लड़की होने के नाते नुसरूत भरूचा को कई बार हुआ हीनता का अहसास, बोलीं- हमें चुप कराया जाता है h3>
‘प्यार का पंचनामा’, ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’, ‘छोरी’, ‘जनहित में जारी’ जैसी कई फिल्में कर चुकी नुसरत भरूचा इन दिनों चर्चा में हैं अपनी नई फिल्म ‘अकेली’ को लेकर। आतंकी हमले के बीच फंसी अकेली लड़की का किरदार निभाने वाली नुसरत ने ‘नवभारत टाइम्स’ संग इस मुलाकात में कई मुद्दों पर बात की। नुसरत ने बताया कि भले ही वह महिला प्रधान फिल्में कर रही हैं, लेकिन कभी-कभी एक लड़की होने के नाते उन्होंने हीनता का भी अहसास किया। बहुत ऐसे मौके आए जब सभी अपनी राय देते हैं और महिलाओं को समझ लिया जाता है कि उनके पास कोई राय नहीं होगी। यह कहकर ज्यादातर महिलाओं को चुप करा दिया जाता है कि हम बात कर रहे हैं। नुसरत ने यह भी बताया कि महिला प्रधान फिल्में करते वक्त उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
आपकी पिछली फिल्म ‘जनहित में जारी’ हो या ये नई फिल्म ‘अकेली’, आप हमेशा महिला किरदारों के मजबूत रूप में दिखती हैं, आपने लड़की होने के नाते सबसे ज्यादा खुद को कब सशक्त महसूस किया?
-कई मौके आए ऐसे, जब मैंने खुद को एम्पावर्ड पाया। जब मैं बच्ची थी और स्कूल में थी, तब मुझे खूब बुली किया जाता था। तब मैं दुबली-पतली और डरपोक-सी लड़की हुआ करती थी। मेरी आवाज भी नहीं निकलती थी। मैं रोज निशाना बनती थी। तब मेरा एक दोस्त हुआ करता था, जिसने मेरी हालत देखी, वो मुझसे उम्र में बड़ा था, मेरे भाई जैसा। उसने मुझसे दोस्ती की और मुझे विश्वास दिलाया कि मुझे इन लोगों की जरूरत ही नहीं है। जब वो तेरा मजाक उड़ाते हैं, तो तू उनके पास क्यों जाती है? उसने मुझे अपना दोस्त बना लिया। उसने जब कहा न, कि तुझे किसी की जरूरत नहीं, तो मैं आपको बता नहीं सकती कि मुझे क्या कॉन्फिडेंस मिला? उसके बाद मैं न कभी किसी की मोहताज रही और न ही कभी मैंने किसी की बकवास बर्दाश्त की। बाद में जब मैं थोड़ी बड़ी हुई, तब भी किसी पर आश्रित नहीं रही। कोई कहता रात को आपको घर छोड़ दें, तो कहती नहीं मैं चली जाउंगी।
फोटो: Insta/nushrrattbharuccha
कभी लड़की होने के नाते हीनता का अहसास होता है?
-कई बार। जब हमारे बारे में धारणाएं बनाई जाती हैं। जैसे दो -तीन चीजों से जोड़कर हमारी वैल्यू कम कर दी जाती है। जैसे अगर ये ग्लैमरस है, तो इसमें गहराई नहीं होगी। कई बार जब हम ग्रुप में बैठे होते हैं और सभी लोग अपनी-अपनी राय दे रहे होते हैं, तो लोग कहते हैं, इसके (महिला) पास क्या ओपिनियन होगा? हमारे पॉइंट ऑफ व्यू को महत्व नहीं दिया जाता। तुम्हें क्या पता? हम बात कर रहे हैं न? यही कह कर हमें चुप करवाया जाता है। और ये ज्यादातर सभी महिलाओं के साथ होता है। ऐसे समय में काफी हीनता महसूस होती है।
फोटो: Insta/nushrrattbharuccha
महिला प्रधान फिल्मों में आम तौर पर यह देखने को मिलता है कि चाहे वो रिलीज की बात हो या हीरोइनों के हीरोज की, उन्हें कई चुनौतियों से जूझते रहना पड़ता है। आप क्या कहना चाहेंगी?
