पलकी शर्मा का कॉलम: दूसरे देशों में दखलंदाजी की अमेरिका की पुरानी आदत है h3>
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3 दिन पहले
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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost
कुख्यात ‘विदेशी हाथ’ फिर से सुर्खियों में है! ट्रम्प ने भारत को यूएसएआईडी की 21 मिलियन डॉलर की फंडिंग रद्द कर दी। इस पैसे का इस्तेमाल मतदान को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा था। ट्रम्प ने कहा कि बाइडेन सरकार भारतीय चुनावों में हस्तक्षेप कर रही थी। भाजपा और कांग्रेस एक-दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी मढ़ रहे हैं।
इस बीच, एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह पैसा भारत को दिया ही नहीं गया था। यह तो बांग्लादेश गया था। वहीं विदेश मंत्री जयशंकर का कहना है कि यूएसएआईडी को भारत में ‘सद्भावनापूर्वक’ अनुमति दी गई थी। वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यूएसएआईडी से जुड़ी सात परियोजनाओं को लागू किया गया है, लेकिन वे मतदान को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं।
जो भी हो, ट्रम्प इस पूरी व्यवस्था को खत्म कर रहे हैं। उन्होंने यूएसएआईडी के 2,000 कर्मचारियों को निकाल दिया है और बाकी को छुट्टी पर भेज दिया है। लेकिन असली कहानी कुछ और है। यूएसएआईडी की स्थापना 1961 में शीत युद्ध के दौरान हुई थी। इसका उद्देश्य ‘सहायता’ को हथियार बनाते हुए कम्युनिस्टों को रोकना था। विदेशों में दखल देने का अमेरिकियों का इतिहास रहा है।
हंगरी, क्यूबा, ईरान, ब्राजील, बोलीविया- इन सभी ने इस एजेंसी पर उनके अंदरूनी मामलों में दखल देने का आरोप लगाया है। 2013 में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा, ‘विदेशी सहायता मुफ्त उपहार नहीं। यह दान भी नहीं है। यह तो निवेश है।’ वे सही थे।
विदेशी सहायता दान-पुण्य के लिए नहीं होती, दुनिया पर अमेरिका की देनदारियां हैं। अमेरिका ने आज तक 29 देशों पर धावा बोला है या बमबारी की है। 9/11 के बाद अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध शुरू किया और इसमें अब तक 45 लाख से अधिक लोग मारे गए हैं।
1960 और 70 के दशक में अमेरिका ने लाओस में कम्युनिस्ट सरकार गिराने के लिए बमबारी करके उन्हें पाषाण-युग में वापस ले जाने की कोशिश की थी। अमेरिका ने लाओस पर दो मिलियन टन बम गिराए थे। यह नाजी जर्मनी पर उनके द्वारा गिराए बमों से भी ज्यादा है।
अमेरिका ने सामूहिक विनाश के हथियारों को खत्म करने के नाम पर इराक को तबाह कर दिया, जबकि वो हथियार वहां से कभी नहीं मिले। अफगानिस्तान में अपनी दखलंदाजी से उन्होंने हालात को पहले से भी बदतर बना दिया। इसलिए इन देशों को अमेरिका की कोई भी सहायता वास्तव में खैरात नहीं है। वह अमेरिका की जिम्मेदारी है! ट्रम्प इस जिम्मेदारी से बचने के लिए घरेलू राजनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं।
ऐसे में भारत क्या करे? सबसे पहले तो हम सही सवाल पूछें। यहां मसला यह नहीं है कि अमेरिकी मदद से किसे फायदा हुआ। सवाल यह है कि हस्तक्षेप किसने किया है। दुर्भाग्य से चुनावों में दखलंदाजी राजनीतिक दुनिया की सच्चाई है।
आज आप महज एक क्लिक से प्रोपगेंडा-बॉट की फौज बना सकते हैं, विरोधियों के खिलाफ झूठी खबरें फैला सकते हैं और अपनी पार्टी के नैरेटिव को बढ़ा-चढ़ाकर बता सकते हैं। बहुत से देश ऐसा करते हैं। लेकिन अमेरिका तो इसमें माहिर है।
