‘पंडित मर्द भाग जाएं, औरतें रहें’: कार में गैंगरेप फिर आरा मशीन से जिंदा काटा, चावल के ड्रम में मारी गोली; कैसे खदेड़े गए कश्मीरी पंडित h3>
तारीख- 25 जून 1990 जगह- बांदीपोरा, कश्मीर 28 साल की शादीशुदा महिला गिरिजा टिक्कू एक सरकारी स्कूल में लैब असिस्टेंट थीं। घाटी में हालात बिगड़ने पर वो और उनका परिवार जम्मू पलायन कर चुका था। घर में पैसों की सख्त जरूरत थी, इसलिए एक दिन वो अपनी सैलरी लेने
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बांदीपोरा में गिरिजा अपनी पहचान के एक मुस्लिम परिवार के घर में ठहरी हुई थीं। अचानक उस घर में कुछ हथियारबंद लोग घुस आए। उन्होंने गिरिजा की आंख पर पट्टी बांधी और उसे कार में बिठा ले गए। सभी ने उनका सामूहिक बलात्कार किया। बदहवास गिरिजा उनमें से एक शख्स की आवाज पहचान गईं और उसे नाम से पुकारा।
पहचान उजागर होने के डर से बलात्कारियों ने गिरिजा को कार से निकाला और पास की आरा मशीन में ले गए। आरी से गिरिजा के दो टुकड़े कर दिए और शव वहीं फेक दिया। पोस्टमॉर्टम में पता चला कि काटे जाते वक्त गिरिजा की सांसें चल रही थीं। 1990 के दशक का कश्मीर ऐसे ही खूनी किस्सों से सना हुआ था।
‘मैं कश्मीर हूं’ सीरीज के चौथे एपिसोड में आज घाटी में आतंकवाद बढ़ने और उसके सबसे बड़े शिकार कश्मीरी पंडितों की कहानी…
सितंबर 1982 में कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला का निधन हो गया। उसके बाद हुए जम्मू-कश्मीर के चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बहुमत हासिल किया और शेख के बेटे फारूक अब्दुल्ला CM बने, लेकिन 1984 में एक बड़ा खेल हुआ।
उस वक्त के राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा ने अपनी किताब ‘माय फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में लिखते हैं, ‘1 जुलाई 1984 की देर शाम फारूक के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने 12 विधायकों के साथ फारूक की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वो कांग्रेस (आई) के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहते थे।’
अगली सुबह राज्यपाल ने फारूक की सरकार बर्खास्त कर दी। 2 जुलाई की शाम ही कांग्रेस और अन्य के समर्थन से गुलाम मोहम्मद शाह ने जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। अगले ढाई साल जम्मू-कश्मीर में सबसे भ्रष्ट सरकार का दौर रहा। शाह को कश्मीरी जनता का तीखा विरोध झेलना पड़ा। 7 मार्च 1986 को जीएम शाह की सरकार बर्खास्त कर दी गई।
मार्च 1987 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव हुए। इसमें राजीव गांधी की कांग्रेस और फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने गठबंधन किया। दूसरी तरफ गिलानी की जमात-ए-इस्लामी जैसी एक दर्जन कट्टरपंथी पार्टियों ने मिलकर मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट, यानी MUF बनाया।
एक चुनावी सभा को संबोधित करता यूसुफ शाह। बाद में इसी ने हिजबुल मुजाहिदीन नाम का आतंकी संगठन बनाया।
