संडे जज्बात- मुगलों की बहू हूं, रहने को छत नहीं: पानी में ब्रेड डुबोकर बच्चे पाले; लालकिला भी टिकट लेकर जाती हूं h3>
मेरा नाम रजिया सुल्ताना बेगम है। मैं मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के पड़पोते मिर्जा बेदार बख्त की बीवी हूं। 15 अगस्त साल 1965 को हमारी शादी हुई, तब मैं 12 साल की थी। मूल रूप से लखनऊ की रहने वाली हूं, लेकिन परवरिश कोलकाता में नाना के यहां
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बहादुर शाह जफर की फोटो के साथ रजिया सुल्ताना बेगम।
आज जो माहौल चल रहा है दुख होता है उसे देखकर। कब्रें खोदी जा रही हैं। कब्र में न तो मुर्दे हैं न उनकी हड्डी है, तो फायदा क्या है। लोग कहते हैं कि मुगल लुटेरे थे। बाबर, तैमूर लंग से लेकर बहादुर शाह जफर तक सभी यहीं मरे, कौन था जो लूट कर ले गया और ले गया तो कहां ले गया। अरे उन लोगों ने फतेहपुर सीकरी बनाया, लाल किला बनाया, ताजमहल बनाया, हुमायूं का मकबरा बनाया। देश को सोने की चिड़िया बनाया।
ब्रिटिश कोहिनूर ले गए, लाल किले से सब हीरे ले गए। ब्रिटिश से सवाल करो, उन पर उंगली उठाओ। मैं तो कहती हूं कि सभी सड़कों के नाम हटा दो, शहरों के नाम बदल दो, लेकिन यह तो बताओ किसके नाम पर रखोगे। कोई इतिहासकार है क्या हिंदोस्तान को संवारने वाला।
मुगल आज भी देश को दे रहे हैं, मैं मुगल खानदान की बहू हूं, लेकिन लाल किले में 50 रुपए का टिकट लेकर जाती हूं। हुमायूं के मकबरे में 40 रुपए देकर जाती हूं। जबकि वो मेरे खानदान की रियासत है। मुगल कहां ले गए लूट कर, एक का नाम बता दो तो मैं सिर झुका लूंगी। कब्र खुदे या रहे, ये सरकार की जिम्मेदारी है।
अगर विदेश से उधम सिंह की राख वापस आ सकती है, तो रंगून से बहादुर शाह जफर की कब्र की मिट्टी क्यों नहीं आ सकती। क्या बहादुर शाह जफर वतन के गद्दार थे। उनकी हसरत थी कि उन्हें अपने वतन में दफन किया जाए। जब वो यहां से गए तो वतन की मिट्टी ले गए थे और कह गए थे कि अगर मैं मर जाऊं तो मेरे सीने पर वतन की मिट्टी रख देना।
बेदार साहब की कुछ बातें बहुत याद आती हैं। अक्सर कहते थे कि शाहजहां तो मोहब्बत में ताजमहल बना गए, लेकिन हम तेरी मोहब्बत में बांस का ताजमहल बनाएंगे। खुद ही बांस के ताजमहल में सो गए हमेशा के लिए। बात-बात पर कहते थे कि तुझे फख्र होना चाहिए कि तेरी शादी किस से हुई है। फिर कहते तौबा करो, ऐसा बोलना सही नहीं है।
मेरी खाला और बेदार साहब की खाला दोस्त थीं। खाला ने बाजी से कहा कि अकबर के खानदान का लड़का है, सुल्ताना की शादी कर दो। कुछ बोझ कम होगा। मेरी शादी एक मुगल शासक के खानदान में हुई है, यह बात बेदार साहब के साथ रहकर पता चली।
जब शादी हुई उस वक्त बेदार साहब कोई काम नहीं करते थे। उन्हें मुगल खानदान का होने के नाते 250 रुपया पेंशन मिलती थी। उसी से गुजारा होता था। वो कहते थे कि हमारे खानदान में कभी किसी ने काम नहीं किया है, इसलिए मैं भी काम नहीं करूंगा। काम करना मेरे बस का नहीं है।