सीआईए दुनियाभर में इस तरह के ऑपरेशंस का नेतृत्व करती है। अमेरिका पर विभिन्न अधिकारों से जुड़े संगठनों, मीडिया समूहों, थिंक टैंकों और शोध संगठनों जैसी दूसरों के मामलों में दखल देने वाली एजेंसियों का जाल बिछाने का आरोप है। वे रिपोर्टों और रैंकिंग्स के जरिए भी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं।
और इनमें से बहुत-से मामलों को यूएसएआईडी द्वारा वित्तपोषित किया जाता है। यह बहुत सारे समूहों से सम्बद्ध है। जैसे कि हेनरी लूस फाउंडेशन- जिसने 2020 में ‘हिंदू बहुसंख्यकवाद के दौर में भारतीय मुसलमान’ नामक रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए 3,85,000 डॉलर दिए थे।
उन्होंने ‘म्यांमार, इंडोनेशिया और भारत में धार्मिक हिंसा का मुकाबला’ शीर्षक वाली रिपोर्ट के लिए ह्यूमन राइट्स वॉच को भी 3,00,000 डॉलर दिए। वे सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से भी जुड़े हैं, जिसका सम्बंध धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग से है। ये वही आयोग है, जो 2020 से ही भारत को ब्लैकलिस्ट करता आ रहा है।
ट्रम्प से उम्मीद न करें। उन्हें हमारे चुनावों की परवाह नहीं। वे अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इस पर कार्रवाई हमें अपने घर में ही करनी होगी। राजनीतिक दलों को अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है।
यूएसएआईडी ने 130 देशों में अपनी परियोजनाएं चलाई हैं। ट्रम्प दुनिया की मदद के लिए नहीं, पैसे बचाने के लिए इसे खत्म कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी दखलंदाजी आगे भी किसी न किसी रूप में सामने आती रहेगी।
आज आप महज एक क्लिक से प्रोपगेंडा-बॉट की फौज बना सकते हैं, विरोधियों के खिलाफ झूठी खबरें फैला सकते हैं और अपने नैरेटिव को बढ़ा-चढ़ाकर बता सकते हैं। बहुत से देश ऐसा करते हैं। पर अमेरिका तो इसमें माहिर है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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कुख्यात ‘विदेशी हाथ’ फिर से सुर्खियों में है! ट्रम्प ने भारत को यूएसएआईडी की 21 मिलियन डॉलर की फंडिंग रद्द कर दी। इस पैसे का इस्तेमाल मतदान को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा था। ट्रम्प ने कहा कि बाइडेन सरकार भारतीय चुनावों में हस्तक्षेप कर रही थी। भाजपा और कांग्रेस एक-दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी मढ़ रहे हैं।
इस बीच, एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह पैसा भारत को दिया ही नहीं गया था। यह तो बांग्लादेश गया था। वहीं विदेश मंत्री जयशंकर का कहना है कि यूएसएआईडी को भारत में ‘सद्भावनापूर्वक’ अनुमति दी गई थी। वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यूएसएआईडी से जुड़ी सात परियोजनाओं को लागू किया गया है, लेकिन वे मतदान को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं।
जो भी हो, ट्रम्प इस पूरी व्यवस्था को खत्म कर रहे हैं। उन्होंने यूएसएआईडी के 2,000 कर्मचारियों को निकाल दिया है और बाकी को छुट्टी पर भेज दिया है। लेकिन असली कहानी कुछ और है। यूएसएआईडी की स्थापना 1961 में शीत युद्ध के दौरान हुई थी। इसका उद्देश्य ‘सहायता’ को हथियार बनाते हुए कम्युनिस्टों को रोकना था। विदेशों में दखल देने का अमेरिकियों का इतिहास रहा है।
हंगरी, क्यूबा, ईरान, ब्राजील, बोलीविया- इन सभी ने इस एजेंसी पर उनके अंदरूनी मामलों में दखल देने का आरोप लगाया है। 2013 में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा, ‘विदेशी सहायता मुफ्त उपहार नहीं। यह दान भी नहीं है। यह तो निवेश है।’ वे सही थे।