इस चुनाव में धांधली की हर सीमा पार हो गई। लेखक और राजनीतिक विश्लेषक सुमंत्र बोस अपनी किताब ‘कश्मीर: रूट्स ऑफ कॉन्फ्लिक्ट, पाथ टु पीस’ में लिखते हैं कि वोटरों को उनके घर भेज दिया गया था। बूथ कैप्चरिंग की गई। सारे मतपत्रों पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की मुहर लगा दी गई। इसमें सरकार और उनकी पूरी मशीनरी काम कर रही थी।
नतीजों में भी हेरा-फेरी हुई। लेखक अशोक कुमार पांडेय अपनी किताब ‘कश्मीरनामा’ में इसकी एक बानगी देते हैं। श्रीनगर की आमिर कदल सीट से मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का यूसुफ शाह उम्मीदवार था। उसके पोलिंग एजेंट का नाम यासीन मलिक था। बेमिना डिग्री कॉलेज में मतगणना शुरू हुई। रुझानों में यूसुफ बड़े अंतर से जीत रहा था। उसके प्रतिद्वंदी नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोइउद्दीन शाह निराश होकर घर चले गए।
थोड़ी देर बाद मोइउद्दीन शाह को मतगणना अधिकारी ने घर से बुलाया और विजयी घोषित कर दिया। ऐसा कई जगह हुआ। लोग सड़क पर उतर आए। इसके बाद सरकार ने मोहम्मद यूसुफ शाह और उसके चुनाव प्रबंधक यासीन मलिक को गिरफ्तार कर लिया। इन चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन को जीत हासिल हुई।
मोहम्मद यूसुफ शाह दो चुनाव हार चुका था। तीसरी बार धांधली करके जीता चुनाव हरवा दिया गया। 20 महीने बाद जेल से छूटने के बाद यूसुफ शाह ने राजनीति छोड़ दी और सीमा पार पाकिस्तान चला गया। यही यूसुफ शाह आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बना। उसके पोलिंग एजेंट रहे यासीन मलिक ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट नाम का आतंकी संगठन बनाया।
कश्मीर एक्सपर्ट क्रिस्टोफर स्नेडेन अपनी किताब ‘अंडरस्टैंड कश्मीर एंड कश्मीरी’ में लिखते हैं कि इस चुनाव के बाद सिर्फ यूसुफ शाह ही नहीं, तमाम निराश युवा कश्मीरी मुसलमान बॉर्डर पार करके PoK चले गए। वहां पाकिस्तानी सेना और ISI ने उन्हें हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी। जब वे लौटे तो उनके हाथ में आधुनिक हथियार थे। सपोर्ट करने के लिए पैसा था। पाकिस्तान ने ये सब इसलिए किया था कि वो इन आतंकियों के भरोसे भारत के खिलाफ लड़ सके।
इन चुनावों में पर्यवेक्षक रहे जी.एन. गौहर के मुताबिक-
अगर आमिर कदल और हब्बा कदल सीटों पर चुनाव में धांधली नहीं होती, तो शायद कश्मीर में हथियारबंद संघर्ष को कुछ सालों तक टाला जा सकता था।
लेखक अशोक कुमार पांडेय अपनी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में लिखते हैं कि ‘हत्याओं का जो सिलसिला उस दौर में शुरू हुआ, भारत और कश्मीर के अपरिपक्व राजनीतिक नेतृत्व के चलते वो एक ऐसे हिंसक चक्रव्यूह में फंसता चला गया, जिससे बाहर निकलना आज तक मुमकिन नहीं हुआ और इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ी- बंदूक उठाए लोगों को, बेगुनाह पंडितों और बेगुनाह मुसलमानों को भी।’
1989 वो साल था जिसमें कश्मीर में आतंकवाद हिंसक होना शुरू हुआ। पाकिस्तान से आतंकी ट्रेनिंग लेकर आने वाले युवा कश्मीरी किसी भी कीमत पर पंडितों को घाटी से निकालना चाहते थे। 23 जून 1989 को श्रीनगर में परचे बांटे गए। ये परचे ‘हज्ब-ए-इस्लामी’ नाम के संगठन ने बांटे थे।