-चुनौतियां तो हैं ही। दूसरी हीरोइनों का मुझे पता नहीं, मगर मुझे डर तो लगता है। एक हीरोइन होने के नाते मैंने और मेरे निर्माता-निर्देशक ने महिला प्रधान फिल्म बनाने की पहल तो कर डाली, मगर आज हमारे लिए सफलता बहुत जरूरी हो गई है। बॉक्स ऑफिस पर कमाल करना इतना जरूरी हो गया है कि हमने कई अच्छे फिल्ममेकर्स और कलाकारों पर इसका दबाव बना डाला है। मुझे तो ये बात समझ में ही नहीं आती कि अगर किसी फिल्म ने अच्छा बिजनेस नहीं किया, तो क्या उसकी नाकामी इस बात का प्रमाण है कि फिल्म अच्छी नहीं है? बिजनेस का मतलब है कि कितने लोग फिल्म देखने गए, अरे जब लोग फिल्म देखने आए ही नहीं, तो आप कैसे कह सकते हो फिल्म बुरी है? तो इस बात का डर तो है। हमने एक साहसी कदम तो उठाया है, मैं बहुत आशावादी हूं। लोग आएं देखें और हमें और ज्यादा महिला प्रधान फिल्में बनाने का मौका मिले।
फोटो: Insta/nushrrattbharuccha
कभी डिप्रेशन से गुजर चुकी हैं नुसरत भरूचा, बताई ये वजह !
आपकी फिल्म ‘अकेली’ के बारे में ये कहा जा रहा है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’ और ’72 हूरें’ जैसी फिल्मों को भुनाने के लिए ‘अकेली’ रिलीज की जा रही है?
– हमारी ये फिल्म इन तीनों फिल्मों से जरा भी मिलती-जुलती नहीं है। हमारी कहानी ग्लोबल लेवल पर आतंकवाद से जुड़ी है, जो हर देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत मानती हूं कि मैं इंडिया में हूं, मुझे यहां सबसे ज्यादा सुरक्षित लगता है। हमारी कहानी में तो लड़की आतंकी हमले के बीच फंस जाती है और लौट नहीं पा रही, तो हमने बहती धारा को भुनाने के लिए फिल्म नहीं बनाई है। यह स्क्रिप्ट मुझे तीन साल पहले ऑफर हुई थी, फिर लॉकडाउन लग गया। हमारी फिल्म की शूटिंग के बाद ये फिल्में रिलीज हुईं। ये तो महज एक इत्तेफाक हो गया कि ये फिल्में सेम टाइम जोन में रिलीज हुईं और इन्होंने इतना ज्यादा बिजनेस कर लिया।
आपकी पिछली फिल्म ‘जनहित में जारी’ हो या ये नई फिल्म ‘अकेली’, आप हमेशा महिला किरदारों के मजबूत रूप में दिखती हैं, आपने लड़की होने के नाते सबसे ज्यादा खुद को कब सशक्त महसूस किया?
-कई मौके आए ऐसे, जब मैंने खुद को एम्पावर्ड पाया। जब मैं बच्ची थी और स्कूल में थी, तब मुझे खूब बुली किया जाता था। तब मैं दुबली-पतली और डरपोक-सी लड़की हुआ करती थी। मेरी आवाज भी नहीं निकलती थी। मैं रोज निशाना बनती थी। तब मेरा एक दोस्त हुआ करता था, जिसने मेरी हालत देखी, वो मुझसे उम्र में बड़ा था, मेरे भाई जैसा। उसने मुझसे दोस्ती की और मुझे विश्वास दिलाया कि मुझे इन लोगों की जरूरत ही नहीं है। जब वो तेरा मजाक उड़ाते हैं, तो तू उनके पास क्यों जाती है? उसने मुझे अपना दोस्त बना लिया। उसने जब कहा न, कि तुझे किसी की जरूरत नहीं, तो मैं आपको बता नहीं सकती कि मुझे क्या कॉन्फिडेंस मिला? उसके बाद मैं न कभी किसी की मोहताज रही और न ही कभी मैंने किसी की बकवास बर्दाश्त की। बाद में जब मैं थोड़ी बड़ी हुई, तब भी किसी पर आश्रित नहीं रही। कोई कहता रात को आपको घर छोड़ दें, तो कहती नहीं मैं चली जाउंगी।
फोटो: Insta/nushrrattbharuccha
कभी लड़की होने के नाते हीनता का अहसास होता है?
