दादासाहेब फाल्के का कैमरा देख बड़ौदा में फैल गई थी ‘मरने’ की अफवाह, चौपट हो गया था उनका धंधा
यह Dadasaheb Phalke का फोटोग्राफी के प्रति जुनून ही था, जिसके कारण उन्होंने फोटो-लिथियो से लेकर थ्री-कलर ब्लॉकमेकिंग, कलरटाइप और थ्री-कलर सिरामिक फोटोग्राफी सीखी। लेकिन इसी फोटोग्राफी के कारण दादासाहेब के अच्छे-खासे बिजनेस पर ताला लगते-लगते बचा था। जो भी दादासाहेब फाल्के के कैमरे को देखता डर जाता और फोटो खिंचवाने से मना कर देता। आखिर ऐसा क्या था और क्यों? ‘थ्रोबैक थर्सडे’ सीरीज में हम आपको दादासाहेब फाल्के की जिंदगी का यही किस्सा बताने जा रहे हैं।
दादासाहेब फाल्के, फोटो: ETimes
पेटिंग का कोर्स, मालिक ने मुफ्त में दी जगह
दादासाहेब फाल्के ने कला भवन से ऑइल और वॉटर कलर पेंटिंग का कोर्स करने के बाद वहां के प्रिंसिपल गज्जर के निर्देशन में फोटोग्राफी के बाकी तरीके और तकनीक सीखीं। गज्जर ने दादासाहेब फाल्के का हुनर देखते हुए उन्हें कला भवन की लेब और फोटो स्टूडियो मुफ्त में इस्तेमाल करने के लिए दे दिए। यहां उन्होंने ‘श्री फाल्के’ नाम से फोटो प्रिटिंग और उन्हें उकेरने का काम शुरू कर दिया। भले ही दादासाहेब फाल्के खूब टैलेंटेड थे और फोटोग्राफी से लेकर प्रिटिंग और आर्किटेक्चर तक का काम जानते थे, बावजूद इसके उनके पास कमाई का स्थायी जरिया नहीं था। गुजारा करने और पेट भरने में दादासाहेब फाल्के को काफी मुश्किल हो रही थी।
दादासाहेब फाल्के, फोटो: wikipedia
बड़ौदा में फैली इस अफवाह से चौपट हुआ काम
ऐसे में दादासाहेब फाल्के ने फोटोग्राफर बनने का फैसला किया और फिर गोधरा चले गए। यहां एक फैमिली ने उन्हें काम करने के लिए स्टूडियो के लिए मुफ्त में जगह दिलवा दी। लेकिन दादासाहेब का इससे पहले काम सही से जमता उनकी पत्नी और बच्चे की मौत हो गुई। दुखी दादासाहेब फाल्के फिर उस जगह को छोड़कर बड़ोदा चले और वहीं अपना काम जमाने का फैसला किया। लेकिन वहां अचानक ही यह अफवाह फैल गई कि दादासाहेब फाल्के का कैमरा आदमी के शरीर से सारी एनर्जी खींच लेता है और फिर उस आदमी की मौत हो जाती है। इस वजह से हर कोई दादासाहेब के पास आने से कतराने लगा। जो भी दादासाहेब का कैमरा देखता, दूर भागता। इस वजह से दादासाहेब का फोटोग्राफी का काम ठप पड़ गया और उन्हें गुजारा करने में दिक्कत होने लगी।
दादासाहेब फाल्के, फोटो: social media
स्टेज शोज के पर्दे रंगकर किया गुजारा
थक-हारकर दादासाहेब फाल्के को फोटोग्राफी का काम छोड़कर पर्दे रंगने का काम करना पड़ा। वह ड्रामा कंपनियों में स्टेज के पर्दों पर रंग-रोगन करते और उससे जो भी पैसे मिलते, पेट भरते। ड्रामा कंपनियों के साथ काम करके दादासाहेब फाल्के को ड्रामा प्रोडक्शन में थोड़ी सी ट्रेनिंग मिली। यहीं से फिर वह छोटे-मोटे रोल करने लगे और जाने कि ड्रामा, एक्टिंग जैसी भी कोई चीज होती है।
दादासाहेब फाल्के की 1944 में मौत
दादासाहेब फाल्के ने फिर फिल्ममेकिंग की ट्रेनिंग ली और तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए देश की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई। इस फिल्म को बनाने में जहां दादासाहेब फाल्के ने अपनी इंश्योरेंस पॉलिसी तक खत्म कर दीं, वहीं पत्नी को जूलरी तक गिरवी रखनी पड़ी। दादासाहेब फाल्के ने फिर कई फिल्में बनाईं। बाद में दादासाहेब फाल्के ने 1932 में रिटायरमेंट ले ली। 16 फरवरी 1944 में उनका निधन हो गया।