नंदितेश निलय का कॉलम: वर्क-लाइफ बैलेंस सिर्फ काम के घंटों से तय नहीं होता

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नंदितेश निलय का कॉलम:  वर्क-लाइफ बैलेंस सिर्फ काम के घंटों से तय नहीं होता

नंदितेश निलय का कॉलम: वर्क-लाइफ बैलेंस सिर्फ काम के घंटों से तय नहीं होता

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10 घंटे पहले

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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक

क्या कर्मचारी को सप्ताह में 70 या 90 घंटे काम करना चाहिए? लेकिन क्यों? क्या कर्मचारी को अपनी खुशी के लिए परिवार के साथ समय नहीं बिताना चाहिए? आज इस बहस ने हर उस कर्मचारी के वर्क-लाइफ बैलेंस को प्रभावित किया है, जो सुबह 8 बजे जब ऑफिस के लिए निकलता है तो रात 8 बजे ही घर लौट पाता है। और घर में भी उसका वॉट्सएप्प और फोन उसे ऑफिस से जोड़े रखते हैं। एआई के युग में मनुष्य को मशीन की तरह देखा जा रहा है।

लेकिन क्या कर्मचारी भी एक सामाजिक प्राणी नहीं है? क्या उत्पादकता सिर्फ कुछेक घंटों पर निर्भर करती है या कर्मचारी के मोटिवेशन पर भी? क्या संस्थाएं अपने कर्मचारी की खुशी या पारिवारिक जिम्मेदारी के प्रति कोई भूमिका नहीं रखतीं? अगर पारिवारिक संबंध खुशी का कारण हैं तो किसी कर्मचारी का परिवार के साथ समय बिताना जरूरी क्यों नहीं? उत्पादकता क्या केवल इस पर निर्भर है कि कौन कितने घंटे काम करता है?

सवाल संतुलन का है, कार्य के प्रति और उस कार्य के साथ जुड़े मनुष्य के जीवन के प्रति। क्या हमें सिर्फ प्रोडक्टिव वर्कफोर्स चाहिए या खुश वर्कफोर्स भी? हाल ही में टेबल स्पेस के सीईओ अमित की मात्र 45 की आयु में कार्डियक अरेस्ट से मृत्यु हो गई।

बेंगलुरू में इधर कुछ और भी फाउंडर्स की कम उम्र में मृत्यु होने की खबर आई है। मणिपाल हॉस्पिटल के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. शेट्टी लिखते हैं कि इस तरह की असामयिक मृत्यु में वर्क-लाइफ बैंलेंस का असंतुलन प्रमुख है।

अगर लोग काम से ब्रेक नहीं लेंगे तो तनाव तो बढ़ेगा ही। कुछ स्टार्टअप्स इतना अधिक टारगेट रखते हैं कि तनाव होना लाजिमी है। आज ऑफिस में सभी हर मिनट व्यस्त रहते हैं। ऐसे में जीवन छूटने लगता है। न खाने का समय, न सोने का, न परिवार के लिए समय।

कोविड महामारी के बाद वर्क-लाइफ संतुलन के लिए कई देशों ने चार दिवसीय कार्य-सप्ताह बनाने की कोशिश की है। उन्होंने यह समझने की कोशिश की कि किस तरह चार दिन के कार्य-सप्ताह की संस्कृति कर्मचारियों को खुश, स्वस्थ और अधिक उत्पादक बनाती है।

जर्मनी, नीदरलैंड्स, बेल्जियम, डेनमार्क, ऑस्ट्रेलिया, जापान आदि देशों ने माना कि वर्क-लाइफ संतुलन के लिए यह जरूरी है। जापान का तो यह मानना है कि यह ‘करोषी’ या ‘डेथ बाय ओवरवर्क’ को कम करता है।

स्टीव जॉब्स ने 2005 में स्टैनफोर्ड दीक्षांत भाषण में कहा था कि ‘अगर आज मेरे जीवन का आखिरी दिन हो, तो क्या मैं वह करना चाहता जो मैं आज करने वाला हूं?’ सच यह है कि वर्क-लाइफ का संतुलन काम के घंटों पर ही नहीं, बल्कि कर्मचारी की गुणवत्ता और काम के लिए लगन पर भी निर्भर होती है।

डगलस मैकग्रेगर की थ्योरी एक्स और वाई में वाई, प्रबंधन के उस पक्ष पर जोर देती है कि कर्मचारी को अगर सही प्रेरणा मिले, कार्यस्थल का वातावरण सकारात्मक हो तो हमें यह मानना चाहिए कि हर आदमी अपने कार्य को आनंदित भाव से कर सकता है। आखिर स्वास्थ्य, खुशी और जीवन के प्रति देखभाल का दृष्टिकोण ही जीवन और उत्पादकता के स्तर को सकारात्मक रख सकता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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