वीर कुंवर सिंह जयंती: अंग्रेजों के झंडे को हटाकर जगदीशपुर किले पर फहराया था अपना झंडा, गोली लगने पर तलवार से काट दी थी बांह h3>
वीर कुंवर सिंह 1857 की क्रांति के महानायक हैं। बिहार में इन दिनों उनकी काफी चर्चा हो रही है। आज उनकी जयंती के मौके पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह आरा के भोजपुर में 75 हजार से ज्यादा राष्ट्रीय ध्वज फहराने का विश्व रिकॉर्ड बनाएंगे। ऐसे में हम आपको इस महानायक के बारे में बताते हैं जिन्होंने 80 साल क उम्र में भी एक युवा की तरह अंग्रेजी हुकूमत से लड़ाई की और अपने राज को उनसे वापस हासिल किया था।
वीर कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार के आरा के भोजपुर के जगदीशपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबजादा सिंह था जो राजा भोज के वंशज के थे। उनके दो भाई थे हरे कृष्णा और अमर सिंह। ये दोनों उनके सेनापति भी थे। 1826 में पिता की मौत के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने। वे बचपन से ही वीर योद्धा थे और गुरिल्ला युद्ध शैली में कुशल थे। इसी वजह से उन्होंने 1857 के युद्ध में अग्रेंजो को नाको चने चबवा दिए थे।
बिहार में क्रांतिकारियों का किया नेतृत्व
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वीर कुंवर सिंह की खासियत यह थी कि उन्होंने 80 साल की उम्र में भी अपनी वीरता को बरकरार रखा और युवा की तरह अंग्रेजों से लड़े। उन्होंने कभी अपने ऊपर उम्र को हावी नहीं होने दिया। 1857 में जब आजादी की पहली लड़ाई लड़ी जा रही थी तब उन्होंने बिहार में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने का काम किया। कुंवर सिंह ने दानापुर में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया।
ब्रिटिश सरकार को घुटने पर ले आए थे
1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने विलय नीति अपनाई तो इससे भारत के बड़े-बड़े राजाओं के अंदर डर जाग गया। वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की यह बात रास नहीं आई और वे उनके खिलाफ खड़े हो गए। उन्होंने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर के साथ मिलकर अंग्रेजों पर हमला कर दिया। इस दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के स्वर मुखर हो रहे थे। ऐसे में अपने साहस, कुशल सैन्य नेतृत्व और अदम्य साहस की बदौलत वीर कुंवर सिंह अंग्रेजों को घुटनों पर ले आए थे। अपने पराक्रम के दम पर उन्होंने आरा, जगदीशपुर और आजमगढ़ को आजाद कराया था।
खुद ही काट ली थी अपनी बांह
वीर कुंवर सिंह ने 1985 में जगदीशपुर के किले से अंग्रेजों के झंडे को हटाकर अपना झंडा फहराया था। जब वे अपनी सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी में गंगा नदी पार कर रहे थे तो इसकी भनक अंग्रेजों को लग गई। उन्होंने मौका देखते हुए बिना किसी सूचना के उन्हें घेर लिया और गोलीबारी कर दी। इस गोलीबारी में उनके बाएं हाथ पर गोली लग गई। गोली का जहर उनके पूरे शरीर में फैलता जा रहा था। वे नहीं चाहते थे जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ उनका शरीर लगे। इसलिए उन्होंने तलवार से अपनी गोली लगी बांह को काटकर गंगा में समर्पित कर दिया। इसके बाद एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे।
‘1857 में अंग्रेजों को छोड़ना पड़ता भारत’