विदेशी सहायता दान-पुण्य के लिए नहीं होती, दुनिया पर अमेरिका की देनदारियां हैं। अमेरिका ने आज तक 29 देशों पर धावा बोला है या बमबारी की है। 9/11 के बाद अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध शुरू किया और इसमें अब तक 45 लाख से अधिक लोग मारे गए हैं।
1960 और 70 के दशक में अमेरिका ने लाओस में कम्युनिस्ट सरकार गिराने के लिए बमबारी करके उन्हें पाषाण-युग में वापस ले जाने की कोशिश की थी। अमेरिका ने लाओस पर दो मिलियन टन बम गिराए थे। यह नाजी जर्मनी पर उनके द्वारा गिराए बमों से भी ज्यादा है।
अमेरिका ने सामूहिक विनाश के हथियारों को खत्म करने के नाम पर इराक को तबाह कर दिया, जबकि वो हथियार वहां से कभी नहीं मिले। अफगानिस्तान में अपनी दखलंदाजी से उन्होंने हालात को पहले से भी बदतर बना दिया। इसलिए इन देशों को अमेरिका की कोई भी सहायता वास्तव में खैरात नहीं है। वह अमेरिका की जिम्मेदारी है! ट्रम्प इस जिम्मेदारी से बचने के लिए घरेलू राजनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं।
ऐसे में भारत क्या करे? सबसे पहले तो हम सही सवाल पूछें। यहां मसला यह नहीं है कि अमेरिकी मदद से किसे फायदा हुआ। सवाल यह है कि हस्तक्षेप किसने किया है। दुर्भाग्य से चुनावों में दखलंदाजी राजनीतिक दुनिया की सच्चाई है।
आज आप महज एक क्लिक से प्रोपगेंडा-बॉट की फौज बना सकते हैं, विरोधियों के खिलाफ झूठी खबरें फैला सकते हैं और अपनी पार्टी के नैरेटिव को बढ़ा-चढ़ाकर बता सकते हैं। बहुत से देश ऐसा करते हैं। लेकिन अमेरिका तो इसमें माहिर है।
सीआईए दुनियाभर में इस तरह के ऑपरेशंस का नेतृत्व करती है। अमेरिका पर विभिन्न अधिकारों से जुड़े संगठनों, मीडिया समूहों, थिंक टैंकों और शोध संगठनों जैसी दूसरों के मामलों में दखल देने वाली एजेंसियों का जाल बिछाने का आरोप है। वे रिपोर्टों और रैंकिंग्स के जरिए भी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं।
और इनमें से बहुत-से मामलों को यूएसएआईडी द्वारा वित्तपोषित किया जाता है। यह बहुत सारे समूहों से सम्बद्ध है। जैसे कि हेनरी लूस फाउंडेशन- जिसने 2020 में ‘हिंदू बहुसंख्यकवाद के दौर में भारतीय मुसलमान’ नामक रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए 3,85,000 डॉलर दिए थे।
उन्होंने ‘म्यांमार, इंडोनेशिया और भारत में धार्मिक हिंसा का मुकाबला’ शीर्षक वाली रिपोर्ट के लिए ह्यूमन राइट्स वॉच को भी 3,00,000 डॉलर दिए। वे सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से भी जुड़े हैं, जिसका सम्बंध धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग से है। ये वही आयोग है, जो 2020 से ही भारत को ब्लैकलिस्ट करता आ रहा है।
ट्रम्प से उम्मीद न करें। उन्हें हमारे चुनावों की परवाह नहीं। वे अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इस पर कार्रवाई हमें अपने घर में ही करनी होगी। राजनीतिक दलों को अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है।
यूएसएआईडी ने 130 देशों में अपनी परियोजनाएं चलाई हैं। ट्रम्प दुनिया की मदद के लिए नहीं, पैसे बचाने के लिए इसे खत्म कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी दखलंदाजी आगे भी किसी न किसी रूप में सामने आती रहेगी।
आज आप महज एक क्लिक से प्रोपगेंडा-बॉट की फौज बना सकते हैं, विरोधियों के खिलाफ झूठी खबरें फैला सकते हैं और अपने नैरेटिव को बढ़ा-चढ़ाकर बता सकते हैं। बहुत से देश ऐसा करते हैं। पर अमेरिका तो इसमें माहिर है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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