रजिया सुल्ताना बेगम कहती हैं कि बेदार साहब खाने के शौकीन थे और आज हम खाने को तरसते हैं।
नवाब साहब नग भी बेचा करते थे। उनकी लिखी एक गजल मेरे पास है, अभी भी है कि – दुनिया का हर जर्रा हुआ है बेदार, हाए बेदार मुकद्दर मेरा बेदार….यह गजल नवाब साहब ने लिखी थी। यानी कि अल्लाह ने सभी कि किस्मत बदल दी, लेकिन हमारी नहीं बदली।
शादी के बाद दो बच्चे हुए। खर्च भी बढ़ गया। बेदार साहब को हर दिन गोश्त के साथ बढ़िया वाला चावल चाहिए था। गोश्त के बिना उनके गले से निवाला नहीं उतरता था। दिन में गोश्त और शाम को कलेजी पराठा। सिर्फ जुमे के दिन गोश्त नहीं बनता था। उनकी ये सब ख्वाहिशें पूरी करने के लिए मुझे फिर से काम करना पड़ा। शादी से पहले जिल्द बांधने, लाख की चूड़ी बनाने का काम सीखा था, वही सब फिर से शुरू किया।
निब वाले पेन का सॉकेट लगाना, किताबों की जिल्द बांधना जैसे काम करने पड़े। नवाब साहब का कहना था कि घर बैठे इज्जत का काम करो। बस किसी के यहां चूल्हा चौका करने नहीं जाना है। फिर उनकी मौत के बाद तो बहुत गुरबत के दिन आ गए। नवाब साहब ने मुझसे वादा लिया था कि अगर मैं मर गया तो बच्चों को पानी पिलाकर रखना, लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना। मैंने अपने बच्चों को पानी के साथ ब्रेड खिलाई है, लेकिन कभी किसी से मांगा नहीं।
मैं हमेशा ये सोचती थी मुगल सल्तनत की बहू हूं और क्या काम कर रही हूं। कैसी जिंदगी है। नवाब साहब को इससे फर्क नहीं पड़ता था। उनसे कई दफा कहती थी कि रस्सी जल गई, लेकिन ऐंठन नहीं गई। वो किसी की शादी में नहीं जाते थे। कहते थे कि मोहताजगी का खाना नहीं चाहिए।
आखिरी दिनों में उन्हें लकवा मार गया था। अस्पताल में भर्ती थे। एक दिन कहने लगे सुल्ताना हमें घर ले चलो, खैराती इलाज नहीं चाहिए। उन्हें समझाया कि इलाज के पैसे नहीं हैं, लेकिन वो नहीं माने। तब डॉक्टर से छुट्टी मांगी और उन्हें घर ले आई। आखिर वो नहीं बचे। उस वक्त मैं 27 साल की थी, वो 60 साल के थे। उनकी मौत पर उस वक्त पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने गार्ड ऑफ ऑनर दिया और तीन बंदूकों की सलामी दी थी।
रजिया सुल्ताना बेगम आज इसी घर में रहती हैं।
नवाब साहब की मौत के बाद बच्चों को लेकर मायके चली गई, क्योंकि खर्च नहीं चला पा रही थी। मायके जाकर भी काम करने लगी। कुछ दिन बाद नवाब साहब की 400 रुपए की पेंशन मेरे नाम हुई। यहां फिर से लाख की चूड़ी बनाने लगी। रोड पर चाय की दुकान लगाई। मोती पिरोए। फैक्ट्री से साड़ियों का गट्ठर लेकर आती, धागे तोड़ती फिर उन्हें लौटा देती। एक हजार साड़ी के 100 रुपए मिलते। बस यह है कि किसी से मांगा नहीं।
मेरे नाना अख्तर हुसैन के पास खूब पैसा हुआ करता था। वो नौकरी की तलाश में लखनऊ से कोलकाता आए थे। बाद में नानी और अम्मी भी यहां आ गईं। अम्मी की शादी लखनऊ में काकोरी के पास कसमंडी गांव में हुई थी।
निकाह के वक्त नाना ने वालिद के सामने शर्त रखी कि अगर बेटी इस गांव में खुश नहीं रहेगी तो अपने साथ कोलकाता ले जाएंगे। जिंदगी भर बेटी और उसके बच्चों का खर्च उठाएंगे। शादी के दो साल बाद ही नाना, अम्मी को कोलकाता ले आए। उस वक्त उनका कारोबार बहुत अच्छा था। अम्मी के बाद मेरे वालिद भी कोलकाता आ गए।
