जामा मस्जिद के लिए क्यों खास है 25 जुलाई जानें…

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जामा मस्जिद के लिए क्यों खास है 25 जुलाई जानें…

जामा मस्जिद के लिए क्यों खास है 25 जुलाई जानें…

नई दिल्लीः आप दरियागंज से उर्दू बाजार होते हुए जामा मस्जिद की तरफ बढ़ रहे हैं। वक्त जोहर की नमाज का होने वाला है। आसमान में काले बादल छाए हुए हैं। बारिश होने की पूरी-पूरी संभावना है। जामा मस्जिद से अजान की आवाज आने लगी है। ये जामा मस्जिद और इसके आसपास के एरिया का स्थायी भाव है। आज 25 जुलाई जामा मस्जिद के लिए खास दिन है। 1657 को इसी दिन ईद उल जुहा पर यहां पर पहली बार नमाज अदा की गई थी। मुगल बादशाह शाहजहां के स्वर्णिम काल में तामीर हुई थी जामा मस्जिद। शाहजहां ने 6 अक्तूबर, 1650 को जामा मस्जिद की आधारशिला रखी थी। जामा मस्जिद का निर्माण शाहजहां के खासमखास वजीर सैद उल्ला और फजील खान की देखरेख में चला। जामा मस्जिद का निर्माण छह सालों में पूरा हुआ था और इस पर 10 लाख रुपये के लगभग खर्च हुए थे। इसके लिए लाल रंग के बलुआ पत्थर विभिन्न राजाओं और नवाबों ने भेंट किए थे।

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जामा मस्जिद के कितने दरवाजे, कितनी सीढ़ियां

जामा मस्जिद के तीन संगमरमर के गुबंद हैं, जिन पर काली पट्टियां हैं। इससे जामा मस्जिद को अलग पहचान मिलती है। इसके तीन दरवाजे हैं। एक लाल किला की तरफ, दूसरा दरीबा कलां की ओर और तीसरा बाजार मटिया महल की तरफ खुलता है। आपको इन दरवाजों पर पहुंचने के लिए 32, 32 और 36 सीढ़ियों को चढ़ना होता है। हिन्दुस्तान के मुसलमानों का इसको लेकर अकीदा जगजाहिर है। गैर-मुसलमानों के मन में भी इसको लेकर गहरे सम्मान का भाव रहता है। जामा मस्जिद के बाद देशभर में कई मस्जिदें इसके डिजाइन को ध्यान में रखकर बनीं। अगर आप कभी अलीगढ़ जाएं तो यह देखकर हैरान रह जाएंगे कि वहां एएमयू कैंपस में बनी मस्जिद दिल्ली की जामा मस्जिद से बिलकुल मिलती-जुलती है। जामा मस्जिद के बनने के बाद इसके करीब ही राजधानी के दरियागंज में जीनत-उल-मस्जिद बनी। इसे घटा मस्जिद भी कहते हैं। इसका डिज़ाइन भी जामा मस्जिद की तरह ही है।

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उर्दू बाजार में मीर मुश्ताक अहमद और फारूकी साहब

जामा मस्जिद में जोहर की नमाज से पहले ही उर्दू बाजार सज चुका है। खूब भीड़-भाड़ है। एक दौर था जब उर्दू बाजार की किताबों की दुकानों (कुतुबखानों) में रौनक लगी रहती थी। पर अब हरेक कुतुब खाने वाला बस यही कह रहा है कि पहले जैसे उर्दू पढ़ने वाले नहीं रहे। इसलिए उनका धंधा अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। कमबख्त कोरोना ने कुतुबखानों के बचे-खुचे काम की भी जान निकाल दी थी। पहले जामा मस्जिद में आने वाले टूरिस्ट ही उर्दू बाजार में आकर कुछ खरीददारी तो कर लिया करते थे। उर्दू बाजार में उर्दू की सेकिंड हैंड दुर्लभ किताबें भी बिका करती थीं। उर्दू बाजार बेशक दिल्ली-6 की सियासी हलचल का भी केन्द्र था। यहां पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के भी दफ्तर हुआ करते थे। कभी-कभी एम.ओ. फारूकी(भाकपा), मीर मुश्ताक अहमद (कांग्रेस) और दूसरे नेता किसी कुतुबखाने के बाहर खड़े मिल जाते थे।

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