परचों में मुस्लिम महिलाओं के लिए लिखा था कि इस्लामिक नियमों को मानना शुरू कर दो, बुर्का पहनो। कश्मीरी पंडित महिलाओं से कहा गया कि वो माथे पर तिलक जरूर लगाएं, ताकि उन्हें आसानी से पहचाना जा सके। जो ये बात नहीं मानेगा उसे खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस दौरान हुई एक घटना ने आतंकियों के हौसले और बुलंद कर दिए।
वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बने अभी 6 दिन हुए थे। उन्होंने अपनी सरकार में पहली बार एक मुस्लिम नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमंत्री बनाया था। 8 दिसंबर को दोपहर 3:45 बजे राजधानी दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक में मुफ्ती अपने कार्यकाल की पहली बैठक कर रहे थे।
ठीक इसी वक्त दिल्ली से करीब 800 किलोमीटर दूर श्रीनगर में उनकी बेटी रूबैया सईद अपनी ड्यूटी के बाद हॉस्पिटल से घर जाने के लिए निकलीं। रूबैया MBBS करने के बाद इस हॉस्पिटल में इंटर्नशिप कर रही थीं।
हॉस्पिटल से निकलकर रूबैया JFK 677 नंबर वाली एक ट्रांजिट वैन में सवार हुईं। ये वैन लाल चौक से श्रीनगर के बाहरी इलाके नौगाम की तरफ जा रही थी। रूबैया जैसे ही चानपूरा चौक के पास पहुंचीं, वैन में सवार तीन अन्य लोगों ने गनपॉइंट पर वैन को रोक लिया। उन लोगों ने रूबैया सईद को वैन से नीचे उतारकर सड़क के दूसरी तरफ खड़ी नीले रंग की मारुति कार में बैठा लिया। उसके बाद वह मारुति कार कहां गई, किसी को नहीं पता।
2 घंटे बाद यानी शाम करीब 6 बजे JKLF के जावेद मीर ने एक लोकल अखबार को फोन करके जानकारी दी कि हमने भारत के गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबैया सईद का अपहरण कर लिया है। JKLF की तरफ से रूबैया को छोड़ने के बदले 20 आतंकियों को छोड़ने की मांग की गई।
13 दिसंबर की दोपहर, यानी 5 दिन तक सरकार और अपहरणकर्ताओं के बीच बातचीत चलती रही। आखिरकार सरकार ने 5 आतंकियों को रिहा कर दिया। बदले में कुछ ही घंटे बाद लगभग 7.30 बजे रूबैया को सोनवर में मध्यस्थ जस्टिस मोतीलाल भट्ट के घर सुरक्षित पहुंचा दिया गया।
कश्मीरी पंडितों के खिलाफ नफरत 1989 के आखिर में और जहरीली हो गई थी। उन्हें लाउडस्पीकर पर चेतावनी देकर कश्मीर छोड़ने के लिए कहा जाता था। अशोक कुमार पांडे अपनी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में लिखते हैं कि उस समय कश्मीरी पंडितों और अखबारों में घर छोड़ने की जो धमकियां दी गई थीं वो हिजबुल मुजाहिदीन के लेटर पैड पर दी गई थीं। JKLF और हिजबुल हिंसा की अगुआई कर रहे थे। उनके साथ करीब दो दर्जन छोटे-मझोले इस्लामिक संगठन पंडितों की जान के दुश्मन बने हुए थे।
हथियारबंद लोगों ने कैसे कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने पर मजबूर किया। निर्मम हत्याओं की कुछ बानगी…
1. पंडित मर्द भाग जाएं, उनकी औरतें रहें वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर की त्रासदी झेलने वाले राहुल पंडिता अपनी किताब ‘अवर मून हैज ब्लड क्लॉट’ में लिखते हैं कि 19 जनवरी 1990 की रात मैं सो रहा था। मस्जिद के लाउडस्पीकर से लगातार सीटी बजने की आवाज आ रही थी। मेरे मामा का परिवार हमारे घर आ चुका था।
