सशस्त्र बल, सैलरी, 4,000 मुखबिरों का नेटवर्क… अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए मातृवेदी दल बनाने वाले शिक्षक गेंदालाल दीक्षित की कहानी

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सशस्त्र बल, सैलरी, 4,000 मुखबिरों का नेटवर्क… अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए मातृवेदी दल बनाने वाले शिक्षक गेंदालाल दीक्षित की कहानी

सशस्त्र बल, सैलरी, 4,000 मुखबिरों का नेटवर्क… अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए मातृवेदी दल बनाने वाले शिक्षक गेंदालाल दीक्षित की कहानी

ग्वालियर: डकैतों के लिए बदनाम चंबल के बीहड़ों ने कई स्वतंत्रता सेनानियों को भी पाला है, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के दांत खट्टे किए हैं। किताबों और पुराने अखबारों के पन्ने खंगालने पर पता चलता है कि चंबल कई क्रांतिकारी 1900 के बाद ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़े हुए थे। आजादी के बाद चंबल और इसके बीहड़ लंबे समय तक डकैत मान सिंह, पान सिंह तोमर, फूलन देवी और निर्भर गुर्जर के शिकार का मैदान में रहे हैं, जो खुद को बागी कहलाना पसंद करते थे। 1920 के दशक में प्रथम विश्व युद्ध के समय तक यूपी और एमपी की सीमावर्ती इलाके बागियों के लिए प्रजनन क्षेत्र था, जो वंदे मातरम का जाप करते हुए भारत माता के लिए खुद को बलिदान करने के लिए तैयार थे। साथ ही अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे भी सुनाई दे रहे थे।

पुरानी रिपोर्ट्स से यह पता चलता है कि 1912 और 1920 के बीच, आगरा की बाह तहसील के माई गांव के गेंदालाल दीक्षित ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशस्त्र समूह का गठन किया था। इस दौरान वह एक स्कूल में शिक्षक थे, दीक्षित ने मातृभूमि के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। उन्होंने देशभक्ति लेखन के साथ शुरुआत की लेकिन महसूस किया कि एक मजबूत संदेश की जरूरत है। इसलिए उन्होंने 1912 में 10 लोगों का एक समूह बनाया, जिसका नाम शिवाजी समिति था। जल्द ही इसकी ताकत बढ़ गई और समूह में सदस्यों की संख्या 30 लोगों तक पहुंच गई। इस समूह को भी डकैतों का तमगा दिया गया और पंचम सिंह इसका नेतृत्व कर रहे थे।

चंबल की गाथाओं से पता चलता है कि 1916 में शिवाजी समिति ने अपना आधार औरैया से इटावा तक बढ़ाया और इसका नाम बदलकर मातृवेदी दल कर दिया है। यह गेंद लाल दीक्षित की जीवनी लिखने वाले शाह आलम ने अपनी किताब में भी जिक्र किया है।

शाह आलम, जिन्होंने चंबल अभिलेखागार के रूप में इस क्षेत्र के बहादुरों पर एक गैलरी भी लगाई है। उनका दावा है कि दीक्षित स्वतंत्रता संग्राम के सभी प्रमुख क्रांतिकारियों के संपर्क में थे और उन्होंने धन और साधनों से उनका समर्थन किया। काकोरी ट्रेन डकैती के नायक राम प्रसाद बिस्मिल भी उनके मातृवेदी दल के सदस्य थे। इस समूह का उल्लेख बिस्मिल के लिखे विभिन्न खातों में मिलता है। प्रभा पत्रिका के सितंबर 1924 के संस्करण में प्रकाशित ऐसे ही एक लेख में रामप्रसाद बिस्मिल लिखते हैं कि ‘1917 तक, मातृवेदी 500 सशस्त्र घुड़सवारों, 2,000 पैदल सैनिकों की एक सेना तैयार हो गई थी। साथ ही उस समय इनके पास आठ लाख रुपये की संपत्ति थी।’

मातृवेदी दल की सेना
उन्होंने लेख में आगे लिखा है कि जालौन जिले का कोंच क्षेत्र उनका आधार था, जिसमें दीक्षित मुख्य रणनीतिकार, पंचम सिंह सारी चीजों को क्रियान्वित करते थे और लक्ष्मणानंद प्रबंधन करते थे। उन्होंने अपने ड्रेस कोड और अनुशासन को नेपोलियन बोनापार्ट के तरीकों से अनुकूलित किया था। वे अपने सदस्यों को मासिक वेतन देते थे और अच्छे कार्य के लिए उन्हें पुरस्कृत करने में विश्वास करते थे। मातृवेदी दल के पास सशस्त्र दल के अलावा 40 जिलों में 4,000 से अधिक मुखबिरों का एक नेटवर्क था, जिन्होंने पैम्फलेट के माध्यम से अपनी विचारधारा का प्रसार किया। ये लोग अक्सर अंग्रेजों के प्रति वफादार व्यापारियों और सामंतों को निशाना बनाते थे।

ऐसे हुआ इस समूह का पतन
1918 के अंत में मातृवेदी दल ने मैनपुरी में एक व्यवसायी को अपनी गतिविधियों के लिए लूटने की योजना बनाई लेकिन बोली विफल रही और समूह का विघटन हुआ। शाह आलम ने अपनी किताब में ‘क्रांति के मंदिर में (1929)’ और ‘मैनपुरी षड्यंत्र केस फाइल (1919)’ के संदर्भों का हवाले देते हुए मातृवेदी समूह के पतन की कहानी सुनाई है। उन्होंने कहा कि दिसंबर 1918 में इस दल से जुड़े एक सदस्य हिंदू सिंह ने पुरस्कार राशि के लिए अंग्रेजों को जानकारी लीक कर दी।

हिंदू सिंह ने दिया धोखा
इन संदर्भों के हवाले से लिखा गया है कि उस समय भिंड के मिहोना स्थित जंगल के खड्डों के किनारे समूह के 100 सदस्य छिपे हुए थे। उनमें से कई ठीक से सो नहीं पाए थे और दो दिनों से खाना तक नहीं खाया था। इसके बाद हिंदू सिंह ने इन लोगों को खाना दिया था। जब तक सदस्यों को पता चलता कि भोजन में कुछ नशीला पदार्थ मिला है, तब तक कुछ साथी होश खो चुके थे। इसके बाद भिंड की पुलिस ने इन पर हमला बोल दिया था। हालांकि अनजाने में पकड़े गए समूह के लोगों ने 50 अंग्रेजों पर हमला कर दिया था, जिसमें दोनों तरफ से 38 लोगों की मौत हुई थी।

इसके बाद दीक्षित सिंह शेष बचे लोगों को पकड़ा गया और उन्हें आगरा किले में रखा गया। मामले की कार्रवाई के दौरान दीक्षित ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और अपने समूह के कुछ सदस्यों के लिए बेगुनाही का अनुरोध किया, जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया। वहीं, केस के दौरान ही अंग्रेजों के चंगुल से गेंदालाल दीक्षित भागने में सफल रहे और एक नवंबर 1919 को उन्हें भगोड़ घोषित कर दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि वह दिल्ली में भूमिगत रहते थे और दिसंबर 1921 तक काम करते थे।

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