-कई बार। जब हमारे बारे में धारणाएं बनाई जाती हैं। जैसे दो -तीन चीजों से जोड़कर हमारी वैल्यू कम कर दी जाती है। जैसे अगर ये ग्लैमरस है, तो इसमें गहराई नहीं होगी। कई बार जब हम ग्रुप में बैठे होते हैं और सभी लोग अपनी-अपनी राय दे रहे होते हैं, तो लोग कहते हैं, इसके (महिला) पास क्या ओपिनियन होगा? हमारे पॉइंट ऑफ व्यू को महत्व नहीं दिया जाता। तुम्हें क्या पता? हम बात कर रहे हैं न? यही कह कर हमें चुप करवाया जाता है। और ये ज्यादातर सभी महिलाओं के साथ होता है। ऐसे समय में काफी हीनता महसूस होती है।
फोटो: Insta/nushrrattbharuccha
महिला प्रधान फिल्मों में आम तौर पर यह देखने को मिलता है कि चाहे वो रिलीज की बात हो या हीरोइनों के हीरोज की, उन्हें कई चुनौतियों से जूझते रहना पड़ता है। आप क्या कहना चाहेंगी?
-चुनौतियां तो हैं ही। दूसरी हीरोइनों का मुझे पता नहीं, मगर मुझे डर तो लगता है। एक हीरोइन होने के नाते मैंने और मेरे निर्माता-निर्देशक ने महिला प्रधान फिल्म बनाने की पहल तो कर डाली, मगर आज हमारे लिए सफलता बहुत जरूरी हो गई है। बॉक्स ऑफिस पर कमाल करना इतना जरूरी हो गया है कि हमने कई अच्छे फिल्ममेकर्स और कलाकारों पर इसका दबाव बना डाला है। मुझे तो ये बात समझ में ही नहीं आती कि अगर किसी फिल्म ने अच्छा बिजनेस नहीं किया, तो क्या उसकी नाकामी इस बात का प्रमाण है कि फिल्म अच्छी नहीं है? बिजनेस का मतलब है कि कितने लोग फिल्म देखने गए, अरे जब लोग फिल्म देखने आए ही नहीं, तो आप कैसे कह सकते हो फिल्म बुरी है? तो इस बात का डर तो है। हमने एक साहसी कदम तो उठाया है, मैं बहुत आशावादी हूं। लोग आएं देखें और हमें और ज्यादा महिला प्रधान फिल्में बनाने का मौका मिले।
फोटो: Insta/nushrrattbharuccha
कभी डिप्रेशन से गुजर चुकी हैं नुसरत भरूचा, बताई ये वजह !
आपकी फिल्म ‘अकेली’ के बारे में ये कहा जा रहा है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’ और ’72 हूरें’ जैसी फिल्मों को भुनाने के लिए ‘अकेली’ रिलीज की जा रही है?
– हमारी ये फिल्म इन तीनों फिल्मों से जरा भी मिलती-जुलती नहीं है। हमारी कहानी ग्लोबल लेवल पर आतंकवाद से जुड़ी है, जो हर देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत मानती हूं कि मैं इंडिया में हूं, मुझे यहां सबसे ज्यादा सुरक्षित लगता है। हमारी कहानी में तो लड़की आतंकी हमले के बीच फंस जाती है और लौट नहीं पा रही, तो हमने बहती धारा को भुनाने के लिए फिल्म नहीं बनाई है। यह स्क्रिप्ट मुझे तीन साल पहले ऑफर हुई थी, फिर लॉकडाउन लग गया। हमारी फिल्म की शूटिंग के बाद ये फिल्में रिलीज हुईं। ये तो महज एक इत्तेफाक हो गया कि ये फिल्में सेम टाइम जोन में रिलीज हुईं और इन्होंने इतना ज्यादा बिजनेस कर लिया।