राजनीति में सियासत की नई परिभाषा गढ़ने वाले कर्पूरी ठाकुर कैसे बने जननायक? जानिए

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राजनीति में सियासत की नई परिभाषा गढ़ने वाले कर्पूरी ठाकुर कैसे बने जननायक? जानिए

राजनीति में सियासत की नई परिभाषा गढ़ने वाले कर्पूरी ठाकुर कैसे बने जननायक? जानिए

राजनीति में जनता का प्रियपात्र बनने को लोग क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाते हैं। लेकिन, बिहार में एक शख्स ऐसा भी हुआ जिसे जनता ने उनकी सादगी, सरलता, मृदुभाषी व ईमानदारी के कारण अपना नायक माना। इसी के बूते वे जननायक कहलाए। जी हां, हम बात कर रहे हैं जननायक कर्पूरी ठाकुर की। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू द्वारा उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ दिए जाने की घोषणा से पूरा बिहार आज सम्मानित हुआ है। 

समाजवाद के पुरोध कर्पूरी ठाकुर ने बताया कि सियासत व राजनीति कैसे की जाती है। न के बराबर संचार सुविधा वाले उस युग में भी जननायक को बिहार के किसी भी कोने से गरीबों पर हुए जुल्म की जानकारी मिल जाती। लोगों को उन पर इस कदर भरोसा था कि सरकार व पुलिस को बाद में बताते, सबसे पहले घटना की सूचना जननायक को ही देते। इस कारण ही कहीं भी गरीबों पर जब कोई घटना होती तो सबसे पहले वे ही घटनास्थल पर पहुंचते। उनकी ईमानदारी राजनीति के कारण ही उनके विचार को मानने वाले न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में हैं। इनकी शख्सियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दशकों से बिहार की राजनीति की धुरी बने लालू प्रसाद, नीतीश कुमार व रामविलास पासवान (अब दिवंगत), तीनों के मेंटर जननायक ही रहे।

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बिहार के दूसरे गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने कर्पूरी ठाकुर ने दो बार बिहार की कमान संभाली। सीएम बनने से पहले कर्पूरी ठाकुर को पहले गैर कांग्रेसी सरकार में सामाजिक समीकरणों के कारण शिक्षा मंत्री बनना पड़ा था। साथ में उप मुख्यमंत्री भी रहे। और आगे वे दो बार मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री होते हुए भी उनकी पत्नी गांव में ही रहीं। जब तक वे जीवित रहे, पुत्र समेत अपने परिवार से किसी को राजनीति में नहीं आने दिया। राजनीति में ईमानदारी, शुचिता के बल पर बताया कि शीर्ष पद पर जाने के बावजूद ईमानदारी से कैसे काम किया जा सकता है। जब तक रहे, तन-मन-धन लोगों पर लुटाते रहे। नेता विरोधी दल से हटे तो चंदा के पैसे से गाड़ी खरीदी गई। सीएम बनने पर भी उनके पिता अपना पेशागत काम करते रहे। जब निधन हुआ तो गांव में वही झोपड़ीनुमा मकान था। सादगी की इसी प्रतिमूर्ति के कारण जननायक मरणोपरांत भी करीब तीन दशक से ये राजनीति के केंद्र बने हुए हैं। सियासत में आज भी उनका आरक्षण मॉडल सर्वोपरि माना जाता है। 

हमेशा जनता के बीच रहे

लोगों के लिए इनके घर का दरवाजा हमेशा खुला रहा। इनके जानने वाले लोग तो इनके घर को धर्मशाला भी बताया करते हैं। जायज फरियाद पर हर संभव कार्रवाई की। कोई अपने ही दल का ही क्यों न हो, वोट की परवाह किए बगैर नाजायज पैरवीकारों को वापस कर देते। सर्वसुलभ के लिए हर वक्त उपलब्ध रहने वाले कर्पूरी ठाकुर की निष्ठा व ईमानदारी पर कभी किसी ने अंगुली नहीं उठाई। आपातकाल की अवधि से जुड़ा एक आरोप लगा जिसकी पुष्टि नहीं हुई।

स्वतंत्रता आंदोलन में जेल में बंद रहे  

आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर भाग लेने वाले जननायक ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 26 महीने तक वे जेल में बंद रहे। आजादी मिलने के बाद राजनीति में आने से पहले वे कुछ दिनों तक अपने गांव में शिक्षक भी रहे। 1952 में पहली बार बिहार विधानसभा के लिए चुने गए।  

मैट्रिक से अंग्रेजी हटाई

बतौर मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में शराब बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया। हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक होने के कारण शिक्षा मंत्री के रूप में कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक की परीक्षा से अंग्रेजी को समाप्त किया। इससे उन छात्रों की राह आसान हुई जो अंग्रेजी में कमजोर थे। सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को आरक्षण दिया।

कर्पूरी ठाकुर

जन्म तिथि :  24 जनवरी 1924

जन्म स्थल : पितौंझिया (अब कर्पूरी ग्राम), समस्तीपुर

माता/पिता : रामदुलारी देवी/गोकुल ठाकुर

निधन : 17 फरवरी 1988

सीएम बने : दिसंबर 1970 से जून 1971 तक, दिसंबर 1977 से अप्रैल 1979 तक।

उपमुख्यमंत्री सह शिक्षा मंत्री रहे : मार्च 1967 से जनवरी 1968 तक

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