लाइलाज बीमारी वाले रोगी की सम्मान के साथ मौत! जानिए क्या है एंड ऑफ लाइफ केयर
नई दिल्ली : बीमारी जब लाइलाज हो जाए और यह तय हो कि अब जिंदगी का अंत करीब है। ऐसे समय में आदमी क्या सोचता है? आदमी भले ही जो कुछ सोचे लेकिन एम्स दिल्ली ने एक ऐसी पॉलिसी तैयार की है जो इस तरह के रोगियों को मौत होने से पहले बेहतरीन देखभाल की बात करती है। इस पॉलिसी को एम्स दिल्ली के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया की अध्यक्षता में एक्सपर्ट की एक टीम ने तैयार किया है। एंड ऑफ लाइफ केयर (EOLC) नाम की यह पॉलिसी एम्स में सितंबर 2019 के बाद लागू की गई थी। इससे पहले एम्स के पैलिटिव केयर डिविजन में अलग-अलग विभागों से हर महीने करीब 6 रेफरल आते थे।
परिवार से ली जाती है एंड ऑफ लाइफ केयर के लिए सहमति
डेटा पर नजर डालें तो एम्स में यह पॉलिसी लागू होने के बाद सितंबर 2019 से फरवरी 2020 के बीच रेफर होने वाले मरीजों की संख्या बढ़कर प्रतिमाह 13 हो गई। इन मरीजों में कुछ लोग चंद दिनों या हफ्तों तक जीवित रहने की उम्मीद वाले होते हैं। इनमें हार्ट अटैक के बाद की स्थिति वाले, न्यूरोलॉजिकल स्थिति ठीक नहीं होने वाले रोगी शामिल होते हैं। ऐसे में डॉक्टर्स रोगियों की जांच-पड़ताल के बाद उनके परिवार से एंड ऑफ लाइफ केयर के लिए सहमति ली जाती है। इसके बाद रोगी को इमोशनल, सोशल और स्प्रिचुअल सपोर्ट के साथ सम्मानजन मृत्यु प्रक्रिया की दिशा में कदम उठाया जाता है।
कुछ दिन या कुछ सप्ताह तक जीने वाले रोगी
इनमें कुछ दिनों या हफ्तों तक जीवित रहने की उम्मीद वाले रोगी शामिल हो सकते हैं, जिनके लिए चिकित्सक रोगी के मूल्यों के संदर्भ में जीवन की स्वीकार्य गुणवत्ता प्राप्त करने की कम संभावना की भविष्यवाणी करते हैं और खराब न्यूरोलॉजिकल परिणामों वाले पोस्ट-कार्डियक अरेस्ट स्थिति वाले रोगी। डॉक्टरों का मूल्यांकन रोगियों को सूचित किया जाता है, और उनके परिवार ईओएलसी के लिए सहमति देते हैं, ऐसे रोगियों को उचित पारिवारिक शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक समर्थन के साथ एक सम्मानजनक मृत्यु प्रक्रिया के लिए सक्षम बनाने के लिए कदम उठाए जाते हैं।
भारत में सबसे अधिक लाइलाज बीमार के रोगी
लाइलाज बीमारियों के रोगियों की संख्या दुनिया के मुकाबले भारत में अधिक है। इसके बावजूद लाइलाज बीमारियों के रोगियों के लिए बेहतर एंड-ऑफ-लाइफ देखभाल प्रदान करने में एक समान प्रणाली का अभाव है। एम्स की ईओएलसी पॉलिसी कहती है कि इस संबंध में एक संस्थागत नीति एक अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि ईओएलसी के लिए नेशनल लेवल पर कोई पॉलिसी नहीं है। एम्स की पॉलिसी के निर्माण में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी भी शामिल थी। इस पॉलिसी को इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित किया गया। एक्सपर्ट कमेटी की मेंबर डॉ. सुषमा भटनागर ने टीओआई को बताया कि एम्स नीति को सार्वजनिक डोमेन में डाल दिया गया था। इसलिए यह अन्य संस्थानों के लिए अपनी नीतियों के लिए ढांचागत जरूरतों और संसाधनों की पहचान करने का खाका बन सकता है।
एम्स में ईओएलसी के लिए अलग से डिपार्टमेंट
