राजदीप सरदेसाई का कॉलम: नीतीश-नायडू ने राजनीति में लचीलेपन के मानक रचे हैं h3>
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1 घंटे पहले
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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार
अगर ‘राजनीतिक जिम्नास्टिक’ के लिए कोई पुरस्कार होता तो नीतीश कुमार उसमें स्वर्ण पदक जीतने की कतार में होते और चंद्रबाबू नायडू भी उसके लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे होते। नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधियों से लेकर उनके निष्ठावान सहयोगियों तक- इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने बदलाव का एक पूरा दौर देखा है।
जिस तरह से जदयू और तेलुगुदेशम ने संसद में वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन किया, वो बताता है कि पिछले दस महीनों में सियासत का चक्का कितनी तेजी से घूमा है। नीतीश और नायडू दोनों ने अब भाजपा की प्रमुख स्थिति को स्वीकार कर लिया है।
इसमें भी नीतीश का पालाबदल राजनीति में विचारधारा-हीनता का स्पष्ट उदाहरण है। आखिर, ये नीतीश ही थे, जिन्होंने मोदी के खिलाफ तब बगावत का बिगुल बजाया था, जब उन्हें 2013 में पहली बार भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुना गया था।
उस समय एनडीए से अलग होने का जदयू का उद्देश्य खुद को ‘साम्प्रदायिक’ ताकतों के खिलाफ एक सेकुलर गढ़ के रूप में स्थापित करना था। जब मोदी ने ‘सद्भावना यात्रा’ के दौरान टोपी पहनने से इनकार कर दिया था तो नीतीश ने तुरंत पलटवार किया कि ‘देश चलाने के लिए सभी को साथ लेकर चलना होगा… कभी टोपी पहननी होगी, कभी तिलक लगाना होगा।’
आज 12 साल बाद, यह साफ हो चुका है कि विरोधाभासों की लड़ाई में केवल एक ही विजेता है। नीतीश कुमार- जिन्हें अभी दो साल पहले ही केंद्र को चुनौती देने वाले नंबर एक नेता और भाजपा विरोधी ‘इंडिया’ गठबंधन के निर्माता के रूप में पेश किया गया था- आज मोदी दरबार के एक सदस्य भर हैं। उनका गिरता स्वास्थ्य भी अब एक ऐसी हकीकत बन चुका है, जो जनता की नजरों से छिप नहीं सकता।
इसने उन्हें संघर्ष करने के लिए और असहाय बना दिया है। उनके समर्थक कह सकते हैं कि उनके नेता आज भी मुस्लिमों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन अब यह केवल दिखावा लगता है। वहीं भाजपा के लिए नीतीश एक उपयोगी शुभंकर हैं, जिनकी उसे नवंबर में बिहार चुनाव से पहले अपने व्यापक-आधार को मजबूत करने के लिए जरूरत है। लेकिन चुनाव के बाद नए गठबंधन और नए नेतृत्व उभरने की भी पूरी सम्भावनाएं हैं।
चंद्रबाबू नायडू का मामला थोड़ा पेचीदा है। वे एक ऐसे राज्य की कमान संभाल रहे हैं, जहां भाजपा बड़ी ताकत नहीं है। उनके पास प्रशासनिक कौशल और राजनीतिक अनुभव है, जिसकी मदद से वे भाजपा पर निर्भर हुए बिना भी आंध्र प्रदेश की सत्ता में बने रह सकते हैं।
वे वही नेता हैं, जिन्होंने 2019 के चुनाव अभियान में मोदी के खिलाफ जमकर विषवमन किया था। लेकिन नायडू की राजनीति हमेशा केंद्र के साथ लेन-देन के इर्द-गिर्द घूमती रही है। गठबंधनों के पिछले युग में उन्होंने संयुक्त मोर्चा सरकार और वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए दोनों के साथ जोड़ी बनाई थी।
इस बार फिर वे केंद्र से ‘डील’ करने में सफल रहे हैं। पैसों की कमी से जूझ रहे आंध्र प्रदेश के लिए ज्यादा से ज्यादा वित्तीय पैकेज की मांग करना और इसके ऐवज में विवादास्पद कानूनों पर केंद्र के साथ मजबूती से खड़े रहना उनके सौदे का लब्बोलुआब है।
