पीएम मोदी की बराबरी करने में निपट गए इमरान, भारतीय विदेश नीति के सामने कैसे सुपर फ्लॉप हुआ पाकिस्‍तान?

141
पीएम मोदी की बराबरी करने में निपट गए इमरान, भारतीय विदेश नीति के सामने कैसे सुपर फ्लॉप हुआ पाकिस्‍तान?

पीएम मोदी की बराबरी करने में निपट गए इमरान, भारतीय विदेश नीति के सामने कैसे सुपर फ्लॉप हुआ पाकिस्‍तान?

Imran Khan Vs Narendra Modi foreign policy: रशिया टुडे को इंटरव्‍यू देते हुए इमरान खान (Imran Khan) ने एक ख्‍वाहिश जाहिर की थी। उन्‍होंने कहा था कि वह टीवी पर नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के साथ डिबेट करना चाहते हैं। यह उनकी दिली हसरत है। अफसोस! उनकी यह हसरत हसरत ही रह गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बराबरी करते-करते वह अपनी जगह से ही निपट गए। जाते-जाते भले ही इमरान खान भारत और उसकी विदेश नीति का बखान कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अपने कार्यकाल के दौरान वह ज्‍यादातर समय पीएम मोदी और हिंदुस्‍तान के खिलाफ जहर उगलते रहे। वह हर साजिश रचते रहे जिससे भारत को नुकसान हो और उन्‍हें हंसने मौका मिले। हालांकि, यह नौबत नहीं आई। इमरान ने भारत को ‘दुश्‍मन’ देश (Hostile Country) की तरह ट्रीट किया और उसे फंसाने के लिए जाल बुनते रहे। यह अलग बात है कि अंत में वह अपने ही जाल में फंस गए। यह बात हर क्षेत्र के लिए कही जा सकती है। राजनीतिक, आर्थिक से लेकर रणनीतिक क्षेत्र तक उन्‍होंने भारत को गड्ढे में गिराने की नाकाम कोशिश की। दुनिया के हर मंच पर उन्‍होंने भारत को बदनाम करने की तकरीरें कीं। लेकिन, सब की सब सुपर-डुपर फ्लॉप (Super flop foreign policy of Imran) साबित हुईं। वहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने बिना इमरान और पाकिस्‍तान का नाम लिए ढेर कर दिया।

शनिवार की दरम्‍यानी रात इमरान खान के लिए भारी थी। ‘कप्‍तान’ के खिलाफ नेशनल असेंबली में अविश्‍वास प्रस्‍ताव को हरी झंडी दे दी गई। इसके बाद पाकिस्‍तान के पीएम पद से उनके जाने का रास्‍ता भी साफ हो गया। रात को ही उन्‍होंने प्रधानमंत्री आवास से अपना बोरिया-बिस्‍तर समेट लिया। जाते-जाते वह अपनी अवाम को भारत से नसीहत लेने की बार-बार सीख भी देते रहे। इमरान ने खुलकर मान लिया कि भारत पाकिस्‍तान से कहीं अव्‍वल देश है।

इमरान के कबूलनामे का मतलब
पाकिस्‍तान के पीएम का यह कबूलनामा हर लिहाज से सही भी है। इसको कई कसौटियों पर तौल सकते हैं। शुरुआत उन राजनीतिक स्थितियों से करते हैं जब इमरान ने पाकिस्‍तान की कमान अपने हाथों में ली थी। वह लोगों को नए पाकिस्‍तान का सपना दिखाकर पीएम पद की कुर्सी पर बैठे थे। उन्‍होंने जनता को गरीबी और गुरबत से बाहर निकालने का वादा किया था। देश का कर्ज उतार देने की बात कही थी। आर्थिक अपराधियों को जेल में ठूस देने दम भरा था। यह और बात है कि उनके कार्यकाल में इनमें से कोई काम नहीं हुआ। उलटा लोग महंगाई से त्राहि-त्राहि करने लगे। कर्ज घटने की जगह बढ़ गया। आर्थिक अपराधियों को जेल में डालने के बजाय वह चुनचुनकर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से हिसाब चुकता करने लगे।

भारत से अच्‍छे रिश्‍ते बनाने में उन्‍होंने कोई गंभीरता नहीं दिखाई। अलबत्‍ता, पुलवामा के जवाब में बालाकोट के हमले के बाद दोनों देशों के रिश्‍ते बिगड़ते ही चले गए। पुलवामा हमले के बाद ही भारत ने ठान ली थी कि वह पाकिस्‍तान को अलग-थलग कर देगा। भारतीय डिप्‍लोमेसी की जीत का सबूत तो उसी समय मिल गया था जब पाकिस्‍तान को हमारे शूरवीर अभिनंदन को दो दिनों के भीतर लौटाना पड़ा था। इसी के साथ दोनों देशों के शीर्ष नेताओं में बातचीत का रास्‍ता भी बंद हो गया। इसे दोनों देशों के रिश्‍तों के बीच बड़े टर्निंग पॉइंट के तौर पर भी देख सकते हैं।

