मकरंद परांजपे का कॉलम: लोकतंत्रों के एक नए समूह की धुरी बन सकता है भारत h3>
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3 घंटे पहले
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मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक
शीत युद्ध 2.0 के इस दौर में लोकतंत्रों का नया गठबंधन ही शांति और समृद्धि की गारंटी दे सकता है। मैं इस नए गठबंधन को लोकतंत्रों का परिवृत्त (आर्क ऑफ डेमोक्रेसीज़) कहता हूं। ट्रम्प की तमाम धमकियों के बावजूद अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के एकमात्र मध्यस्थ की भूमिका से पीछे हटता दिख रहा है।
ऐसे में क्षेत्रीय शक्तियों और गठबंधनों के समूह को उभरना ही होगा। दुनिया के सबसे बड़े, सबसे ज्यादा आबादी वाले और अब आर्थिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण महाद्वीप एशिया में ऐसी नियम-आधारित व्यवस्था कौन बना सकता है?
अगर हम हिंद महासागर के एक्यूमनी (बसाहट वाले इलाके) को ट्रांस-एशियाई समुद्री कॉरिडोर मानें, तो लोकतंत्रों का एक परिवृत्त दक्षिण अफ्रीका से जापान तक फैला होगा। इससे भी आगे, एशिया-पैसिफिक में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी इसमें शामिल होंगे।
इजराइल इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा क्योंकि अमेरिकी संरक्षण में वह अभी एक नया मध्य-पूर्व बना रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने एक यादगार समीकरण या यूं कहें कि एक नई परिकल्पना दी : मीगा (मेक इंडिया ग्रेट अगेन) + मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) = मेगा।
कुछ अनसुलझे सवालों और मुद्दों के बावजूद भारत-अमेरिका साझेदारी का वादा वाकई ‘मेगा’ है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या के चलते अमेरिका के लिए भारतीय हितों के विपरीत जाना मुश्किल होगा। वहीं भारत के प्रतिभाशाली युवाओं के अमेरिका में होने की वजह से भारत के लिए शीत युद्ध 2.0 में चीनी ऑर्बिट में प्रवेश करना मुश्किल होगा। अमेरिका अब भी दुनिया का पसंदीदा डेस्टिनेशन है। भारत को भी अमेरिकी तकनीकी व बाजार की जरूरत है।
इन घटनाक्रमों के आलोक में, तेजी से विकसित हो रहे वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए हेनरी किसिंजर की यह बात याद आती है कि हम पहले ही शीत युद्ध 2.0 के कगार पर हैं। यही कारण है कि एशिया में लोकतंत्रों के परिवृत्त का विचार एक जरूरी रणनीतिक ढांचे के रूप में उभर रहा है।
इस अवधारणा के मुताबिक, लोकतांत्रिक देशों का गठबंधन तानाशाही के खिलाफ एक मजबूत दीवार बन सकता है, जो पूरे क्षेत्र में शांति और समृद्धि बढ़ाने के साथ नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बना सकता है। लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे ज्यादा आबादी वाला देश होने के नाते भारत इसकी धुरी होगा।
ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत इस प्रस्तावित परिवृत्त के केंद्र में अपने भौगोलिक, सामरिक या आर्थिक महत्व के कारण ही नहीं है, बल्कि अपनी विविध, बहुलतावादी और लोकतांत्रिक संस्कृति-सभ्यता के कारण भी है।
हम गर्व से दुनिया के सामने कहते हैं कि भारत ने न केवल आध्यात्मिक लोकतंत्र बल्कि नागरिक और राजनीतिक लोकतंत्र को भी जन्म दिया है। अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था, सैन्य क्षमताओं और भू-राजनीतिक ताकत के कारण भारत के पास लोकतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्व करने या उस पर असर डालने का अनूठा मौका है।
लेकिन भारत को ऐसी भूमिका निभाने के लिए अमेरिका तथा पश्चिम के प्रति गहरे अविश्वास को छोड़ना होगा। हमें क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा संरचनाओं में ज्यादा सक्रियता से भाग लेना होगा। इसमें न केवल हिंद महासागर को सुरक्षित करने के लिए हमारी नौसैनिक क्षमताओं को बढ़ाना शामिल है, बल्कि सांस्कृतिक कूटनीति, आर्थिक साझेदारी और रणनीतिक गठबंधनों के जरिए हमारी सॉफ्ट-पॉवर का लाभ लेना भी जरूरी है।
पश्चिमी लोकतंत्रों और एशियाई पड़ोसियों, दोनों के साथ भारत के कूटनीतिक संबंध इस भूमिका का आधार बनेंगे। हालांकि घरेलू राजनीति, आर्थिक असमानताओं और चीन, पाकिस्तान और अब बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों के साथ तनाव की चुनौतियां बाधक साबित हो सकती हैं।
इस परिवृत्त की सफलता रणनीतिक साझेदारी की मजबूती और अनुकूलता पर बहुत निर्भर करेगी। क्षेत्र में आपसी संबंधों का लाभ उठाने के लिए भारत को रणनीतिक गठबंधनों में बहुत ज्यादा निवेश करना होगा। लेकिन सबसे बड़ी बाधा गुटनिरपेक्षता की हमारी विरासत और उसका बोझ है। हमें इससे हटकर रणनीतिक बहुपक्षवाद और फिर लाभदायक पुनर्संगठन की ओर जाना होगा। इससे हमारी स्वायत्तता खत्म नहीं होगी, बल्कि सुरक्षा बढ़ेगी।
रणनीतिक साझेदारी की मजबूती मायने रखती है। क्षेत्र में आपसी संबंधों का लाभ उठाने के लिए भारत को रणनीतिक गठबंधनों में बहुत निवेश करना होगा। लेकिन सबसे बड़ी बाधा गुटनिरपेक्षता की हमारी विरासत का बोझ है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक
शीत युद्ध 2.0 के इस दौर में लोकतंत्रों का नया गठबंधन ही शांति और समृद्धि की गारंटी दे सकता है। मैं इस नए गठबंधन को लोकतंत्रों का परिवृत्त (आर्क ऑफ डेमोक्रेसीज़) कहता हूं। ट्रम्प की तमाम धमकियों के बावजूद अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के एकमात्र मध्यस्थ की भूमिका से पीछे हटता दिख रहा है।
ऐसे में क्षेत्रीय शक्तियों और गठबंधनों के समूह को उभरना ही होगा। दुनिया के सबसे बड़े, सबसे ज्यादा आबादी वाले और अब आर्थिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण महाद्वीप एशिया में ऐसी नियम-आधारित व्यवस्था कौन बना सकता है?