नाना ने वालिद से कहा कि कुछ काम करो, वरना लोग कहेंगे ससुराल की रोटी तोड़ रहे हो। उस वक्त हम कोलकाता के तलतला स्ट्रीट में रहा करते थे। वक्त अच्छा कट रहा था। हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं थी। पास में एक दादी के यहां अरबी पढ़ने जाते थे। मैं हमेशा पैंट-बुशर्ट पहनती थी। गिल्ली-डंडा और कंचे खेलती, पतंग उड़ाती। खुशनुमा अल्हड़ बचपन था।
रजिया सुल्ताना कहती हैं कि जब नाना के घर में रहते वो जिंदगी बेहद खूबसूरत थी।
नाना की मौत के बाद हमारे दिन ही पलट गए। ऐसी गरीबी आई कि एक वक्त की रोटी तक नहीं मिलती थी। वालिद की तो बहुत कमाई थी नहीं। जब मामी कहती थीं कि आओ खाना खा लो, तो हम कह देते कि भूख नहीं है। हमें पता था कि खाना तो है नहीं, इसलिए झूठ बोल देते थे कि पेट एकदम भरा हुआ है। जबकि इतनी तेज भूख लगी होती थी कि खाना दिख जाए तो छीन कर खा लें।
मामा उस वक्त सात आने का आटा, चार आने का गोश्त और एक आने की दाल लाते थे। मुश्किल से एक-एक रोटी ही सबके हिस्से आती थी। एक रोटी अगली सुबह के लिए रख देते थे। जब तेज भूख लगती तो कई बार अम्मी से कहते वो चूल्हे में कागज जलाकर ऊपर खाली पतीली चढ़ा देती थी। कहती थी कि सो जाओ, खाना पक जाएगा तो जगा दूंगी। हम खाने के इंतजार में सो जाते थे।
कुछ दिन बाद हम लोग काम करने लगे। मामू के घर में हमने बुक बाइंडिंग का काम किया, लिफाफे बनाए, लाख की चूड़ी बनाई। एक कुरान शरीफ की जिल्द बांधने के काम का दो रुपया मिल जाता था। एक हजार लिफाफे बनाने का चार आना मिलता था। रूमाल पर माड़ लगते थे। एक हजार रूमाल पर माड़ लगाने के चार आने मिलते थे। फिर शादी हो गई तो यही सब काम दोबारा शुरू किया।
कुछ साल पहले किसी ने प्रतिभा पाटिल जी से मिलवाया था। उन्होंने अपनी मर्जी से पेंशन छह हजार रुपए कर दी। उसमें से 2500 रुपए घर का किराया है। 3500 में घर का सामान और मेरा इलाज। जब सभी राजा-महाराजा को उनके घर वापस मिले हैं, तो बहादुर शाह जफर को क्यों नहीं। वो भी तो बादशाह थे, कोई भिखारी तो थे नहीं। मुझे भी मेरा घर चाहिए। मैं उनके पड़पोते की बीवी हूं। हमें हमारा महल वापस मिले। न हमारे पास जायदाद, न शहंशाही पेंशन, न रहने को छत। मैं कितने साल से कह रही हूं, कोई सुनवाई नहीं। सरकार ने टीपू सुल्तान, हैदराबाद, मीर जाफर, वालिद शाह को खूब दिया, लेकिन हमें नहीं।
हावड़ा के शिवपुरी इलाके की इसी गली में रजिया सुल्ताना बेगम रहती हैं।
नवाब साहब कहते थे कि काश बहादुर शाह ने भी घुटने टेक दिए होते, लेकिन फिर कहते कि आज दुनिया में जो हमारा नाम है, उनकी वफादारी की ही वजह से है। बहादुर शाह जफर ने वतन से गद्दारी नहीं की तो हमारी आने वाली नस्लें भी सिर उठा कर जी पाएंगी।
ये जज्बात रजिया सुल्ताना बेगम ने NEWS4SOCIALरिपोर्टर मनीषा भल्ला से साझा किए।
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