चेतन भगत का कॉलम: क्या ‘चीप-लेबर’ का दोहन ही तकनीकी सफलता है? h3>
32 मिनट पहले
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
हाल ही में एक स्टार्टअप-सम्मेलन में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की टिप्पणी ने बड़ी बहस छेड़ दी। उन्होंने भारतीय स्टार्टअप के उदय की प्रशंसा की थी, लेकिन साथ ही डीप-टेक और अत्याधुनिक इनोवेशन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।
उन्होंने कहा, हम फूड डिलीवरी ऐप्स पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और बेरोजगार युवाओं को चीप-लेबर में बदल दे रहे हैं, ताकि अमीर लोग अपने घर से बाहर जाए बिना अपना फूड पा सकें। उनकी बात में दम है। भारत में विशेष प्रकार की टेक-कंपनियों का उदय हुआ है, जिन्हें मैं पीएसआर (पुअर सर्विंग रिच) कंपनियां कहता हूं।
इनका बिजनेस-मॉडल दो प्रमुख स्तंभों पर टिका है : एक, बड़ी और समृद्ध आबादी (यानी अमीर) जिसके पास खर्च करने योग्य पैसा और सुविधा के लिए बढ़ती भूख है। और दो, बहुत बड़ी और अपेक्षाकृत अकुशल आबादी (गरीब), जो इस मांग को पूरा करने के लिए कम वेतन पर काम करने को तैयार है। भारत में इन दोनों ही वर्गों के लोगों की कमी नहीं है।
गोल्डमैन सैक्स की एक रिसर्च के अनुसार, लगभग 6 करोड़ भारतीय सालाना 10,000 डॉलर (8.6 लाख रुपए) से अधिक कमाते हैं। ये ही लोग ई-कॉमर्स, फूड डिलीवरी और अन्य सुविधा-केंद्रित सेवाओं के मूल उपभोक्ता हैं। अनुमान है कि यह संख्या 2027 तक बढ़कर 10 करोड़ हो जाएगी।
अब, चीप-लेबर की आपूर्ति पर विचार करें। भारत में असमानता की स्थिति नामक रिपोर्ट में पाया गया है कि प्रति माह 25,000 रु. से अधिक कमाने वाले लोग वेतन पाने वाले शीर्ष 10% लोगों में आते हैं। इसलिए, 15,000-20,000 रु. का मासिक वेतन अभी भी आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए आकर्षक है। 1.4 अरब की आबादी में करोड़ों लोग इन वेतनों पर काम करने के लिए तैयार हैं।
यदि हम मान लें कि महीने में 25 कार्य दिवस होते हैं तो 20,000 रु. प्रतिमाह के हिसाब से 800 रु. प्रतिदिन का वेतन हुआ। 10 घंटे के कार्य दिवस के लिए 80 रु. प्रतिघंटा। यह 1 डॉलर से भी कम है। सालाना 10,000 डॉलर से ज्यादा कमाने वाला ग्राहक आसानी से ऐसे 50-100 ऑर्डर दे सकता है। इसमें सभी को लाभ है।
डिलीवरी करने वाला कर्मचारी औसत से ऊपर का वेतन कमाता है। अमीर लोग मिनटों में ही अपने दरवाजे पर डिलीवर किए गए फूड का मजा लेते हैं। टेक फाउंडर्स को सफलता मिलती है और उनमें से कई तो अरबपति या राष्ट्रीय प्रतीक भी बन जाते हैं।
वैल्यूएशन बढ़ने से शेयरधारक खुश होते हैं। और औसत भारतीय अपने एनआरआई रिश्तेदारों के सामने देश की तकनीकी क्षमता का बखान करता है कि हम साबुन ऑर्डर करते हैं और वह 10 मिनट में आ जाता है! विकसित देश ऐसा कर सकते हैं?
