जैन धर्म की साधिका माता ज्ञानमती का केशलोचन संस्कार: हर 4 महीने में जैन संत करते हैं यह क्रिया,देश में कुल 1 हजार 750 संत – Ayodhya News h3>
जैन धर्म की सर्वोच्च साधिका माता ज्ञानमती का केशलोचन हुआ।
अयोध्या में जैन धर्म की सर्वोच्च साध्वी, गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माता ने का केश लोचन हुआ।इसमें प्रात:काल भगवान ऋषभदेव की 31 फुट विशाल प्रतिमा का मस्तकाभिषेक किया गया। इस अवसर पर विश्वशांति की कामना के लिए भगवान के मस्तक पर शांति धारा की गई।
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जैन धर्म की सर्वोच्च साधिका माता ज्ञानमती का केशलोचन संस्कार हुआ।
गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माता ने अपने हाथों से अपने केशों को उखाड़ा। जैन ग्रंथ के अनुसार दिगंबर साधु- साध्वियों को साल में 3 बार यह प्रक्रिया हर 4 माह में करनी होती है।
जो जैन साधु अपने केश अपने हाथों से निकालते हैं वे उस दिन निर्जल उपवास करते हैं जैन मंदिर के विजय कुमार जैन ने बताया कि भारत की गौरव, गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माता ने केशलोचन किया। इसके अन्तर्गत दिगंबर जैन साधु एवं साध्वियों को दीक्षा के बाद अपने हाथों से अपने केशों को निकालना होता है जिसे शरीर से निर्ममता का प्रतीक समझा जाता है। जो जैन साधु अपने केश अपने हाथों से निकालते हैं वे उस दिन निर्जल उपवास करते हैं।
माता ज्ञानमती ने 550 से अधिक ग्रंथों का लेखन किया है, 73 साल से कर रही हैं साधना
उन्होंने बताया कि वर्तमान समय में सारे देश के अन्दर 1 हजार 750 दिगंबर संत विराजमान हैं जो साल में 4 बार इस प्रक्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न करते हैं एवं त्याग और संयम की साधना करते हुए सिर्फ दिन में एक बार आहार ग्रहण करते हैं। दवाई, पानी आदि उसी समय लेते हैं यदि भोजन में अन्तर आ जाए तो 24 घंटे बाद जल की बूंद ग्रहण करते हैं।
वे पदयात्रा करते हैं और किसी भी वाहन का प्रयोग नहीं करते हैं। बिस्तर आदि का प्रयोग ठंडी गर्मी बरसात में नहीं करते हैं।यह जैन साधुओं का ये मुख्य गुण होता है।
गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माता 73 वर्ष से संयम की आराधना से जीवन यापन कर रही हैं। वे त्याग की प्रतिमूर्ति, महा साधिका विदुषी संत हैं जिन्होंने 550 से अधिक ग्रंथों का लेखन किया है। केशलोच साधु की मुख्य क्रिया है।
केशलोचन के बाद ही होता है दीक्षा संस्कार
पीठाधीश स्वामी रवीन्द्र कीर्ति ने बताया कि प्रत्येक जैन साधु को यह प्रक्रिया करना अनिवार्य होता है। साधु बनने के पूर्व सबसे पहले केशलोचन करना होता है उसके बाद ही उनके मस्तक पर संस्कार गुरु के द्वारा किए जाते हैं जिससे वह दीक्षा ग्रहण करते हैं। यह अपने आप में कठोर तप है। क्योंकि वर्तमान युग में केश ही शृंगार का मुख्य आकर्षण है। लेकिन जैन संत घास के समान इसको अपने हाथों से निकालते हैं।