बिहार में पर्व-त्योहारों पर प्रसाद के बहाने शुरू हुई भोज की परंपरा अब भी बदस्तूर है। भोज के बहाने सियासी बिसात बिछाई जाती रही है। फर्क इतना ही आया है कि पहले दही-चूड़ा, दावत-ए-इफ्तार में फल-फूल से इतर नये जमाने के हिसाब से सियासी भोज के मेन्यू में मांस-मछली का भी समावेश हो गया है।
हाइलाइट्स
बिहार में पुरानी सियासी भोज की परंपरा
दही-चूड़ा से शुरू भोज के बदल गए मेन्यू
मछली-बात से लेकर मटन-पुलाव का प्रवेश
पटना: बंगाल की तरह ही बिहार उत्सवजीवी समाज बनता जा रहा है। धार्मिक आयोजन हों या सामाजिक, रजानीति हो या समाज सेवा, आयोजक भोज के बहाने और अवसर के इंतजार में ही रहते हैं। हाल ही खत्म हुए रमजान के महीने में बिहार में इफ्तार की दावतों की धूम रही। बिहार में मकर संक्रांति के मौके पर दही-चूड़ा भोज की परंपरा भी पुरानी है। अब तो बदलते जमाने के हिसाब से राजनीतिज्ञों ने भोज के मेन्यू भी बदल दिए हैं।
लालू के सीएम बनने पर शुरू हुई भोज की परंपरा
लालू यादव और राम विलास पासवान (अब स्वर्गीय) हर साल दही-चूड़ा भोज के आयोजन करते रहे। वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने सबसे अलग मछली-भात के भोज की परंपरा शुरू की तो जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीन रंजन उर्फ ललन सिंह ने उनसे एक कदम आगे बढ़ कर मटन-पुलाव भोज का आयोजन आरंभ किया। पंचायत चुनाव हो या असेंबली और लोकसभा का चुनाव, संभावित या घोषित प्रत्याशी भोज के जरिए ही अपनी हवा बनाते रहे हैं। कई तो जीत के बाद भी दावत देते रहे हैं। 2009 में ऐसा ही हुआ था। उस साल हुए लोकसभा चुनाव में हारने-जीतने वाले तीन प्रमुख दलों- जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने कार्यकर्ताओं-समर्थकों को दावत दी थी।
साल 2009 में चला था भोज का लंबा सिलसिला
साल 2009 में नीतीश कुमार एनडीए में थे। लोकसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद उनकी पार्टी ने कार्यकर्ताओं को भोज दिया था। नीतीश को अपना सियासी दुश्मन समझने वाले आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद पीछे कैसे छूटते। आरजेडी ने कार्यकर्ता सम्मेलन के नाम पर भोज का आयोजन किया। सीटें संतोषजनक न मिलने के बावजूद कांग्रेस ने भी कार्यकर्ताओं के लिए भोज का आयोजन किया था। हालांकि किसी भी दल ने इसे सियासी भोज नहीं स्वीकारा। किसी ने इसे सामाजिक समसता से जोड़ा तो किसी ने कार्यकर्ता सम्मेलन में आए लोगों को महज भोजन की व्यस्था बताई।
जेडीयू के भोज से कांग्रेस को लगा था झटका
साल 2018 में जेडीयू के अध्यक्ष रहे वशिष्ठ नारायण सिंह ने दही-चूड़ा भोज का आयोजन किया तो उसमें कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी अपने विधायकों के साथ शामिल हुए थे। बाद में अशोक चौधरी अपने समर्थकों के साथ जेडीयू का हिस्सा बन गए। जेडीयू में जाने से पहले और वशिष्ठ नारायण सिंह के भोज के बाद अशोक चौधरी ने भी अपने आवास पर दही-चूड़ा भोज का आयोजन किया था। उसमें वही विधायक शामिल हुए, जिन्होंने चौधरी के साथ कांग्रेस को बाद में बाय बोल दिया था।
