फिल्म रिव्‍यू: जर्सी

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फिल्म रिव्‍यू: जर्सी

फिल्म रिव्‍यू: जर्सी

कहानी
‘सौ में से कोई एक होता है जिसे कामयाबी मिलती है, लेकिन अर्जुन की कहानी उन 99 लोगों की है, जो नाकामयाब होकर भी कभी कामयाबी की उम्मीद नहीं छोड़ते।’ ये परिचय है, फिल्म ‘जर्सी’ के नायक अर्जुन तलवार का और यही बात शाहिद कपूर की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म को खास और अलग बनाती है। क्योंकि आम तौर पर हम केवल विजेताओं और कामयाब लोगों की कहानियां सुनना-सुनाना ही पसंद करते हैं, जबकि यह फिल्म एक असफल, फिल्म दुनिया की नजरों में ‘लूजर’ इंसान में हीरोइज्म ढूंढती है।

रिव्‍यू
फिल्म एक शानदार क्रिकेटर अर्जुन तलवार की है, जो अपने करियर की पीक पर अचानक खेलना छोड़ देता है। एक पति की है, जो अपनी पत्नी की नजरों में नकारा बन चुका है। एक पिता की है, जो अपने बेटे के नजरों में इज्जत कमाने के लिए जान की बाजी लगा देता है। अर्जुन तलवार (शाहिद कपूर) अपने जमाने का सबसे कामयाब रणजी खिलाड़ी हुआ करता था लेकिन 10 साल पहले वो क्रिकेट को अलविदा कहकर अपने प्यार विद्या (मृणाल ठाकुर) और बेटे (रोनित कामरा) के साथ सीधी-सिंपल जिंदगी बिताने लगता है। उसकी जिंदगी में तूफान तब आता है, जब उसे नौकरी से सस्‍पेंड कर दिया जाता है। अब वो हर तरफ से सिर्फ एक हारा हुआ इंसान है। पैसे-पैसे के लिए मोहताज। घर का पूरा जिम्मा बीवी उठाती है। इसी बीच उसका बेटा किट्टू अपने जन्मदिन पर अर्जुन से 500 रुपये के कीमत वाली इंडियन टीम की जर्सी गिफ्ट देने की जिद कर बैठता है। अर्जुन अपने मासूम बेटे की ये ख्वाहिश पूरी करने के लिए 500 रुपये जुटाने की हर कोशिश करता है। क्रिकेट ग्राउंड में पसीना बहाने से लेकर उधार मांगने और चोरी करने तक, लेकिन नाकामयाब रहता है। यहीं से अर्जुन की जिंदगी का मकसद बदल जाता है। वह सारी दुनिया की तरह अपने बेटे की नजरों में नकारा नहीं बनना चाहता, इसलिए 36 की उम्र में, जब लोग रिटायरमेंट की सोचते हैं, दोबारा क्रीज पर उतरता है।

शाहिद कपूर की यह फिल्म निर्देशक गौतम तिन्ननुरी की 2019 में इसी नाम से आई नानी स्टारर नैशनल अवॉर्ड फिल्म की हिंदी रीमेक है। यह हिंदी वर्जन भी गौतम ने खुद डायरेक्ट किया है और वे दूसरी बार भी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं। फिल्म इमोशन और ऐक्शन (क्रिकेट) दोनों ग्राउंड पर चौके-छक्के मारती है। तेलुगू के मुकाबले इस बार कुछ सीन और ज्यादा प्रभावी हैं, जैसे एक सीन में अर्जुन के कोच सर (पंकज कपूर) के सिगरेट की धुएं से उसका पूरा चेहरा भर जाता है, जो उसकी धुंधली जिंदगी का अक्स मालूम देता है। वहीं, इंटरवल से पहले जब वह दोबारा क्रिकेट के मैदान में कदम रखता है, उसकी लंबी परछाई उसकी आने वाली कामयाबी का सुंदर मेटाफर लगती है।

गौतम को अपने कलाकारों से भी भरपूर साथ मिला है। शाहिद काबिल ऐक्टर हैं, उन्होंने क्रिकेटर के बॉडी लैंग्वेज से लेकर एक फ्रस्ट्रेटेड, हारे हुए पिता की निराशा को भी बखूबी पर्दे पर उतारा है। हालांकि, कहीं-कहीं उनके इस दाढ़ी वाले पंजाबी किरदार में ‘कबीर सिंह’ की भी झलक आती है। कोच के रूप में पंकज कपूर फुल फॉर्म में हैं। शाहिद संग उनकी केमिस्ट्री देखने लायक है। वहीं, बेटे रोनित के साथ उनकी केमिस्ट्री भी अच्छी लगती है।

मृणाल ठाकुर में अपने किरदार के साथ पूरा न्याय करती हैं। वहीं, फिल्म की कमजोरी है, उसकी लंबाई और धीमी शुरुआत। फिल्म का फर्स्ट हाफ टेस्ट मैच की तरह ठुक-ठुक करके आगे बढ़ता है, जिससे कभी-कभी ऊब होती है। लगभग 3 घंटे की ये फिल्म एडिटिंग टेबल पर कसी जानी चाहिए थी। दूसरे, सेकंड हाफ के क्रिकेट मैचों में वैसा रोमांच नहीं है। आपको सिर्फ अर्जुन के चौके-छक्के दिखते हैं। दस साल बाद मैदान पर लौटे क्रिकेटर का पहले ही शॉट से ऐसे चौके-छक्के मारना सहज भी नहीं लगता। हालांकि, ये मैच के सीन फिल्माए खूबसूरती से गए हैं।

सचेत-परंपरा के संगीत की बात करें, तो ‘मेहरम’ और ‘है बलाकी’ जैसे गाने पहले से हिट हो चुके हैं। वे कहानी के साथ जाते हैं, तो अच्छे लगते हैं, तो कुल मिलाकर, यह इमोशनल स्पोर्ट ड्रामा फिल्म परिवार के साथ देखी जा सकती है।

क्यों देखें: पिता-बेटे के रिश्ते पर बनी ये फिल्म शाहिद कपूर की बेहतरीन परफॉर्मेंस के लिए देखी जा सकती है।



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