लक्ष्मीबाई के लिए 745 नागाओं ने जान दी: अंग्रेजों ने पंडों को फांसी दी; बगावत के डर से रेल-बसें रोकीं, कहा- जापान बम गिरा देगा

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लक्ष्मीबाई के लिए 745 नागाओं ने जान दी:  अंग्रेजों ने पंडों को फांसी दी; बगावत के डर से रेल-बसें रोकीं, कहा- जापान बम गिरा देगा

लक्ष्मीबाई के लिए 745 नागाओं ने जान दी: अंग्रेजों ने पंडों को फांसी दी; बगावत के डर से रेल-बसें रोकीं, कहा- जापान बम गिरा देगा

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11 घंटे पहलेलेखक: धर्मेंद्र चौहान/इंद्रभूषण मिश्र

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साल 1858, प्रयाग में कुंभ लगा। तब देश में 1857 की क्रांति चल रही थी। साधु-संतों के वेश में क्रांतिकारी कुंभ में घूम रहे थे। अंग्रेज डर गए। संगम के आस-पास की जमीनों पर सरकार ने कब्जा कर लिया। ट्रेन-बसों की टिकटों पर रोक लगा दी। लोगों को कुंभ में आने से रोका जाने लगा।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर धनंजय चोपड़ा अपनी किताब ‘भारत में कुंभ’ में लिखते हैं- ‘रानी लक्ष्मीबाई प्रयाग में एक पंडे के यहां ठहरी थीं। अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई। पंडे को फांसी पर लटका दिया गया।’

लक्ष्मीबाई ग्वालियर लौट गईं, लेकिन अंग्रेजों की फौज उनके पीछे लगी रही। कर्नल रेली ब्रिटिश फौज को लीड कर रहा था। अंग्रेजों और रानी के बीच मुठभेड़ हुई। इसी दौरान एक अंग्रेज सिपाही ने लक्ष्मीबाई के माथे पर तलवार से वार कर दिया।

उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा अपनी किताब ‘लक्ष्मी बाई द रानी ऑफ झांसी’ में लिखते हैं- ‘रानी की छाती के निचले हिस्से में गहरा घाव हो गया था। उन्होंने अपनी पगड़ी से बहते हुए खून को रोकना चाहा, लेकिन घाव गहरा था, खून रुक नहीं रहा था। फिर भी रानी आगे बढ़ीं और उस अंग्रेज सैनिक को मार डाला। इसी बीच दूसरे सैनिक ने उनकी छाती पर गोली दाग दी। रानी घोड़े के पीठ पर गिर गईं।

ब्रिटिश सैनिकों के हमले का सामना करतीं रानी लक्ष्मीबाई।

रानी के वफादार सैनिक गुल मोहम्मद और रघुनाथ सिंह उन्हें लेकर पास में ही संत गंगादास की बड़ी शाला में पहुंचे। तब आश्रम को शाला कहा जाता था। वहां गंगादास और सैकड़ों नागा साधु रहते थे। रानी को देखते ही गंगादास ने पहचान लिया। रानी उन्हीं की शिष्या थीं। हालांकि तमाम कोशिशों के बावजूद रानी को बचाया नहीं जा सका।

इधर, शाला परिसर में ब्रिटिश फौज आ चुकी थी। घोड़ों की पदचाप और शोर सुनाई दे रहा था। अंग्रेजों को लग रहा था कि रानी घायल हैं, जिन्हें शाला की कुटिया में छिपाकर रखा गया है। गंगादास ने आदेश दिया कि अंग्रेजों को रोका जाए, ताकि रानी का अंतिम संस्कार किया जा सके।

बड़ी शाला में मौजूद नागा साधुओं ने तलवार और भाले उठा लिए। तब मठ में दो हजार नागा साधु थे। सभी शस्त्र चलाना जानते थे। तोप चलाना भी उन्हें आता था।

नागा साधुओं ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए शाला में रखी दो फुट की तोप निकाली। उसे खिड़की पर लगाया और बारूद भरकर कई अंग्रेजों को मार गिराया। ये तोप अकबर ने गंगादास के गुरु परमानंद महाराज को दी थी। अंग्रेज ये देखकर हैरान रह गए कि माला फेरने वाले संन्यासी तलवार, भाला और तोप चला रहे हैं।’