एम्स वर्तमान में आईसीयू और वार्डों में ईओएलसी मामलों का इलाज करता है, लेकिन भविष्य में, संस्थान ने पैलेटिव केयर डिपार्टमेंट के तहत एक अलग से ईओएलसी वार्ड बनाने का प्लान है। इसकी वजह है कि जब सामान्य वार्ड और आईसीयू में एक गंभीर रूप से बीमार रोगी को भर्ती कराया जाता है तो उसकी प्रिवेसी की कमी होती है। होली फैमिली हॉस्पिटल में क्रिटिकल केयर डिपार्टमेंट के चीफ डॉ सुमित रे के अनुसार, EOLC उनके समेत कई अस्पतालों में किया जाता है, लेकिन जितना जरूरी है उस स्तर पर यह नहीं होता है। डॉ. रे ने कहा कि यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि ईओएलसी एक्टिव या पैसिव इच्छामृत्यु से अलग है। यह रोगियों को आराम से रखने पर जोर देता है जब उपचार व्यर्थ होता है और उन्हें सम्मान के साथ मरने देता है।
इच्छामृत्यु से कितनी अलग है EOLC
एक्टिव यूथेनेसिया से आशय है किसी रोगी को एक्टिव तरीके से रोगी की जान लेना। उदाहरण के लिए, रोगी को किसी दवा की घातक खुराक का इंजेक्शन लगाना। पैसिव यूथेनेशिया का अर्थ है जानबूझकर किसी मरीज को वेंटिलेटर या फीडिंग ट्यूब जैसे कृत्रिम लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाकर मरने देना। भारत में एक्टिव यूथेनेशिया यानी सक्रिय इच्छामृत्यु गैरकानूनी है। वहीं, पैसिव यूथेनेशिया सख्त दिशानिर्देशों के साथ कानूनी है। साल 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया को वैध कर दिया था। गंभीर रूप से बीमार रोगियों या लगातार और लाइलाज स्थिति में मेडिकल ट्रीटमेंट या लाइफ सपोर्ट से इनकार कर एक सम्मानजनक मृत्यु के लिए एक ‘लिविंग विल’ को मंजूरी दी।
80 देशों के लिस्ट में 67वें स्थान पर
2015 में इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की रिपोर्ट के अनुसार, मृत्यु की गुणवत्ता के लिए की गई स्टडी में 80 देशों में भारत 67वें स्थान पर है। भटनागर ने कहा, जो एम्स में डॉ भीम राव अंबेडकर इंस्टीट्यूट रोटरी कैंसर अस्पताल के चीफ डॉ. भटनागर का कहना है कि ईओएलसी को सभी अस्पतालों में अपनाया जाना चाहिए। यह न केवल मृत्यु में गरिमा प्रदान करेगा, बल्कि आईसीयू में भर्ती कई गंभीर रूप से बीमार रोगियों के प्रबंधन में होने वाली स्वास्थ्य देखभाल की लागत को भी बचाएगा।
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परिवार से ली जाती है एंड ऑफ लाइफ केयर के लिए सहमति
डेटा पर नजर डालें तो एम्स में यह पॉलिसी लागू होने के बाद सितंबर 2019 से फरवरी 2020 के बीच रेफर होने वाले मरीजों की संख्या बढ़कर प्रतिमाह 13 हो गई। इन मरीजों में कुछ लोग चंद दिनों या हफ्तों तक जीवित रहने की उम्मीद वाले होते हैं। इनमें हार्ट अटैक के बाद की स्थिति वाले, न्यूरोलॉजिकल स्थिति ठीक नहीं होने वाले रोगी शामिल होते हैं। ऐसे में डॉक्टर्स रोगियों की जांच-पड़ताल के बाद उनके परिवार से एंड ऑफ लाइफ केयर के लिए सहमति ली जाती है। इसके बाद रोगी को इमोशनल, सोशल और स्प्रिचुअल सपोर्ट के साथ सम्मानजन मृत्यु प्रक्रिया की दिशा में कदम उठाया जाता है।
कुछ दिन या कुछ सप्ताह तक जीने वाले रोगी
इनमें कुछ दिनों या हफ्तों तक जीवित रहने की उम्मीद वाले रोगी शामिल हो सकते हैं, जिनके लिए चिकित्सक रोगी के मूल्यों के संदर्भ में जीवन की स्वीकार्य गुणवत्ता प्राप्त करने की कम संभावना की भविष्यवाणी करते हैं और खराब न्यूरोलॉजिकल परिणामों वाले पोस्ट-कार्डियक अरेस्ट स्थिति वाले रोगी। डॉक्टरों का मूल्यांकन रोगियों को सूचित किया जाता है, और उनके परिवार ईओएलसी के लिए सहमति देते हैं, ऐसे रोगियों को उचित पारिवारिक शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक समर्थन के साथ एक सम्मानजनक मृत्यु प्रक्रिया के लिए सक्षम बनाने के लिए कदम उठाए जाते हैं।
