शशि थरूर का कॉलम: क्या उत्तर-दक्षिण के बीच भेद बढ़ रहा है? h3>
12 घंटे पहले
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शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद
सरकार संसदीय सीटों का परिसीमन करने जा रही है। ऐसा अगले कुछ सालों में नई जनगणना के बाद किया जा सकता है। दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि इससे राजनीतिक शक्ति का संतुलन अनुचित रूप से उत्तरी राज्यों की ओर चला जाएगा। लोकसभा में सीटें आम तौर पर जनसंख्या के हिसाब से बांटी जाती हैं। ऐसे में ज्यादा लोगों का मतलब होता है ज्यादा सीटें।
चूंकि लोकसभा में ज्यादा सीटें जीतने वाला ही सरकार बनाता है, इसलिए ज्यादा जनसंख्या का मतलब बड़ा फायदा होता है। लेकिन बेलगाम जनसंख्या वृद्धि की कीमत समृद्धि और सामाजिक प्रगति को चुकानी पड़ सकती है। इसलिए 1976 में भारत ने परिसीमन को रोक दिया, जिससे राज्यों को यह दिलासा मिला कि वे राजनीतिक असर की चिंता किए बिना जनसंख्या वृद्धि को धीमा करने की कोशिश कर सकते हैं। यह रोक शुरू में 2001 तक के लिए तय की गई थी, लेकिन संवैधानिक संशोधन के जरिए इसे बढ़ा दिया गया।
इसका मतलब है कि आज की सीमाएं 1971 की जनगणना पर आधारित हैं। इस रोक के बाद से भारत के दक्षिणी राज्य प्रजनन दर काफी नीचे ला चुके हैं। साथ ही, उन्होंने साक्षरता दर, स्वास्थ्य सेवा, मातृ एवं शिशु मृत्यु दर और लैंगिक समानता सहित कई मानव-विकास संकेतकों पर काफी प्रगति की है। उत्तर भारत ने इन श्रेणियों में तो खराब प्रदर्शन किया ही है, जातिगत भेदभाव, बेरोजगारी और आर्थिक विकास के मामले में भी स्थिति खराब है। लेकिन यहां आबादी लगातार बढ़ रही है। परिसीमन पर रोक की हमेशा एक समयसीमा रही है।
अब सत्तारूढ़ भाजपा ने संकेत दिया है कि रोक को फिर से बढ़ाने के बजाय वह जनगणना कराने का इरादा रखती है और उसी के अनुसार भारत के चुनावी मानचित्र को फिर से तैयार करना है। यह जनगणना 2021 में होनी थी और उसे बार-बार स्थगित किया जाता रहा। भाजपा का कहना है कि यह निष्पक्षता का मामला है।
‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सुस्थापित सिद्धांत का मतलब है कि संसद का हर सदस्य लगभग समान संख्या में लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। उसका तर्क है कि यह अलोकतांत्रिक है कि एक सांसद केवल 18 लाख केरलवासियों का प्रतिनिधित्व करे, जबकि दूसरा उत्तर प्रदेश के 27 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करे।
दक्षिणी राज्यों के नेताओं का कहना है कि प्रतिनिधित्व को सिर्फ जनसंख्या के आधार पर तय करने से उत्तरी राज्यों को ज्यादा आबादी होने का फायदा मिलता है, जबकि दक्षिणी राज्यों को उनकी जनसंख्या स्थिर करने और मानव विकास को आगे बढ़ाने के लिए सजा मिलती है। यही वजह है कि केंद्रीय कर राजस्व में दक्षिणी राज्यों की हिस्सेदारी में पहले से ही गिरावट दिख रही है।
अगर समाज एक जैसा हो तो उसमें जनप्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए जनसंख्या एक फैक्टर हो सकती है, लेकिन बहुत विविधता वाले समाज के लिए यह नाकाफी है। उदाहरण के लिए, इसी वजह से अमेरिका जनसंख्या की परवाह किए बिना प्रत्येक राज्य को दो सीनेट सीटें आवंटित करता है। वहीं ईयू छोटे देशों को यूरोपीय संसद में उनकी जनसंख्या हिस्सेदारी की तुलना में ज्यादा सीटें देता है।