महाकुंभ के किस्से’ सीरीज के तीसरे एपिसोड में कहानी आजादी के आंदोलन और कुंभ कनेक्शन की…

ब्रिटिश फौज और नागा साधुओं के बीच युद्ध का दृश्य।

लक्ष्मीबाई के बेटे को बचाने के लिए उसका सिर मुड़वाना पड़ा

संत गंगादास शाला के महंत रामसेवक दास बताते हैं- ‘रानी ने आखिरी वक्त में बेटे दामोदर राव को गंगादास के हाथों सौंप दिया था। दामोदर राव को बचाने के लिए उनकी पहचान बदल दी गई। उनका सिर मुंडवाकर गले में तुलसी माला डाल दी गई। उन्हें नागा साधु जैसा स्वरूप दिया गया।

अंग्रेजों को पता चल चुका था कि लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार गंगादास ने किया है। दामोदार दास को भी उन्होंने ही छिपाया है। अंग्रेज, गंगादास के पीछे पड़ गए थे।

इधर गंगादास बचे हुए साधुओं को लेकर काशी चले गए। वहां सभी अखाड़ों के नागा साधु, गंगादास से मिले। गंगादास ने साधुओं से कहा- ‘अगर हम ग्वालियर नहीं गए, तो हमारी द्वाराचार्य पीठ खत्म हो जाएगी।’

यह पीठ रामानंदी संप्रदाय के महंत परमदास ने बनाई थी। ये वैष्णव संप्रदाय की सबसे पुरानी पीठों में से एक है।’

महंत रामसेवक दास बताते हैं- ‘कुछ दिन बाद जब गंगादास वापस बड़ी शाला लौटे, तो देखा कि 745 साधुओं की लाशें पड़ी हुई थीं। ये सारे साधु अंग्रेजों से लड़ते हुए मारे गए थे। साधुओं के शवों का स्वर्णरेखा नदी के किनारे अंतिम संस्कार किया गया।

आज भी हर साल बाबा गंगादास की बड़ी शाला में नागा साधुओं को श्रद्धांजलि दी जाती है। उनके शस्त्रों की पूजा की जाती है।

संत गंगादास शाला में नागा साधुओं और अंग्रेज सैनिकों की लाशें बिखरी पड़ी थीं।

कुंभ में ही 1857 की क्रांति की रणनीति बनी, कमल के फूल और रोटियां बांटी गईं

साल 1855, क्रांतिकारी एक बड़े आंदोलन की तैयारी में जुटे थे। इसी बीच हरिद्वार में कुंभ लगा। पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र धुंधु पंत, उनके भाई बाला साहब, क्रांतिकारी अजीमुल्ला खां, तात्या टोपे और बाबू कुंवर सिंह भी हरिद्वार पहुंच गए। वे चार किलोमीटर खड़ी चढ़ाई करके नील पर्वत पर चंडी देवी मंदिर पहुंचे। वहां महर्षि दयानंद पहले से डेरा जमाए हुए थे।

दयानंद ने क्रांतिकारियों से कहा-

‘किसी देश पर दूसरे देश का अधिकार कैसे हो सकता है। इसे सहन करना तो महापाप है।’

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‘प्रयागराज और कुंभ’ किताब में कुमार निर्मलेंदु लिखते हैं- ‘1855 के कुंभ में ही 1857 की क्रांति की नींव रखी गई। बड़े-बड़े नगरों में गुप्तचर कमेटियां बनाई गईं। सैनिक छावनियों, शहरों और गांवों में कमल के फूल और रोटियां बांटी गईं, ताकि घर-घर तक क्रांतिकारियों के संदेश पहुंचाए जा सकें। साधु-संत कथाओं के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को आंदोलन से जोड़ने की मुहिम चला रहे थे।’

आजादी के आंदोलन का मैसेज पहुंचाने के लिए कमल का फूल और रोटियां बांटते हुए क्रांतिकारी।