भारत में सबसे अधिक लाइलाज बीमार के रोगी
लाइलाज बीमारियों के रोगियों की संख्या दुनिया के मुकाबले भारत में अधिक है। इसके बावजूद लाइलाज बीमारियों के रोगियों के लिए बेहतर एंड-ऑफ-लाइफ देखभाल प्रदान करने में एक समान प्रणाली का अभाव है। एम्स की ईओएलसी पॉलिसी कहती है कि इस संबंध में एक संस्थागत नीति एक अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि ईओएलसी के लिए नेशनल लेवल पर कोई पॉलिसी नहीं है। एम्स की पॉलिसी के निर्माण में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी भी शामिल थी। इस पॉलिसी को इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित किया गया। एक्सपर्ट कमेटी की मेंबर डॉ. सुषमा भटनागर ने टीओआई को बताया कि एम्स नीति को सार्वजनिक डोमेन में डाल दिया गया था। इसलिए यह अन्य संस्थानों के लिए अपनी नीतियों के लिए ढांचागत जरूरतों और संसाधनों की पहचान करने का खाका बन सकता है।
एम्स में ईओएलसी के लिए अलग से डिपार्टमेंट
एम्स वर्तमान में आईसीयू और वार्डों में ईओएलसी मामलों का इलाज करता है, लेकिन भविष्य में, संस्थान ने पैलेटिव केयर डिपार्टमेंट के तहत एक अलग से ईओएलसी वार्ड बनाने का प्लान है। इसकी वजह है कि जब सामान्य वार्ड और आईसीयू में एक गंभीर रूप से बीमार रोगी को भर्ती कराया जाता है तो उसकी प्रिवेसी की कमी होती है। होली फैमिली हॉस्पिटल में क्रिटिकल केयर डिपार्टमेंट के चीफ डॉ सुमित रे के अनुसार, EOLC उनके समेत कई अस्पतालों में किया जाता है, लेकिन जितना जरूरी है उस स्तर पर यह नहीं होता है। डॉ. रे ने कहा कि यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि ईओएलसी एक्टिव या पैसिव इच्छामृत्यु से अलग है। यह रोगियों को आराम से रखने पर जोर देता है जब उपचार व्यर्थ होता है और उन्हें सम्मान के साथ मरने देता है।
इच्छामृत्यु से कितनी अलग है EOLC
एक्टिव यूथेनेसिया से आशय है किसी रोगी को एक्टिव तरीके से रोगी की जान लेना। उदाहरण के लिए, रोगी को किसी दवा की घातक खुराक का इंजेक्शन लगाना। पैसिव यूथेनेशिया का अर्थ है जानबूझकर किसी मरीज को वेंटिलेटर या फीडिंग ट्यूब जैसे कृत्रिम लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाकर मरने देना। भारत में एक्टिव यूथेनेशिया यानी सक्रिय इच्छामृत्यु गैरकानूनी है। वहीं, पैसिव यूथेनेशिया सख्त दिशानिर्देशों के साथ कानूनी है। साल 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया को वैध कर दिया था। गंभीर रूप से बीमार रोगियों या लगातार और लाइलाज स्थिति में मेडिकल ट्रीटमेंट या लाइफ सपोर्ट से इनकार कर एक सम्मानजनक मृत्यु के लिए एक ‘लिविंग विल’ को मंजूरी दी।
80 देशों के लिस्ट में 67वें स्थान पर
2015 में इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की रिपोर्ट के अनुसार, मृत्यु की गुणवत्ता के लिए की गई स्टडी में 80 देशों में भारत 67वें स्थान पर है। भटनागर ने कहा, जो एम्स में डॉ भीम राव अंबेडकर इंस्टीट्यूट रोटरी कैंसर अस्पताल के चीफ डॉ. भटनागर का कहना है कि ईओएलसी को सभी अस्पतालों में अपनाया जाना चाहिए। यह न केवल मृत्यु में गरिमा प्रदान करेगा, बल्कि आईसीयू में भर्ती कई गंभीर रूप से बीमार रोगियों के प्रबंधन में होने वाली स्वास्थ्य देखभाल की लागत को भी बचाएगा।