भारत में भी, गोवा, पूर्वोत्तर के राज्य और अंदमान, दीव, लक्षद्वीप में प्रति व्यक्ति सांसदों की संख्या बड़े राज्यों की तुलना में ज्यादा है। भारत में भाषाओं, धर्मों, जनसांख्यिकीय प्रोफाइल और विकास के स्तरों में बहुत ज्यादा विविधता है। इसके अलावा भारत की ‘अर्ध-संघीय’ प्रणाली के तहत राज्य भी एक तय मात्रा में शक्ति रखते हैं। इसलिए जहां समान प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है, वहीं राज्य की स्वायत्तता और सांस्कृतिक विविधता का भी सम्मान किया जाना चाहिए।
इसका मतलब यह सुनिश्चित करना है कि एक समूह (उत्तर के हिंदी-भाषी) दूसरों की जरूरतों, प्राथमिकताओं, अनुभवों और आकांक्षाओं की परवाह किए बिना निर्णय लेने की प्रक्रिया पर हावी न हो सके। गृह मंत्री अमित शाह ने दक्षिण भारतीयों को भरोसा दिलाया है कि नए परिसीमन में उनकी एक भी सीट कम नहीं होगी।
लेकिन इसका मतलब यह है कि सरकार ज्यादा आबादी वाले उत्तरी राज्यों को ज्यादा सीटें देगी, जहां भाजपा को ज्यादा समर्थन प्राप्त है। कुछ लोगों का अनुमान है कि सांसदों की संख्या 543 से बढ़ाकर 753 की जा सकती है, जबकि कुछ लोग नए संसद भवन में 888 सांसदों के लिए जगह होने पर भी गौर कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है, तो दक्षिणी राज्यों का सापेक्ष राजनीतिक प्रभाव कम हो जाएगा और देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए एक महत्वपूर्ण मंच कमजोर हो जाएगा।
पहले से ही, कुछ लोग संसदीय बहस के गिरते मानकों से निराश हैं। ज्यादा विस्तार के बाद लोकसभा काफी हद तक चीनी पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस जैसी बन सकती है, जो इतनी बड़ी संस्था है कि वहां कोई सार्थक चर्चा नहीं हो पाती और वह बस सरकार के निर्णयों की पुष्टि ही कर पाती है। तमिलनाडु सीएम स्टालिन के नेतृत्व में दक्षिण भारतीय राज्यों ने एक संयुक्त कार्यसमिति का गठन किया है, जिसमें मांग की गई है कि मौजूदा व्यवस्था को 25 वर्षों के लिए बढ़ाया जाए।
लेकिन यह व्यवस्था भारत को कम लोकतांत्रिक बनाती है, क्योंकि प्रति नागरिक प्रतिनिधित्व समान नहीं होगा। समस्या यह है कि केवल जनगणना के आधार पर फॉर्मूला बदलना भी लोकतंत्र के लिए इतना ही बुरा होगा। इससे राष्ट्रीय सद्भाव और सामंजस्य के कमजोर होने की आशंका है।
अगर दक्षिण के लोग राजनीतिक रूप से वंचित महसूस करेंगे, तो वे सत्ता के विकेंद्रीकरण और राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने के लिए संवैधानिक व्यवस्था की मांग कर सकते हैं। अगर इन मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो दक्षिण में कुछ नाराज लोग अलगाव के लिए भी दबाव बना सकते हैं। जबकि मौजूदा विवाद भारतीय एकता को मजबूत करने का मौका होना चाहिए।
उत्तर और दक्षिण को एक-दूसरे की जरूरत है भारत संयुक्त इकाई के रूप में बेहतर काम करता है। उत्तर और दक्षिण को एक-दूसरे की जरूरत है। युवा आबादी वाले उत्तरी राज्य, औद्योगिक और सामाजिक रूप से विकसित दक्षिणी राज्यों को कामगार दे सकते हैं, जिससे सभी को फायदा होगा।