प्रयाग के पंडों ने अपने झंडों पर यूनियन जैक की जलती हुई तस्वीर लगाई

1857 में मेरठ से शुरू हुआ विद्रोह जल्द ही इलाहाबाद पहुंच गया। 6 जून को मौलवी लियाकत अली ने इलाहाबाद और उसके आस-पास के इलाकों को आजाद करा लिया, लेकिन इसी बीच कर्नल नील फौज लेकर वहां पहुंच गया। उसने इलाहाबाद को भारी नुकसान पहुंचाया। साधु-संतों की छावनियां नष्ट कर दीं। संगम क्षेत्र में तोपें दागीं। जमीनें जब्त कर लीं।

इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं- ‘अंग्रेजों ने 1858 के कुंभ को लगने नहीं दिया। सिर्फ परंपरा निभाई गई, लेकिन उसके अगले साल जब प्रयाग में माघ मेला लगा, तो सब कुछ बदल चुका था। प्रयाग के पंडों ने आंदोलन का मोर्चा संभाल लिया था। किले के ठीक नीचे ही पंडों ने कैंप लगाया। हर कैंप पर खास प्रतीक लग गए। ये प्रतीक आजादी से जुड़े थे।

किसी झंडे पर यूनियन जैक को जलते हुए तो किसी झंडे पर यूनियन जैक को नीचे गिरते दिखाया गया था। साधु के वेश में क्रांतिकारी कुंभ में घूम रहे थे। मीडिया का भी जमघट लगा था। इस वजह से क्रांतिकारियों को आसानी से सूचनाएं मिल जाती थीं। घबराए अंग्रेजों ने कई पंडों को मृत्युदंड दिया। कई पंडे प्रयाग छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए।’

ब्रिटिश सरकार का विरोध जताने के लिए पंडे अपने झंडों पर यूनियन जैक की जलती हुई तस्वीर लगाते थे।

1 नवंबर 1858, इलाहाबाद में एक दरबार लगा। वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने महारानी की घोषणा पढ़ी। इसमें लिखा था कि 250 साल के ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन खत्म होता है। अब भारत की सत्ता सीधे रानी के हाथों में होगी। कैनिंग ने यह भी कहा कि सरकार भारतीयों के धार्मिक मामलों में दखल नहीं देगी।

कहा जाता है कि 1858 के कुंभ में क्रांतिकारियों की भूमिका से अंग्रेज घबरा गए थे। इसलिए वे धार्मिक मामलों में दखल नहीं देने पर जोर दे रहे थे।

पंडों ने गंगा के ऊपर बांध नहीं बनने दिया, मालवीय के सामने अंग्रेजों को झुकना पड़ा

धनंजय चोपड़ा अपनी किताब ‘भारत में कुंभ’ में लिखते हैं- ‘1915 में हरिद्वार में कुंभ लगा। इसी दौरान ब्रिटिश सरकार गंगा के ऊपर बांध बनवा रही थी। हरिद्वार के पुरोहित इस बांध का लंबे समय से विरोध कर रहे थे।

उस साल मदन मोहन मालवीय भी कुंभ पहुंचे और साधु-संतों के विरोध में शामिल हो गए। उन्होंने कई रियासतों के राजा-महाराजाओं को आंदोलन से जोड़ा। राजाओं ने बांध निर्माण रोकने के लिए सेनाएं भेज दीं। मजबूरन अंग्रेजों को झुकना पड़ा। बांध बनाने का काम रोक दिया गया। इसी कुंभ में मदन मोहन मालवीय ने अखिल भारतीय हिंदू सभा की नींव रखी थी।’

हरिद्वार में गंगा के ऊपर बांध बनाने का विरोध जताते मदन मोहन मालवीय।

गांधी ने कहा- ‘कुंभ की आस्था को आजादी के आंदोलन से जोड़ने का संकल्प लेता हूं’

साल 1915, दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले से मिले। गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे कुंभ जाएं। वहां देशभर से लाखों श्रद्धालु जुटे हैं। देश के बड़े जनमानस को समझने का मौका मिलेगा। गोखले ने गांधी को हरिद्वार में स्वामी श्रद्धानंद से मिलने की सलाह दी। श्रद्धानंद, हरिद्वार में अपने गुरुकुल में राष्ट्रभक्तों की फौज तैयार कर रहे थे।

गांधी दो दिनों तक श्रद्धानंद के साथ रहे। सात दिन उन्होंने कैंप में गुजारे। तब करीब 17 लाख लोग कुंभ में शामिल हुए थे। इतनी भीड़ देखकर गांधी को लगा कि इस भीड़ की आस्था को आजादी के आंदोलन से जोड़ना चाहिए।