एक मायने में, नीतीश और नायडू दोनों ने राजनीति में अपना वजूद कायम रखने की कला में महारत हासिल कर ली है। दृष्टिकोण में उपयुक्त लचीलापन हो तो यह सत्ता में लंबे समय तक बने रहने में मदद करता है। इसमें दृढ़ता के बजाय सुविधा ज्यादा मायने रखती है।
आप किसी मुद्दे पर कहां खड़े हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किसके साथ बैठे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को लगातार खोखला किया जाता है। क्या नीतीश तभी ‘सेकुलर’ होते हैं, जब वे इंडिया गठबंधन के साथ होते हैं और क्या वे केवल तभी साम्प्रदायिक हो जाते हैं, जब वे भाजपा में शामिल हो जाते हैं? नायडू के साथ भी यही स्थिति है।
ऐसे में हमारे पास केवल अवसरवादी ‘सेकुलर’ राजनीति के अलग-अलग रंग ही बचे रह जाते हैं। अतीत में कांग्रेस ने भी यही किया है- कभी वह शाहबानो मामले में मुस्लिम साम्प्रदायिकों के सामने झुक जाती तो कभी बाबरी मस्जिद के दरवाजे खोलते हुए हिंदुत्व के झंडाबरदारों का साथ देने लगती।
जनता परिवार के दलों ने भी कांग्रेस को बाहर रखने के लिए यदा-कदा भाजपा के साथ गठबंधन किया है। टीएमसी और डीएमके भी अतीत में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों के साथ गई हैं। सिर्फ वामपंथी दलों ने ही साम्प्रदायिक राजनीति पर कभी समझौता नहीं किया, लेकिन आज वामपंथी राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गए हैं।
नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों ने राजनीति में अपना वजूद कायम रखने की कला में महारत हासिल कर ली है। विचारधारा और दृष्टिकोण में उपयुक्त लचीलापन हो तो यह सत्ता में लंबे समय तक बने रहने में मदद करता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार
अगर ‘राजनीतिक जिम्नास्टिक’ के लिए कोई पुरस्कार होता तो नीतीश कुमार उसमें स्वर्ण पदक जीतने की कतार में होते और चंद्रबाबू नायडू भी उसके लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे होते। नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधियों से लेकर उनके निष्ठावान सहयोगियों तक- इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने बदलाव का एक पूरा दौर देखा है।
जिस तरह से जदयू और तेलुगुदेशम ने संसद में वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन किया, वो बताता है कि पिछले दस महीनों में सियासत का चक्का कितनी तेजी से घूमा है। नीतीश और नायडू दोनों ने अब भाजपा की प्रमुख स्थिति को स्वीकार कर लिया है।
इसमें भी नीतीश का पालाबदल राजनीति में विचारधारा-हीनता का स्पष्ट उदाहरण है। आखिर, ये नीतीश ही थे, जिन्होंने मोदी के खिलाफ तब बगावत का बिगुल बजाया था, जब उन्हें 2013 में पहली बार भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुना गया था।
उस समय एनडीए से अलग होने का जदयू का उद्देश्य खुद को ‘साम्प्रदायिक’ ताकतों के खिलाफ एक सेकुलर गढ़ के रूप में स्थापित करना था। जब मोदी ने ‘सद्भावना यात्रा’ के दौरान टोपी पहनने से इनकार कर दिया था तो नीतीश ने तुरंत पलटवार किया कि ‘देश चलाने के लिए सभी को साथ लेकर चलना होगा… कभी टोपी पहननी होगी, कभी तिलक लगाना होगा।’
