बीजेपी के मुफ्त राशन के खिलाफ नीतीश का आरक्षण कार्ड, जाति गणना रिपोर्ट से हिंदुत्व के एजेंडे को कितना नुकसान?

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बीजेपी के मुफ्त राशन के खिलाफ नीतीश का आरक्षण कार्ड, जाति गणना रिपोर्ट से हिंदुत्व के एजेंडे को कितना नुकसान?

बीजेपी के मुफ्त राशन के खिलाफ नीतीश का आरक्षण कार्ड, जाति गणना रिपोर्ट से हिंदुत्व के एजेंडे को कितना नुकसान?

नीतीश सरकार द्वारा जाति गणना के सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर रखे जाने के बाद एक बार फिर बिहार की चुनावी राजनीति में हलचल मच गई है। इस रिपोर्ट से 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के परिदृश्य की यादें ताजा हो गईं। जब बिहार चुनाव से कुछ हफ्ते पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य को दिए एक साक्षात्कार में आरक्षण नीति की “सामाजिक समीक्षा” का आह्वान करके हलचल मचा दी थी। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने तुरंत इस मुद्दे को उठाया और जनता के बीच यह संदेश भेजा कि बीजेपी आरक्षण को खत्म करना चाहती है। नतीजा यह हुआ कि जेडीयू-आरजेडी समेत महागठबंधन ने बिहार में प्रचंड बहुमत के साथ चुनाव जीता था।

महागठबंधन सरकार ने मंगलवार को जब जातीय गणना रिपोर्ट का सामाजिक-आर्थिक हिस्सा पेश किया, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरक्षण को 65 फीसदी तक बढ़ाने की मांग की, जबकि गठबंधन में उसकी सहयोगी आरजेडी ने एक कदम आगे बढ़कर आरक्षण लिमिट 70 फीसदी करने की मांग कर दी। इसके बाद शाम में हुई कैबिनेट मीटिंग से इस प्रस्ताव को मंजूरी भी मिल गई। राज्य सरकार विधानमंडल के इसी शीतकालीन सत्र में आरक्षण का दायरा बढ़ाने वाला बिल पारित कराने वाली है। इसके बाद गेंद केंद्र सरकार के पाले में डल जाएगी, क्योंकि इस पर अंतिम फैसला उसे ही करना है।

जेडीयू और आरजेडी द्वारा केंद्र से आरक्षण कोटा बढ़ाने की मांग एक सुविचारित कदम है और विशेषज्ञ इसे बीजेपी को नुकसान पहुंचाने के कदम के रूप में देख रहे हैं। दरअसल, पीएम नरेंद्र मोदी ने पांच और सालों तक मुफ्त राशन देने की हाल ही में घोषणा की है। अब नीतीश कुमार ने आरक्षण कार्ड चलकर जाति गणना से बीजेपी की पिच को कमजोर करने की कोशिश की है। बीजेपी ने नीतीश सरकार की जाति गणना रिपोर्ट में ईबीसी और ओबीसी के आंकड़ों में हेरफेर के आरोप भी लगाए।

पटना यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व एचओडी एनके चौधरी का कहना है कि बीजेपी दबाव में है। वह जाति गणना और आरक्षण के मुद्दे को सिरे से खारिज नहीं कर सकती, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबों पर फोकस किया जो सभी जातियों में है। एक तरफ पीएम गरीबों के बारे में बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ अमित शाह ने ईबीसी को लुभाने के लिए एक अलग रास्ता अपनाया है। 36% ईबीसी आबादी न केवल नीतीश कुमार के अस्तित्व के लिए बल्कि बीजेपी के भाग्य के लिए भी अहम होगी। क्योंकि यह समाज का वह वर्ग है जिसे नीतीश कुमार ने अपने वोटबैंक के रूप में स्थापित किया है। 

एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के रिटायर्ड निदेशक डी एम दिवाकर ने कहा कि नीतीश के जातिगत सर्वे ने बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे को कमजोर किया है। ऐसे में बीजेपी निश्चित रूप से इसका मुकाबला करने में जुटी है। इसलिए पार्टी मुफ्त राशन योजना के जरिए गरीबों को लुभाने की कोशिश कर रही है।

बदल जाएगी चुनावी राजनीति

बिहार सरकार द्वारा कराए गए सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट से राज्य में एक और सामाजिक बहस का मुद्दा मिल गया है। जातिगत गणना के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी 27.13% और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की आबादी 36.01% है। यादव, कुर्मी, कुशवाह जैसी जातियां ओबीसी में गिनी जाती हैं। ओबीसी-ईबीसी समूह मिलकर राज्य की आबादी का 63% हिस्सा बनाते हैं। 1931 में अंग्रेजों ने आखिरी बार जाति गणना कराई थी, तब से लेकर अब तक ओबीसी-ईबीसी समूहों की आबादी में 10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है। गौरतलब है कि 1931 की जातिगत जनगणना तत्कालीन अविभाजित भारत सहित वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश में की गई थी।

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ईबीसी से बिहार में अब तक सिर्फ एक सीएम

एनके चौधरी ने बताया कि 1970 के दशक की शुरुआत में, बिहार में पिछड़ी जातियों से पांच और अनुसूचित जाति (एससी) से दो मुख्यमंत्री बने थे। जाति गणना रिपोर्ट से बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। इसके साथ ही सत्तारूढ़ महागठबंधन की पार्टियों में भी विरोधाभास पैदा होने की संभावना है। क्योंकि जो जाति जितनी दबी हुई है, वो उतनी ज्यादा हिस्सेदारी और सत्ता में सहयोग की मांग करेगी। उन्होंने कहा कि इससे ईबीसी जातियां पार्टियों से न केवल अधिक हिस्सेदारी, बल्कि इस वर्ग से मुख्यमंत्री बनाने की भी मांग करेंगी। अब तक केवल कर्पूरी ठाकुर ही थे, जो ईबीसी वर्ग से सीएम बने थे। 

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दूसरी तरफ बीजेपी ने ओबीसी और दलितों के बीच पैठ बनाने के लिए अपने हिंदुत्व के एजेंडे को फिर से धार दी है। बीजेपी संख्यात्मक रूप से कमजोर ओबीसी समूहों के बीच बढ़ती धारणा का लाभ उठा सकती है। जैसै कि समाजवादी पार्टी या आरजेडी जैसी पार्टियों का नेतृत्व केवल चंद यादवों द्वारा ही किया जाता है, जबकि छोटे दलित एवं पिछड़े अभी उपेक्षित ही हैं। बहुजन समाज की भावना से भी सिर्फ जाटवों को ही फायदा पहुंचा है। नए जातिगत गठजोड़ बनाकर और जातियों को बांटकर अपना वोट शेयर बढ़ाने के लिए बीजेपी और महागठबंधन के बीच जंग जारी है।

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