परि‘वार’ : चाचा शिवपाल से विवाद खत्म करने के मूड में नहीं हैं अखिलेश, शिवपाल को दी अपनी पार्टी मजबूत करने की सलाह | Akhilesh will not end the dispute with uncle Shivpal | Patrika News h3>
चाचा-भतीजे का समझौता चल नहीं पाया साल 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही अलग पार्टी बनाकर अखिलेश यादव को चुनौती देने वाले शिवपाल की सपा में वापसी की कोई कोशिश अब तक परवान नहीं चढ़ सकी है। हाल में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले चाचा-भतीजा एक मंच पर आए तो लेकिन यह समझौता चल नहीं पाया। चुनाव के बाद कभी नाराजगी, कभी मीटिंग से दूरी तो कभी आजम की चिंता दिखा शिवपाल अखिलेश पर दबाव बनाने पर लगे हैं, लेकिन अब तक यह बेअसर ही साबित हुआ है।
अखिलेश पर लगाया था एहसान फरामोशी का आरोप ईद के दिन शिवपाल यादव ने ट्वीट कर बिना नाम लिए अखिलेश यादव पर एहसान फरामोशी का आरोप लगाया था। इस पर सपा के कई समर्थकों ने शिवपाल को दिसंबर 2016 की वह चिट्ठी याद दिलाई, जिसे जारी कर तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव व राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव को पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया गया था। मुलायम की इस चिट्ठी के सूत्रधार शिवपाल व अमर सिंह बताए गए थे। अखिलेश आज तक इस घटना को भूल नहीं पाए हैं।
सपा को नुकसान पहुंचाने का काम किया 2019 में वह फिरोजाबाद से लोकसभा चुनाव लड़े जो कि समाजवादियों का गढ़ था। वहां, उन्होंने सपा उम्मीदवार को तो हरवा दिया, लेकिन, उनकी खुद की भी जमानत जब्त हो गई। सपा को नुकसान पहुंचाने के के अलावा उनकी कोई जमीन पकड़ नहीं दिखी। ऐसे में जिन समर्थकों के उनके साथ सहानुभूति थी वह भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है। इशारों में अखिलेश भी उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम कह चुके हैं। ऐसे में शिवपाल को जोड़ने या मनाने से कोई जमीनी फर्क नहीं पड़ने वाला है।
खुद भरोसे के संकट से जूझ रहे शिवपाल अखिलेश पर धोखेबाजी का आरोप लगाने वाले शिवपाल यादव इस समय खुद भरोसे के संकट से जूझ रहे हैं। उनकी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के एक पूर्व पदाधिकारी का कहना है कि उनके सपा से बाहर होने के बाद कई नेताओं ने उनका साथ दिया, पार्टी में जुड़े, खून-पसीना बहाया। लेकिन, विधानसभा चुनाव में वह हमारी आवाज नहीं बन पाए। खुद सपा से जुड़कर चुनाव लड़ गए और हम कहीं के नहीं रहे।
प्रसपा के लोगों का भी टूट रहा भरोसा ऐसे में जब वह दोबारा संगठन खड़ा करने का दावा कर रहे हैं, तो उनके साथ कोई किसी भरोसे से जुड़ेगा ? वह खुद अपनी सियासत का सिरा नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं तो दूसरों का भविष्य कैसे तय कर पाएंगे? शिवपाल को लेकर यही सवाल सपा के भीतर से भी है। एक नेता का कहना है कि जब सत्ता की संभावनाएं देखी तो सपा की हर शर्त पर सहमत हो गए। चुनाव में नतीजे अनुकूल नहीं रहे, तो फिर मोर्चा खोलने लगे। ऐसे में जब वह साफ रहकर भी खिलाफ हैं तो, उनसे सीधी दूरी की ही रणनीति बेहतर है।
चाचा-भतीजे का समझौता चल नहीं पाया साल 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही अलग पार्टी बनाकर अखिलेश यादव को चुनौती देने वाले शिवपाल की सपा में वापसी की कोई कोशिश अब तक परवान नहीं चढ़ सकी है। हाल में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले चाचा-भतीजा एक मंच पर आए तो लेकिन यह समझौता चल नहीं पाया। चुनाव के बाद कभी नाराजगी, कभी मीटिंग से दूरी तो कभी आजम की चिंता दिखा शिवपाल अखिलेश पर दबाव बनाने पर लगे हैं, लेकिन अब तक यह बेअसर ही साबित हुआ है।
अखिलेश पर लगाया था एहसान फरामोशी का आरोप ईद के दिन शिवपाल यादव ने ट्वीट कर बिना नाम लिए अखिलेश यादव पर एहसान फरामोशी का आरोप लगाया था। इस पर सपा के कई समर्थकों ने शिवपाल को दिसंबर 2016 की वह चिट्ठी याद दिलाई, जिसे जारी कर तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव व राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव को पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया गया था। मुलायम की इस चिट्ठी के सूत्रधार शिवपाल व अमर सिंह बताए गए थे। अखिलेश आज तक इस घटना को भूल नहीं पाए हैं।
सपा को नुकसान पहुंचाने का काम किया 2019 में वह फिरोजाबाद से लोकसभा चुनाव लड़े जो कि समाजवादियों का गढ़ था। वहां, उन्होंने सपा उम्मीदवार को तो हरवा दिया, लेकिन, उनकी खुद की भी जमानत जब्त हो गई। सपा को नुकसान पहुंचाने के के अलावा उनकी कोई जमीन पकड़ नहीं दिखी। ऐसे में जिन समर्थकों के उनके साथ सहानुभूति थी वह भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है। इशारों में अखिलेश भी उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम कह चुके हैं। ऐसे में शिवपाल को जोड़ने या मनाने से कोई जमीनी फर्क नहीं पड़ने वाला है।
खुद भरोसे के संकट से जूझ रहे शिवपाल अखिलेश पर धोखेबाजी का आरोप लगाने वाले शिवपाल यादव इस समय खुद भरोसे के संकट से जूझ रहे हैं। उनकी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के एक पूर्व पदाधिकारी का कहना है कि उनके सपा से बाहर होने के बाद कई नेताओं ने उनका साथ दिया, पार्टी में जुड़े, खून-पसीना बहाया। लेकिन, विधानसभा चुनाव में वह हमारी आवाज नहीं बन पाए। खुद सपा से जुड़कर चुनाव लड़ गए और हम कहीं के नहीं रहे।
प्रसपा के लोगों का भी टूट रहा भरोसा ऐसे में जब वह दोबारा संगठन खड़ा करने का दावा कर रहे हैं, तो उनके साथ कोई किसी भरोसे से जुड़ेगा ? वह खुद अपनी सियासत का सिरा नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं तो दूसरों का भविष्य कैसे तय कर पाएंगे? शिवपाल को लेकर यही सवाल सपा के भीतर से भी है। एक नेता का कहना है कि जब सत्ता की संभावनाएं देखी तो सपा की हर शर्त पर सहमत हो गए। चुनाव में नतीजे अनुकूल नहीं रहे, तो फिर मोर्चा खोलने लगे। ऐसे में जब वह साफ रहकर भी खिलाफ हैं तो, उनसे सीधी दूरी की ही रणनीति बेहतर है।