आज 12 साल बाद, यह साफ हो चुका है कि विरोधाभासों की लड़ाई में केवल एक ही विजेता है। नीतीश कुमार- जिन्हें अभी दो साल पहले ही केंद्र को चुनौती देने वाले नंबर एक नेता और भाजपा विरोधी ‘इंडिया’ गठबंधन के निर्माता के रूप में पेश किया गया था- आज मोदी दरबार के एक सदस्य भर हैं। उनका गिरता स्वास्थ्य भी अब एक ऐसी हकीकत बन चुका है, जो जनता की नजरों से छिप नहीं सकता।
इसने उन्हें संघर्ष करने के लिए और असहाय बना दिया है। उनके समर्थक कह सकते हैं कि उनके नेता आज भी मुस्लिमों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन अब यह केवल दिखावा लगता है। वहीं भाजपा के लिए नीतीश एक उपयोगी शुभंकर हैं, जिनकी उसे नवंबर में बिहार चुनाव से पहले अपने व्यापक-आधार को मजबूत करने के लिए जरूरत है। लेकिन चुनाव के बाद नए गठबंधन और नए नेतृत्व उभरने की भी पूरी सम्भावनाएं हैं।
चंद्रबाबू नायडू का मामला थोड़ा पेचीदा है। वे एक ऐसे राज्य की कमान संभाल रहे हैं, जहां भाजपा बड़ी ताकत नहीं है। उनके पास प्रशासनिक कौशल और राजनीतिक अनुभव है, जिसकी मदद से वे भाजपा पर निर्भर हुए बिना भी आंध्र प्रदेश की सत्ता में बने रह सकते हैं।
वे वही नेता हैं, जिन्होंने 2019 के चुनाव अभियान में मोदी के खिलाफ जमकर विषवमन किया था। लेकिन नायडू की राजनीति हमेशा केंद्र के साथ लेन-देन के इर्द-गिर्द घूमती रही है। गठबंधनों के पिछले युग में उन्होंने संयुक्त मोर्चा सरकार और वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए दोनों के साथ जोड़ी बनाई थी।
इस बार फिर वे केंद्र से ‘डील’ करने में सफल रहे हैं। पैसों की कमी से जूझ रहे आंध्र प्रदेश के लिए ज्यादा से ज्यादा वित्तीय पैकेज की मांग करना और इसके ऐवज में विवादास्पद कानूनों पर केंद्र के साथ मजबूती से खड़े रहना उनके सौदे का लब्बोलुआब है।
एक मायने में, नीतीश और नायडू दोनों ने राजनीति में अपना वजूद कायम रखने की कला में महारत हासिल कर ली है। दृष्टिकोण में उपयुक्त लचीलापन हो तो यह सत्ता में लंबे समय तक बने रहने में मदद करता है। इसमें दृढ़ता के बजाय सुविधा ज्यादा मायने रखती है।
आप किसी मुद्दे पर कहां खड़े हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किसके साथ बैठे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को लगातार खोखला किया जाता है। क्या नीतीश तभी ‘सेकुलर’ होते हैं, जब वे इंडिया गठबंधन के साथ होते हैं और क्या वे केवल तभी साम्प्रदायिक हो जाते हैं, जब वे भाजपा में शामिल हो जाते हैं? नायडू के साथ भी यही स्थिति है।
ऐसे में हमारे पास केवल अवसरवादी ‘सेकुलर’ राजनीति के अलग-अलग रंग ही बचे रह जाते हैं। अतीत में कांग्रेस ने भी यही किया है- कभी वह शाहबानो मामले में मुस्लिम साम्प्रदायिकों के सामने झुक जाती तो कभी बाबरी मस्जिद के दरवाजे खोलते हुए हिंदुत्व के झंडाबरदारों का साथ देने लगती।
जनता परिवार के दलों ने भी कांग्रेस को बाहर रखने के लिए यदा-कदा भाजपा के साथ गठबंधन किया है। टीएमसी और डीएमके भी अतीत में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों के साथ गई हैं। सिर्फ वामपंथी दलों ने ही साम्प्रदायिक राजनीति पर कभी समझौता नहीं किया, लेकिन आज वामपंथी राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गए हैं।
नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों ने राजनीति में अपना वजूद कायम रखने की कला में महारत हासिल कर ली है। विचारधारा और दृष्टिकोण में उपयुक्त लचीलापन हो तो यह सत्ता में लंबे समय तक बने रहने में मदद करता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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