इसके बाद गांधी, अंग्रेजों की नजर से बचकर 1918 के प्रयाग कुंभ में भी शामिल हुए। सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक अंग्रेजों की खुफिया रिपोर्ट में गांधी के प्रयाग आने, संगम में डुबकी लगाने और लोगों से मुलाकात का जिक्र है। बाद में गांधी ने भी माना था कि वे प्रयाग कुंभ में शामिल हुए थे।

10 फरवरी 1921 को फैजाबाद में गांधी ने कहा था-

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अयोध्या की तीर्थयात्रा में मुझे पहले ही आना था, लेकिन प्रयाग कुंभ में जाने के चलते नहीं आ पाया।

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गांधी ने ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में इस किस्से का जिक्र किया है।

साल 1918, प्रयाग कुंभ में आजादी के आंदोलन को लेकर चर्चा करते हुए महात्मा गांधी।

अंग्रेजों ने रेल-बस टिकट बैन किया, कहा- ‘जापान कुंभ में बम गिराने वाला है’

साल 1942, दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था। भारत को अंग्रेजों ने जबरन युद्ध में झोंक दिया था। 20 लाख से ज्यादा भारतीय सैनिक ब्रिटेन की तरफ से लड़ रहे थे। इससे भारत के बड़े नेता नाराज थे। अंग्रेज इस नाराजगी को भांप गए थे। इसी साल प्रयाग में कुंभ लगा। ब्रिटिश सरकार ने कुंभ से ठीक पहले रेल और बसों की टिकट बिक्री पर रोक लगा दी।

सरकार ने कहा- ‘जापान कुंभ में बम गिरा सकता है। लाखों लोग मारे जाएंगे।’ हालांकि इसके बाद भी उस कुंभ में लाखों श्रद्धालु पहुंचे थे।

इससे पहले 1918 के कुंभ के वक्त भी अंग्रेजों ने रेल और बसों की टिकट बिक्री पर रोक लगा दी थी। तब भी विश्व युद्ध चल रहा था। जानकार बताते हैं कि अंग्रेज कुंभ की भीड़ से डरे हुए थे। उन्हें लगता था कि इस भीड़ को आंदोलन के लिए उकसाया जा सकता है। अगर क्रांतिकारी ऐसा करने में सफल रहे, तो सरकार इसका सामना नहीं कर पाएगी।

स्केच : संदीप पाल

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महाकुंभ के किस्से-1 : अकबर का धर्म बदलने पुर्तगाल ने पादरी भेजा: जहांगीर ने अखाड़े को 700 बीघा जमीन दी; औरंगजेब बीमार होने पर गंगाजल पीते थे

औरंगजेब गंगाजल को स्वर्ग का जल मानते थे। एक बार वे बीमार पड़े तो उन्होंने पीने के लिए गंगाजल मंगवाया। फ्रांसीसी इतिहासकार बर्नियर ने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है- ‘औरंगजेब कहीं भी जाता था तो अपने साथ गंगाजल रखता था। वह सुबह के नाश्ते में भी गंगाजल का इस्तेमाल करता था।’ पूरी खबर पढ़ें…

महाकुंभ के किस्से-2 : पहली संतान गंगा को भेंट करते थे लोग:दाढ़ी-बाल कटवाने पर टैक्स लेते थे अंग्रेज; चांदी के कलश में लंदन भेजा जाता था गंगाजल

1827 से 1833 के बीच एक अंग्रेज कस्टम अधिकारी की पत्नी फेनी पाकर्स इलाहाबाद आईं। उन्होंने अपनी किताब ‘वंडरिंग्स ऑफ ए पिलग्रिम इन सर्च ऑफ द पिक्चर्स’ में लिखा है- ‘जब मैं इलाहाबाद पहुंची, तो वहां मेला लगा हुआ था। नागा साधु और वैष्णव संतों का हुजूम स्नान के लिए जा रहा था। मैं कई विवाहित महिलाओं से मिली, जिनकी संतान नहीं थी। उन लोगों ने प्रतिज्ञा की थी कि पहली संतान होगी तो वे गंगा को भेंट कर देंगी।’ पूरी खबर पढ़ें…

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