मजदूर दिवस 1 MAY- रोजगार की तलाश में खाली हो गए गांव, बस्तियों में पसरा सन्नाटा | Locks are hanging here in most of houses, looking for work in metros | Patrika News h3>
वहां अकसर लोग बांस के बर्तन बनाते दिख जाते थे, लेकिन ज्यादातर घरों में ताला लटका है। आसपास के लोगों ने बताया कि यह लोग रोजगार की तलाश में दिल्ली-मुंबई व सूरत चले गए हैं। कुछ ऐसा ही नजारा पड़ोसी गांव सुरदहा की गिरीशपुर बस्ती में देखने को मिला। वहां भी कई घरों में ताले लटके मिले। कुछ लोग तो रोजगार की तलाश में अकेले गए हैं, जबकि कुछ परिवार के साथ बाहर हैं। खेती-किसनी घर की महिलाएं व बच्चे संभालते हैं।
मनरेगा में दौड़ रहीं मशीनें, मजदूर कर रहे पलायन
गांवों से पलायन रोकने व श्रमिकों को स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार मनरेगा के जरिए भारी भरकम बजट उपलब्ध कराती है। सरपंच-सचिव व रोजगार सहायक सरकार की मंशा के विपरीत यह राशि ठेकेदारों को सौंप देते हैं, जो मजदूरों की बजाय मशीनों से काम कराते हैं और स्थानीय श्रमिकों को रोजागर की तलाश में दिल्ली – मुंबई जैसे महानगरों का रुख करना पड़ता है।
गांव में काम धंधे नहीं, मनरेगा महज सरकारी ढिंढोरा
लंबे समय तक गुजरात व सउदी अरब में रहे बद्री कुशवाहा पिछले कुछ वर्षों से गांव में ही रह हैं। पलायन की वजह पूछने पर बताया कि घर-परिवार की जिम्मेदारियां हैं। छोटा भाई बाहर है, नहीं तो मैं भी अभी बाहर ही होता। गांव में काम धंधे नहीं बचे। खेती-किसानी के ज्यादातर काम मशीनों से हो जाते हैं।
गांवों से पलायन रोकने सरकार मनरेगा योजना का ढिंढोरा पीटती है, लेकिन इसमें भी ज्यादातर काम मशीनों से हो रहे हैं। भुगतान में देरी व कमीशनबाजी के चलते मजदूर भी इसमें काम नहीं करना चाहते। इससे ज्यादा मजदूरी उन्हें नागौद सतना में मिल जाती है। तत्काल भुगतान भी हो जाता है।
गांव में डेढ़ साल किया काम का इंतजार
कोविड की दूसरी लहर में लॉकडाउन के दौरान परदेश से लौटे प्रवासी मजदूरों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार व प्रशिक्षण दिलाने की बात कही गई थी। सरकार ने सर्वे व पंजीयन भी कराया था, लेकिन हुआ कुछ नहीं। सिद्धनगर निवासी कमलेश कुशवाहा कुछ इसी उम्मीद से डेढ़ साल तक गांव में रहे, लेकिन सरकार से कोई मदद मिलती नहीं दिखी तो दो माह पहले वह फिर गुजरात चले गए। कमलेश ही नहीं गांव के ज्यादातर लोग इन दिनों बाहर हैं।
वहां अकसर लोग बांस के बर्तन बनाते दिख जाते थे, लेकिन ज्यादातर घरों में ताला लटका है। आसपास के लोगों ने बताया कि यह लोग रोजगार की तलाश में दिल्ली-मुंबई व सूरत चले गए हैं। कुछ ऐसा ही नजारा पड़ोसी गांव सुरदहा की गिरीशपुर बस्ती में देखने को मिला। वहां भी कई घरों में ताले लटके मिले। कुछ लोग तो रोजगार की तलाश में अकेले गए हैं, जबकि कुछ परिवार के साथ बाहर हैं। खेती-किसनी घर की महिलाएं व बच्चे संभालते हैं।
मनरेगा में दौड़ रहीं मशीनें, मजदूर कर रहे पलायन
गांवों से पलायन रोकने व श्रमिकों को स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार मनरेगा के जरिए भारी भरकम बजट उपलब्ध कराती है। सरपंच-सचिव व रोजगार सहायक सरकार की मंशा के विपरीत यह राशि ठेकेदारों को सौंप देते हैं, जो मजदूरों की बजाय मशीनों से काम कराते हैं और स्थानीय श्रमिकों को रोजागर की तलाश में दिल्ली – मुंबई जैसे महानगरों का रुख करना पड़ता है।
गांव में काम धंधे नहीं, मनरेगा महज सरकारी ढिंढोरा
लंबे समय तक गुजरात व सउदी अरब में रहे बद्री कुशवाहा पिछले कुछ वर्षों से गांव में ही रह हैं। पलायन की वजह पूछने पर बताया कि घर-परिवार की जिम्मेदारियां हैं। छोटा भाई बाहर है, नहीं तो मैं भी अभी बाहर ही होता। गांव में काम धंधे नहीं बचे। खेती-किसानी के ज्यादातर काम मशीनों से हो जाते हैं।
गांवों से पलायन रोकने सरकार मनरेगा योजना का ढिंढोरा पीटती है, लेकिन इसमें भी ज्यादातर काम मशीनों से हो रहे हैं। भुगतान में देरी व कमीशनबाजी के चलते मजदूर भी इसमें काम नहीं करना चाहते। इससे ज्यादा मजदूरी उन्हें नागौद सतना में मिल जाती है। तत्काल भुगतान भी हो जाता है।
गांव में डेढ़ साल किया काम का इंतजार
कोविड की दूसरी लहर में लॉकडाउन के दौरान परदेश से लौटे प्रवासी मजदूरों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार व प्रशिक्षण दिलाने की बात कही गई थी। सरकार ने सर्वे व पंजीयन भी कराया था, लेकिन हुआ कुछ नहीं। सिद्धनगर निवासी कमलेश कुशवाहा कुछ इसी उम्मीद से डेढ़ साल तक गांव में रहे, लेकिन सरकार से कोई मदद मिलती नहीं दिखी तो दो माह पहले वह फिर गुजरात चले गए। कमलेश ही नहीं गांव के ज्यादातर लोग इन दिनों बाहर हैं।