फिल्मों को फ्लॉप होने से बचाने के लिए बॉलीवुडवालों की नई चाल? नॉस्टैल्जिया के फेर में कर रहे कांड!
‘जुबली’ (Jubliee) की कहानी तो आपको नहीं बताएंगे यहां लेकिन ये जरूर बताएंगे कि उसको बहुत कम ही लोग देख सकते हैं। क्योंकि जो दौर उसमें दिखाया गया है वो एकदम पुराने जमाने का है। किसी नामी फिल्ममेकर और उसकी पत्नी के इर्द-गिर्द कहानी को बुना गया है। उस समय के बड़े-बड़े टेप। चिपके बाल। मुंह में सिगार। अंधाघुप्प कमरे। डिम लाइट। ब्लैक एंड व्हाइट। बेलबॉटम। बग्घी। वो विंटेज कार। मतलब जो-जो उस दौर से कॉपी किया जा सकता था। और दर्शकों को अपनी तरफ अट्रैक्ट किया जा सकता था। वो सब ‘जुबली’ में देखने को मिलेगा।
बॉलीवुड का नया पैंतरा हो रहा फेल!
दिवंगत एक्टर इरफान खान के बेटे बाबिल (Babil Khan) की जो फिल्म आई थी ‘कला’ (Qala), उसमें भी ठीक ऐसा ही देखने को मिला था। वही अंधेरों से सनी पूरी फिल्म। रोशनी के नाम पर एक डिम-सा लालटेन या बल्ब। जिसमें चेहरा नजर आ जाए। वो ही गनीमत होती थी। अनुभव सिन्हा की ‘भीड़’ तो पूरी ही ब्लैक एंड व्हाइट रही। ऐसे में अब यही लग रहा है कि जैसे कपड़ों का पुराना फैशन लौट रहा है। वैसे ही फिल्मों का भी पुराना सबकुछ वापस आ रहा है। ऐसा लग रहा है कि डायरेक्टर और प्रोड्यूसर दर्शकों को उन दिनों में खींचकर ले जाना चाहते हैं और ये साबित करना चाहते हैं कि वो कुछ नया कर रहे हैं। जबकि ऐसा कतई नहीं है।
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दर्शकों को मेकर्स का लॉलीपॉप
सवाल ये है कि क्या अब मेकर्स ऐसा करके अपनी फिल्मों को चलाना चाह रहे हैं। ‘भीड़’ (Bheed) तो फ्लॉप रही और बाकी की दो ओटीटी पर रहीं तो क्रिटिक्स का ठीक-ठाक ही रिस्पॉन्स मिला। जब उस दौर में फिल्में बनती थीं तो मॉर्डनाइजेशन दिखाया जाता था। सब हाईलेवल का होता था। कलरफुल चीजें दिखती थीं। जबकि उस समय टेक्नोलॉजी समेत अन्य चीजों की कमी होती थी। अब जब सबकुछ है। 5जी का जमाना है। जहां विजुअल्स, 4डी 7डी तक का जमाना है। वहां मेकर्स वही उधेड़बुन में लगे हुए हैं कि ये नहीं चला तो शायद वो चल जाएगा। किसी पर अडिग नहीं। जो मिले सब लपक लो। भले वो उनकी ही विश्वसनीयता खत्म कर दे। लेकिन अगर ये इसी ढर्रे पर चलते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब बॉलीवुड पर दर्शक ताला लगवा देंगे। इसलिए समय है। सुधर जाओ। कुछ दिमाग लगाओ। कुछ अच्छा करो।