(प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद
सरकार संसदीय सीटों का परिसीमन करने जा रही है। ऐसा अगले कुछ सालों में नई जनगणना के बाद किया जा सकता है। दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि इससे राजनीतिक शक्ति का संतुलन अनुचित रूप से उत्तरी राज्यों की ओर चला जाएगा। लोकसभा में सीटें आम तौर पर जनसंख्या के हिसाब से बांटी जाती हैं। ऐसे में ज्यादा लोगों का मतलब होता है ज्यादा सीटें।
चूंकि लोकसभा में ज्यादा सीटें जीतने वाला ही सरकार बनाता है, इसलिए ज्यादा जनसंख्या का मतलब बड़ा फायदा होता है। लेकिन बेलगाम जनसंख्या वृद्धि की कीमत समृद्धि और सामाजिक प्रगति को चुकानी पड़ सकती है। इसलिए 1976 में भारत ने परिसीमन को रोक दिया, जिससे राज्यों को यह दिलासा मिला कि वे राजनीतिक असर की चिंता किए बिना जनसंख्या वृद्धि को धीमा करने की कोशिश कर सकते हैं। यह रोक शुरू में 2001 तक के लिए तय की गई थी, लेकिन संवैधानिक संशोधन के जरिए इसे बढ़ा दिया गया।
इसका मतलब है कि आज की सीमाएं 1971 की जनगणना पर आधारित हैं। इस रोक के बाद से भारत के दक्षिणी राज्य प्रजनन दर काफी नीचे ला चुके हैं। साथ ही, उन्होंने साक्षरता दर, स्वास्थ्य सेवा, मातृ एवं शिशु मृत्यु दर और लैंगिक समानता सहित कई मानव-विकास संकेतकों पर काफी प्रगति की है। उत्तर भारत ने इन श्रेणियों में तो खराब प्रदर्शन किया ही है, जातिगत भेदभाव, बेरोजगारी और आर्थिक विकास के मामले में भी स्थिति खराब है। लेकिन यहां आबादी लगातार बढ़ रही है। परिसीमन पर रोक की हमेशा एक समयसीमा रही है।
अब सत्तारूढ़ भाजपा ने संकेत दिया है कि रोक को फिर से बढ़ाने के बजाय वह जनगणना कराने का इरादा रखती है और उसी के अनुसार भारत के चुनावी मानचित्र को फिर से तैयार करना है। यह जनगणना 2021 में होनी थी और उसे बार-बार स्थगित किया जाता रहा। भाजपा का कहना है कि यह निष्पक्षता का मामला है।
‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सुस्थापित सिद्धांत का मतलब है कि संसद का हर सदस्य लगभग समान संख्या में लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। उसका तर्क है कि यह अलोकतांत्रिक है कि एक सांसद केवल 18 लाख केरलवासियों का प्रतिनिधित्व करे, जबकि दूसरा उत्तर प्रदेश के 27 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करे।
दक्षिणी राज्यों के नेताओं का कहना है कि प्रतिनिधित्व को सिर्फ जनसंख्या के आधार पर तय करने से उत्तरी राज्यों को ज्यादा आबादी होने का फायदा मिलता है, जबकि दक्षिणी राज्यों को उनकी जनसंख्या स्थिर करने और मानव विकास को आगे बढ़ाने के लिए सजा मिलती है। यही वजह है कि केंद्रीय कर राजस्व में दक्षिणी राज्यों की हिस्सेदारी में पहले से ही गिरावट दिख रही है।
अगर समाज एक जैसा हो तो उसमें जनप्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए जनसंख्या एक फैक्टर हो सकती है, लेकिन बहुत विविधता वाले समाज के लिए यह नाकाफी है। उदाहरण के लिए, इसी वजह से अमेरिका जनसंख्या की परवाह किए बिना प्रत्येक राज्य को दो सीनेट सीटें आवंटित करता है। वहीं ईयू छोटे देशों को यूरोपीय संसद में उनकी जनसंख्या हिस्सेदारी की तुलना में ज्यादा सीटें देता है।