अगर हम हिंद महासागर के एक्यूमनी (बसाहट वाले इलाके) को ट्रांस-एशियाई समुद्री कॉरिडोर मानें, तो लोकतंत्रों का एक परिवृत्त दक्षिण अफ्रीका से जापान तक फैला होगा। इससे भी आगे, एशिया-पैसिफिक में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी इसमें शामिल होंगे।
इजराइल इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा क्योंकि अमेरिकी संरक्षण में वह अभी एक नया मध्य-पूर्व बना रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने एक यादगार समीकरण या यूं कहें कि एक नई परिकल्पना दी : मीगा (मेक इंडिया ग्रेट अगेन) + मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) = मेगा।
कुछ अनसुलझे सवालों और मुद्दों के बावजूद भारत-अमेरिका साझेदारी का वादा वाकई ‘मेगा’ है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या के चलते अमेरिका के लिए भारतीय हितों के विपरीत जाना मुश्किल होगा। वहीं भारत के प्रतिभाशाली युवाओं के अमेरिका में होने की वजह से भारत के लिए शीत युद्ध 2.0 में चीनी ऑर्बिट में प्रवेश करना मुश्किल होगा। अमेरिका अब भी दुनिया का पसंदीदा डेस्टिनेशन है। भारत को भी अमेरिकी तकनीकी व बाजार की जरूरत है।
इन घटनाक्रमों के आलोक में, तेजी से विकसित हो रहे वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए हेनरी किसिंजर की यह बात याद आती है कि हम पहले ही शीत युद्ध 2.0 के कगार पर हैं। यही कारण है कि एशिया में लोकतंत्रों के परिवृत्त का विचार एक जरूरी रणनीतिक ढांचे के रूप में उभर रहा है।
इस अवधारणा के मुताबिक, लोकतांत्रिक देशों का गठबंधन तानाशाही के खिलाफ एक मजबूत दीवार बन सकता है, जो पूरे क्षेत्र में शांति और समृद्धि बढ़ाने के साथ नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बना सकता है। लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे ज्यादा आबादी वाला देश होने के नाते भारत इसकी धुरी होगा।
ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत इस प्रस्तावित परिवृत्त के केंद्र में अपने भौगोलिक, सामरिक या आर्थिक महत्व के कारण ही नहीं है, बल्कि अपनी विविध, बहुलतावादी और लोकतांत्रिक संस्कृति-सभ्यता के कारण भी है।
हम गर्व से दुनिया के सामने कहते हैं कि भारत ने न केवल आध्यात्मिक लोकतंत्र बल्कि नागरिक और राजनीतिक लोकतंत्र को भी जन्म दिया है। अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था, सैन्य क्षमताओं और भू-राजनीतिक ताकत के कारण भारत के पास लोकतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्व करने या उस पर असर डालने का अनूठा मौका है।
लेकिन भारत को ऐसी भूमिका निभाने के लिए अमेरिका तथा पश्चिम के प्रति गहरे अविश्वास को छोड़ना होगा। हमें क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा संरचनाओं में ज्यादा सक्रियता से भाग लेना होगा। इसमें न केवल हिंद महासागर को सुरक्षित करने के लिए हमारी नौसैनिक क्षमताओं को बढ़ाना शामिल है, बल्कि सांस्कृतिक कूटनीति, आर्थिक साझेदारी और रणनीतिक गठबंधनों के जरिए हमारी सॉफ्ट-पॉवर का लाभ लेना भी जरूरी है।
पश्चिमी लोकतंत्रों और एशियाई पड़ोसियों, दोनों के साथ भारत के कूटनीतिक संबंध इस भूमिका का आधार बनेंगे। हालांकि घरेलू राजनीति, आर्थिक असमानताओं और चीन, पाकिस्तान और अब बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों के साथ तनाव की चुनौतियां बाधक साबित हो सकती हैं।
इस परिवृत्त की सफलता रणनीतिक साझेदारी की मजबूती और अनुकूलता पर बहुत निर्भर करेगी। क्षेत्र में आपसी संबंधों का लाभ उठाने के लिए भारत को रणनीतिक गठबंधनों में बहुत ज्यादा निवेश करना होगा। लेकिन सबसे बड़ी बाधा गुटनिरपेक्षता की हमारी विरासत और उसका बोझ है। हमें इससे हटकर रणनीतिक बहुपक्षवाद और फिर लाभदायक पुनर्संगठन की ओर जाना होगा। इससे हमारी स्वायत्तता खत्म नहीं होगी, बल्कि सुरक्षा बढ़ेगी।
रणनीतिक साझेदारी की मजबूती मायने रखती है। क्षेत्र में आपसी संबंधों का लाभ उठाने के लिए भारत को रणनीतिक गठबंधनों में बहुत निवेश करना होगा। लेकिन सबसे बड़ी बाधा गुटनिरपेक्षता की हमारी विरासत का बोझ है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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