले परमेष्ठी-शक्ति महद् रूप में, अहंकृति सूर्य शक्तिरूप में, प्रकृति रूप में चान्द्र शक्ति, पार्थिव शक्ति आकृति रूप में। शुरू से अन्त तक प्रकृति का ही विस्तार है। स्त्री से स्त्री तक। इसके घनभाव का नाम है-पुरुष। शक्ति ही ऋत भाव में शक्ति है, सत्यभाव में शिव है। फिर प्रकृति में पुरुष कहां है? जो पुरुष है वह भी मूल में स्त्रीभाव पर ही टिका है। लोक व्यवहार में उसे भले ही पुरुष कह देते हैं। तब क्या स्त्री-हर स्त्री-शक्ति रूपा नहीं है? [email protected]

newsletter

अगली खबर

right-arrow



राजस्थान की और समाचार देखने के लिए यहाँ क्लिक करे – Rajasthan News