ललन सिंह के मटन-पुलाव भोज में जुटी भारी भीड़
मुंगेर के पोलो मैदान में ललन सिंह ने मटन-भात भोज की शुरुआत 2019 में की थी। तब कहा था कि इस तरह का आयोजन हर साल वे अपने इलाके में करेंगे। दुर्भाग्यवश कोरोना के कहर से देश तबाह हो गया और दो साल भोज नहीं हो पाया था। इस बार अप्रैल में ही भोज होना था, लेकिन विधान परिषद चुनाव की वजह से इसे टाल दिया गया। मुंगेर के पोलो ग्राउंड में रविवार को उन्होंने भोज दिया। तैयारी तो 35 हजार लोगों को मटन-पुलाव खिलाने की थी, लेकिन उतनी भीड़ नहीं जुटी। हां, जितने लोग भोज में शामिल हुए, उनकी संख्या भी कम न थी। मुंगेर चूंकि ललन सिंह का चुनाव क्षेत्र है, इसलिए इसे चुनावी भोज भी माना जा रहा है।
पहले भी राजनीतिक भोज के आयोजन होते रहे हैं
बिहार में भोज के अवसर तलाशने का आलम यह है कि कभी महापुरुषों की जयंती मनाई जाती है, तो कभी होली-इफ्तार की दावत होती है। पहले राजनीतिज्ञों के ज्यादातर भोज में सिर्फ नेता ही शामिल होते थे। वहां प्रतिद्वंद्वी को पटखनी देने की योजनाएं बनती थीं। अब तो नेताओं के भोज में आम कार्यकर्ता को भी आमंत्रित किया जाता है। जैसे ललन सिंह के भोज को ही लें तो उसमें नेताओं के बजाय समर्थकों को बुलाया गया था। भोज के बहाने ही नेताओं की अपने कार्यकर्ताओं-समर्थकों से नजीदीकी बढ़ाने का मौका मिलता है।
बिहार में भोज की राजनीति का बढ़ रहा प्रचलन
बिहार में भोज की राजनीति की शुरुआत नब्बे के दशक में मानी जाती है, जब लालू यादव सीएम बने। लालू के घर छठ और होली के त्योहार बड़े धूमधाम से मनाए जाते थे। खरना का प्रसाद और होली के पकवान का शायद ही कोई नेता रहा हो, जिसने लुत्फ न उठाया हो। लालू यादव, वशिष्ठ नारायण सिंह और राम विलास पासवान का दही-चूड़ा भोज हर साल होता था। पशुपालन घोटाले में लालू के जेल जाने से उनके यहां दही-चूड़ा भोज की परंपरा बंद हो गई। नीतीश कुमार जब बिहार के सीएम बने तो उन्होंने पर्व-त्योहारों पर भोज को संस्थागत रूप दे दिया। इफ्तार और दही-चूड़ा का भोज तो आम हो गया। छोटे-बड़े सभी दलों और उनके नेताओं में इसका चलन बढ़ा। बदलते समय के साथ अब राजनीतिक भोज के मेन्यू भी बदल गए हैं।
रमजान में दावत-ए-इफ्तार की होती है सियासत
साल 2022 से तो रमजान में इफ्तार की दावत बिल्कुल राजनीतिक रंग में डूब गई है। 2022 में राबड़ी आवास पर हुई इफ्तार पार्टी सत्ता समीकरण बदलने की बुनियाद साबित हुई। एनडीए में रहते हुए नीतीश कुमार उसमें शामिल हुए और कुछ ही महीने बाद सत्ता का समीकरण बदल गया। एनडीए छोड़ नीतीश की पार्टी जेडीयू महागठबंधन में शामिल हो गई। इस बार की सियासी इफ्तार पार्टियां भी बिहार की राजनीति में चर्चा का केंद्र बनीं। नीतीश कुमार के आगमन के मद्देनजर उनके एक एमएलसी ने लालकिले की आकृति वाला पंडाल बनवाया। इसे दिल्ली में पीएम की कुर्सी से जोड़ कर देखा गया। लोजपा (आर) के नेता चिराग पासवान ने नीतीश की दावत ठुकरा दी, लेकिन वे आरजेडी की इफ्तार पार्टी में शामिल हुए। इसे लेकर भी बिहार की सियासत में कुछ दिनों तक गर्मी रही। रिपोर्ट- ओमप्रकाश अश्क
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