भारत में भी, गोवा, पूर्वोत्तर के राज्य और अंदमान, दीव, लक्षद्वीप में प्रति व्यक्ति सांसदों की संख्या बड़े राज्यों की तुलना में ज्यादा है। भारत में भाषाओं, धर्मों, जनसांख्यिकीय प्रोफाइल और विकास के स्तरों में बहुत ज्यादा विविधता है। इसके अलावा भारत की ‘अर्ध-संघीय’ प्रणाली के तहत राज्य भी एक तय मात्रा में शक्ति रखते हैं। इसलिए जहां समान प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है, वहीं राज्य की स्वायत्तता और सांस्कृतिक विविधता का भी सम्मान किया जाना चाहिए।
इसका मतलब यह सुनिश्चित करना है कि एक समूह (उत्तर के हिंदी-भाषी) दूसरों की जरूरतों, प्राथमिकताओं, अनुभवों और आकांक्षाओं की परवाह किए बिना निर्णय लेने की प्रक्रिया पर हावी न हो सके। गृह मंत्री अमित शाह ने दक्षिण भारतीयों को भरोसा दिलाया है कि नए परिसीमन में उनकी एक भी सीट कम नहीं होगी।
लेकिन इसका मतलब यह है कि सरकार ज्यादा आबादी वाले उत्तरी राज्यों को ज्यादा सीटें देगी, जहां भाजपा को ज्यादा समर्थन प्राप्त है। कुछ लोगों का अनुमान है कि सांसदों की संख्या 543 से बढ़ाकर 753 की जा सकती है, जबकि कुछ लोग नए संसद भवन में 888 सांसदों के लिए जगह होने पर भी गौर कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है, तो दक्षिणी राज्यों का सापेक्ष राजनीतिक प्रभाव कम हो जाएगा और देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए एक महत्वपूर्ण मंच कमजोर हो जाएगा।
पहले से ही, कुछ लोग संसदीय बहस के गिरते मानकों से निराश हैं। ज्यादा विस्तार के बाद लोकसभा काफी हद तक चीनी पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस जैसी बन सकती है, जो इतनी बड़ी संस्था है कि वहां कोई सार्थक चर्चा नहीं हो पाती और वह बस सरकार के निर्णयों की पुष्टि ही कर पाती है। तमिलनाडु सीएम स्टालिन के नेतृत्व में दक्षिण भारतीय राज्यों ने एक संयुक्त कार्यसमिति का गठन किया है, जिसमें मांग की गई है कि मौजूदा व्यवस्था को 25 वर्षों के लिए बढ़ाया जाए।
लेकिन यह व्यवस्था भारत को कम लोकतांत्रिक बनाती है, क्योंकि प्रति नागरिक प्रतिनिधित्व समान नहीं होगा। समस्या यह है कि केवल जनगणना के आधार पर फॉर्मूला बदलना भी लोकतंत्र के लिए इतना ही बुरा होगा। इससे राष्ट्रीय सद्भाव और सामंजस्य के कमजोर होने की आशंका है।
अगर दक्षिण के लोग राजनीतिक रूप से वंचित महसूस करेंगे, तो वे सत्ता के विकेंद्रीकरण और राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने के लिए संवैधानिक व्यवस्था की मांग कर सकते हैं। अगर इन मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो दक्षिण में कुछ नाराज लोग अलगाव के लिए भी दबाव बना सकते हैं। जबकि मौजूदा विवाद भारतीय एकता को मजबूत करने का मौका होना चाहिए।
उत्तर और दक्षिण को एक-दूसरे की जरूरत है भारत संयुक्त इकाई के रूप में बेहतर काम करता है। उत्तर और दक्षिण को एक-दूसरे की जरूरत है। युवा आबादी वाले उत्तरी राज्य, औद्योगिक और सामाजिक रूप से विकसित दक्षिणी राज्यों को कामगार दे सकते हैं, जिससे सभी को फायदा होगा।
(प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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