इस घटना ने सिर्फ बातचीत के चैनल नहीं बंद किए, बल्कि दोनों देशों में कड़वाहट भी बढ़ाई। पाकिस्‍तान भारत को ‘होस्‍टाइल नेशन’ यानी दुश्‍मन देश की तरह देखने लगा। इसका असर दोनों के बीच होने वाले कारोबारी रिश्‍तों पर भी पड़ा। इस दौरान दोनों के कारोबार में तेजी से गिरावट आई। भारत से दुश्‍मनी बांधकर पाकिस्‍तान अपनी हर पॉलिसी बनाने लगा। चीन के साथ उसने अपनी दोस्‍ती बढ़ा ली। उसके सामने पाकिस्‍तान बिछ गया। रूस से दोस्‍ती बढ़ाने की कवायद के पीछे भी मंशा भारत को घेरने की ही थी।

बदलती दुनिया को नहीं भांप पाए इमरान
हालांकि, यह समय पहले जैसा नहीं था। दुनिया बदल चुकी थी। चीन और अमेरिका में ट्रेड वॉर छिड़ चुका था। पाकिस्‍तान का चीन के लिए इतना लगाव सुपरपावर अमेरिका को अखर रहा था। अफगानिस्‍तान में इमरान ने जिस तरह की दोगुली पॉलिसी अपनाई उसका भी अमेरिका को एहसास हो चुका था। वहीं, अमेरिका की चीन को एशिया प्रशांत में चेक करने की चाहत भारत को उसके करीब ले गई। दोनों देशों के विचार कई मसलों पर काफी मिलते जुलते थे। चीन के साथ टेंशन ने भी भारत की अमेरिका साथ करीबी को बढ़ाया। अमेरिका को भी साफ दिख गया है कि क्षेत्र में अगर कोई चीन को टक्‍कर दे सकता है तो वह सिर्फ भारत ही है।

इसके बाद इमरान ने ‘मुस्लिम’ पैंतरा चला। उन्‍होंने सऊदी अरब और संयुक्‍त अरब अमीरात (यूएई) समेत अन्‍य मुस्लिम देशों को साथ आने की अपील की। इमरान ने मुस्लिमों का चौधरी बनने की कोशिश की। सऊदी अरब और संयुक्‍त अरब अमीरात जैसे देश पाकिस्‍तान के रणनीतिक हिस्‍सेदार हैं। लेकिन, साथ ही वे भारत के पारंपरिक दोस्‍त भी हैं। ‘मुस्लिम’ पैंतरा चलने के बीच इमरान की मंशा सिर्फ जम्‍मू-कश्‍मीर मसले को हवा देना था। जम्‍मू-कश्‍मीर का विशेष दर्जा खत्‍म करने के बाद संयुक्‍त राष्‍ट्र समेत हर मंच पर इमरान ने यह मुद्दा उठाया। लेकिन, किसी का भी समर्थन नहीं बंटोर सके। इसके लिए पीएम मोदी की विदेश नीति को क्रेडिट जाता है। उन्‍होंने यूएई, ईरान, इजरायल और सऊदी अरब से रिश्‍तों को और मजबूत किया। हर मौके पर ये देश नए पाकिस्‍तान के बजाय नए हिंदुस्‍तान के पाले में खड़े दिखाई दिए।

भारत को घेरने के ही चक्‍कर में जब रूस के साथ इमरान ने घनिष्‍ठता बढ़ाने की कोशिश की तो उसी समय यूक्रेन हमला हुआ। इस नाजुक मौके पर भारत ने अपने दोस्‍त रूस को अकेला नहीं छोड़ा। लेकिन, उसने अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ बने अच्‍छे रिश्‍तों को भी ताक पर नहीं रख दिया। वहीं, इमरान खान यहां पूरी तरह फंस गए। चीन और रूस की खातिर उन्‍होंने अपने बेहद पुराने दोस्‍त की दुश्‍मनी मोल ले ली। और तो और इमरान ने अमेरिका के साथ रिश्‍तों के सुधरने की भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। जिस तरह से उन्‍होंने अपनी सरकार गिरने के पीछे अमेरिकी साजिश होने की बात कह दी, उससे दोनों देशों के रिश्‍ते अब शायद ही कभी पुराने जैसे हो पाएं।



Source link