बेगूसराय के तत्कालीन एसपी और डीएसपी को राहत: युवक के प्राइवेट पार्ट को मारकर चोटिल करने का था आरोप, कोर्ट ने संज्ञान आदेश किया निरस्त – Patna News h3>
पटना हाई कोर्ट ने बेगूसराय के तत्कालीन एसपी हरप्रीत कौर और डीएसपी राजकिशोर सिंह को एक मामले में बड़ी राहत दी है। कोर्ट ने उनके खिलाफ संज्ञान आदेश को निरस्त कर दिया।
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जस्टिस चंद्रशेखर झा ने हरप्रीत कौर और राजकिशोर सिंह की ओर से दायर अर्जी पर सुनवाई के बाद संज्ञान आदेश को रद्द कर दिया।
इसके पहले आवेदकों की ओर से अधिवक्ता राणा विक्रम सिंह ने कोर्ट को बताया कि बेगूसराय में तीन बच्चों के अपहरण और एक बच्चे पीयूष के अपहरण के बाद हत्या की घटना के विरोध में 28 मार्च 2014 को एक दिवसीय बेगूसराय बंद का आह्वान किया गया था।
एसपी पर लगा था बूट से प्राइवेट पार्ट पर मारने का आरोप
इसका आयोजन अपराध विरोधी संघर्ष समिति की ओर से किया गया था। आरोप लगाया गया कि एसपी ने अपने बूट से जफीर खान के अंडकोष पर लात मारी, जिससे उनके लिंग से खून बहने लगा। डीएसपी, राज किशोर सिंह ने मुकुंद कुमार पर पुलिस की रॉड से हमला किया, जिससे उनका हाथ फ्रैक्चर हो गया।
प्रदर्शनकारियों को धमकी दी गई कि वे कथित हमले और चोटों के बारे में सीजेएम के सामने खुलासा नहीं करें। लेकिन धमकी के बावजूद हिरासत में लिए गए प्रदर्शनकारियों ने अपनी चोटों के बारे में सीजेएम को बताया।
इलाज नहीं कराने का भी लगा था आरोप
सीजेएम ने इलाज के निर्देश दिये, लेकिन इसके बावजूद इलाज नहीं कराया गया। जेल डॉक्टर और जेल अधीक्षक के आवेदन पर उनका इलाज कराया गया।
उनका कहना था कि जब जफीर खान, रूपक कुमार, मुकुंद कुमार, सुजीत कुमार और मुरारी कुमार की हालत खराब हो गई,तब उनके इलाज के लिए मेडिकल बोर्ड का गठन किया गया। हिरासत में लिए गए प्रदर्शनकारियों को पुलिस अधिकारियों ने जान से मारने और झूठे आपराधिक मामले में फंसाने की धमकी दी।
कोर्ट ने सभी पक्षों की ओर से पेश दलीलों को सुनने के बाद अपने आदेश में कहा कि आदर्श आचार संहिता को देखते हुए पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य है कि वे किसी भी अवांछित स्थिति से निपटने के लिए अधिक सतर्क रहें।
कोर्ट ने उनपर लगे आरोपों को सही नहीं बताया
कोर्ट ने कहा कि चोट की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि केवल शारीरिक दर्द और घायल जफीर खान के हाथ में दर्द का सुझाव देती है। जो प्रथम दृष्टया लिंग पर हमला करना और खून बहना सही प्रतीत नहीं हो रही हैं।
कोर्ट ने माना कि हिंसक विरोध के लिए पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले से बचने के लिए दुर्भावनापूर्ण दृष्टिकोण के साथ परिवाद पत्र दायर किया गया। आवेदक और उसके सहयोगी पुलिस कर्मी अपने आधिकारिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे और इसलिए, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत अभियोजन के लिए मंजूरी अनिवार्य रूप से आवश्यक थी। कोर्ट ने संज्ञान आदेश को निरस्त कर दिया।