वीर कुंवर सिंह की वीरता के बारे में अंग्रेज इतिहासकार होम्स ने लिखा है कि ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय वीर कुंवर सिंह की उम्र 80 थी। यदि वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।’ 23 अप्रैल 1858 को वीर कुंवर सिंह अंग्रेजों को धूल चटाकर अफने महल में वापस लौटे। मगर उनका घाव इतना गहरा हो गया था कि उनकी जान नहीं बच सकी। 26 अप्रैल 1858 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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वीर कुंवर सिंह 1857 की क्रांति के महानायक हैं। बिहार में इन दिनों उनकी काफी चर्चा हो रही है। आज उनकी जयंती के मौके पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह आरा के भोजपुर में 75 हजार से ज्यादा राष्ट्रीय ध्वज फहराने का विश्व रिकॉर्ड बनाएंगे। ऐसे में हम आपको इस महानायक के बारे में बताते हैं जिन्होंने 80 साल क उम्र में भी एक युवा की तरह अंग्रेजी हुकूमत से लड़ाई की और अपने राज को उनसे वापस हासिल किया था।
वीर कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार के आरा के भोजपुर के जगदीशपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबजादा सिंह था जो राजा भोज के वंशज के थे। उनके दो भाई थे हरे कृष्णा और अमर सिंह। ये दोनों उनके सेनापति भी थे। 1826 में पिता की मौत के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने। वे बचपन से ही वीर योद्धा थे और गुरिल्ला युद्ध शैली में कुशल थे। इसी वजह से उन्होंने 1857 के युद्ध में अग्रेंजो को नाको चने चबवा दिए थे।
बिहार में क्रांतिकारियों का किया नेतृत्व
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वीर कुंवर सिंह की खासियत यह थी कि उन्होंने 80 साल की उम्र में भी अपनी वीरता को बरकरार रखा और युवा की तरह अंग्रेजों से लड़े। उन्होंने कभी अपने ऊपर उम्र को हावी नहीं होने दिया। 1857 में जब आजादी की पहली लड़ाई लड़ी जा रही थी तब उन्होंने बिहार में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने का काम किया। कुंवर सिंह ने दानापुर में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया।
ब्रिटिश सरकार को घुटने पर ले आए थे
1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने विलय नीति अपनाई तो इससे भारत के बड़े-बड़े राजाओं के अंदर डर जाग गया। वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की यह बात रास नहीं आई और वे उनके खिलाफ खड़े हो गए। उन्होंने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर के साथ मिलकर अंग्रेजों पर हमला कर दिया। इस दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के स्वर मुखर हो रहे थे। ऐसे में अपने साहस, कुशल सैन्य नेतृत्व और अदम्य साहस की बदौलत वीर कुंवर सिंह अंग्रेजों को घुटनों पर ले आए थे। अपने पराक्रम के दम पर उन्होंने आरा, जगदीशपुर और आजमगढ़ को आजाद कराया था।
खुद ही काट ली थी अपनी बांह
वीर कुंवर सिंह ने 1985 में जगदीशपुर के किले से अंग्रेजों के झंडे को हटाकर अपना झंडा फहराया था। जब वे अपनी सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी में गंगा नदी पार कर रहे थे तो इसकी भनक अंग्रेजों को लग गई। उन्होंने मौका देखते हुए बिना किसी सूचना के उन्हें घेर लिया और गोलीबारी कर दी। इस गोलीबारी में उनके बाएं हाथ पर गोली लग गई। गोली का जहर उनके पूरे शरीर में फैलता जा रहा था। वे नहीं चाहते थे जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ उनका शरीर लगे। इसलिए उन्होंने तलवार से अपनी गोली लगी बांह को काटकर गंगा में समर्पित कर दिया। इसके बाद एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे।
‘1857 में अंग्रेजों को छोड़ना पड़ता भारत’
वीर कुंवर सिंह की वीरता के बारे में अंग्रेज इतिहासकार होम्स ने लिखा है कि ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय वीर कुंवर सिंह की उम्र 80 थी। यदि वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।’ 23 अप्रैल 1858 को वीर कुंवर सिंह अंग्रेजों को धूल चटाकर अफने महल में वापस लौटे। मगर उनका घाव इतना गहरा हो गया था कि उनकी जान नहीं बच सकी। 26 अप्रैल 1858 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।