मामा और पिताजी कुछ बात कर रहे थे। तभी बाहर जोर से आवाज आई ‘नारा ए तकबीर, अल्लाह हू अकबर’। मैंने ये नारा कुछ दिन पहले दूरदर्शन पर आए धारावाहिक ‘तमस’ में सुना था। फिर आवाज आई, हम क्या चाहते…आजादी, ए जालिमो, ए काफिरो, कश्मीर हमारा छोड़ दो। फिर कुछ देर में नारेबाजी थम गई।
जब मेरी मां ने इसे सुना तो वो कांपने लगीं। उन्होंने कहा कि भीड़ चाहती है कि कश्मीर को पाकिस्तान में बदल दिया जाए। उसमें पंडित मर्द न हों, लेकिन उनकी औरतें हों।
मां रसोई की ओर भागीं और लंबा चाकू ले आईं। उन्होंने कॉलेज जाने वाली मेरी बहन की तरफ देखकर कहा अगर वे (आतंकी) आए तो मैं इसे मार दूंगी। इसके बाद अपनी जान ले लूंगी।
2. मस्जिद की लिस्ट में नाम आया, अगली सुबह हत्या मार्च 1990। श्रीनगर के छोटा बाजार इलाके में 26 साल के बाल कृष्ण उर्फ बीके गंजू को चेतावनी दी जा चुकी थी कि वे कश्मीर छोड़ दें। उनके पड़ोसी ने बताया कि मस्जिद की लिस्ट में उनका नाम सबसे ऊपर था। अगले ही दिन गंजू और उसकी पत्नी ने श्रीनगर छोड़ने का फैसला किया।
वो निकल ही रहे थे कि दरवाजे के बाहर से ही जोर से किसी ने कहा ‘गंजू साहब किधर है? उससे जरूरी काम है।’ पत्नी ने भीतर से कहा कि वो काम पर गए हैं। तब बाहर से आवाज आई अरे इतनी सुबह कैसे जा सकते हैं? मोहतरमा आप परेशानी समझिए हमें गंजू साहब से जरूरी काम है।
दरवाजा नहीं खुला तो अजनबी खिड़की तोड़कर कर अंदर आने लगे। गंजू छत पर रखे चावल के ड्रम में छिप गए। आतंकियों ने पूरे घर में गंजू को खोजा। आहट मिलते ही उन्होंने गोली चला दी। बदहवास गंजू की पत्नी वहां पहुंची तो चावल से सनी खून की धार बह रही थी।
3. बाप-बेटों को मारकर लटका दिया, चमड़ी तक उधेड़ दी जम्मू-कश्मीर के दो बार राज्यपाल रहे जगमोहन अपनी किताब ‘माय फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में सर्वानंद कौल ‘प्रेमी के बारे में लिखते हैं। सरकारी स्कूल के प्राध्यापक रहे सर्वानंद कौल केवल टीचर ही नहीं, वे कवि और लेखक भी थे। वे अनंतनाग जिले के शालि गांव में परिवार सहित रह रहे थे।
दशतगर्दों की धमकी से पंडित भाग रहे थे, लेकिन प्रेमी ने तय किया वो कहीं नहीं जाएंगे। 30 अप्रैल 1990 को एक दिन तीन हथियारबंद लोगों ने दस्तक दी। परिवार के सभी लोगों को एक कमरे में इकट्ठा किया। प्रेमी को साथ ले जाने लगे तो कुछ मुस्लिम पड़ोसियों ने विरोध किया। बंदूक की नोंक के आगे उनका विरोध नहीं चला। प्रेमी के साथ उनका बेटा भी चल दिया।
दो दिन हो गए थे। न प्रेमी लौटे ने उनका बेटा। दोनों की लाश एक जगह लटकी हुई मिलीं। लाशें देखकर पता चल रहा था कि दोनों के हाथ-पैर तोड़ दिए गए थे। बाल नोंचे गए थे। शरीर की चमड़ी जगह-जगह से उधेड़ दी गई थी। शरीर में जगह-जगह जलाने के निशान थे।
**** ‘मैं कश्मीर हूं’ सीरीज के पांचवे और आखिरी एपिसोड में कल यानी 3 मई को पढ़िए- वाजपेयी लाहौर में थे और पाक सेना कारगिल में और मोदी सरकार में कितना बदला कश्मीर…
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एपिसोड-3: जिन्ना को कश्मीर आने से रोका, फिर हुआ नरसंहार:लाहौर तक पहुंची भारतीय सेना, क्या नेहरू की गलती से बना PoK; क्या इतिहास दोहराना अब संभव