लेकिन यहां पर हम यह अनदेखा कर देते हैं कि यह तभी संभव हो सकता है, जब तक कि एक बड़ा और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग किसी भी नौकरी के लिए बेताब न हो। ये वे लोग हैं, जो गांवों से पलायन करके शहर आ रहे हैं, क्योंकि खेती अब लाभदायक नहीं रह गई है।
वे शहरों में आते हैं, क्योंकि यहीं ज्यादातर अमीर लोग रहते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहीं पर पीएसआर नौकरियां उपलब्ध हैं। अमीर लोग पहले भी खाना पकाने, सफाई करने और गाड़ी चलाने के लिए सेवकों को काम पर रखते थे। लेकिन आज तकनीक ने माइक्रो-पीएसआर के अवसर रचे हैं।
आप एक आलीशान अपार्टमेंट में किसी अमीर आदमी के लिए भले काम नहीं कर सकते हों, लेकिन आप उसे एक सैंडविच जरूर डिलीवर कर सकते हैं- और यह आपकी आजीविका चलाने के लिए पर्याप्त होगा।
लेकिन क्या यह वास्तव में अत्याधुनिक तकनीक है? या क्या यह सस्ते श्रम का लाभ उठाने वाली तकनीक है? ये सच है कि इनमें से कई कंपनियां जॉब-क्रिएटर होने का दावा करती हैं और वे सच में ही हजारों लोगों को काम देती भी हैं। लेकिन अगर हम आत्मनिरीक्षण करें तो पाएंगे कि जो हो रहा है, वह वास्तव में भारत को तकनीक के मामले में सबसे आगे नहीं रख रहा है।
यह केवल एक ऐसे अवसर का दोहन कर रहा है, जो मौजूद है। बहुत सारे गरीब लोगों को काम चाहिए और बहुत सारे अमीर लोगों को सुविधा। यही कारण है कि बड़ी तादाद में गरीब दिनभर अमीरों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए दौड़ते रहते हैं। लेकिन यह कोई ब्रेकथ्रू टेक्नोलॉजी नहीं है।
यही कारण है कि पीयूष गोयल ने भारत की टेक-फर्मों से जो ऊंचे लक्ष्य रखने का आग्रह किया है, वह वाजिब है। हां, हम जुगाड़-टेक्नोलॉजी में माहिर हैं, लेकिन हम आज भी बड़े पैमाने पर, कॉमर्शियल इनोवेशन नहीं कर पा रहे हैं।
बड़ी तादाद में गरीब दिनभर अमीरों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए दौड़ते रहते हैं। लेकिन यह कोई ब्रेकथ्रू टेक्नोलॉजी नहीं है। हम जुगाड़- टेक्नोलॉजी में माहिर हैं, लेकिन हम बड़े पैमाने पर इनोवेशन नहीं कर पा रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
हाल ही में एक स्टार्टअप-सम्मेलन में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की टिप्पणी ने बड़ी बहस छेड़ दी। उन्होंने भारतीय स्टार्टअप के उदय की प्रशंसा की थी, लेकिन साथ ही डीप-टेक और अत्याधुनिक इनोवेशन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।
उन्होंने कहा, हम फूड डिलीवरी ऐप्स पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और बेरोजगार युवाओं को चीप-लेबर में बदल दे रहे हैं, ताकि अमीर लोग अपने घर से बाहर जाए बिना अपना फूड पा सकें। उनकी बात में दम है। भारत में विशेष प्रकार की टेक-कंपनियों का उदय हुआ है, जिन्हें मैं पीएसआर (पुअर सर्विंग रिच) कंपनियां कहता हूं।
इनका बिजनेस-मॉडल दो प्रमुख स्तंभों पर टिका है : एक, बड़ी और समृद्ध आबादी (यानी अमीर) जिसके पास खर्च करने योग्य पैसा और सुविधा के लिए बढ़ती भूख है। और दो, बहुत बड़ी और अपेक्षाकृत अकुशल आबादी (गरीब), जो इस मांग को पूरा करने के लिए कम वेतन पर काम करने को तैयार है। भारत में इन दोनों ही वर्गों के लोगों की कमी नहीं है।
गोल्डमैन सैक्स की एक रिसर्च के अनुसार, लगभग 6 करोड़ भारतीय सालाना 10,000 डॉलर (8.6 लाख रुपए) से अधिक कमाते हैं। ये ही लोग ई-कॉमर्स, फूड डिलीवरी और अन्य सुविधा-केंद्रित सेवाओं के मूल उपभोक्ता हैं। अनुमान है कि यह संख्या 2027 तक बढ़कर 10 करोड़ हो जाएगी।
अब, चीप-लेबर की आपूर्ति पर विचार करें। भारत में असमानता की स्थिति नामक रिपोर्ट में पाया गया है कि प्रति माह 25,000 रु. से अधिक कमाने वाले लोग वेतन पाने वाले शीर्ष 10% लोगों में आते हैं। इसलिए, 15,000-20,000 रु. का मासिक वेतन अभी भी आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए आकर्षक है। 1.4 अरब की आबादी में करोड़ों लोग इन वेतनों पर काम करने के लिए तैयार हैं।
यदि हम मान लें कि महीने में 25 कार्य दिवस होते हैं तो 20,000 रु. प्रतिमाह के हिसाब से 800 रु. प्रतिदिन का वेतन हुआ। 10 घंटे के कार्य दिवस के लिए 80 रु. प्रतिघंटा। यह 1 डॉलर से भी कम है। सालाना 10,000 डॉलर से ज्यादा कमाने वाला ग्राहक आसानी से ऐसे 50-100 ऑर्डर दे सकता है। इसमें सभी को लाभ है।
डिलीवरी करने वाला कर्मचारी औसत से ऊपर का वेतन कमाता है। अमीर लोग मिनटों में ही अपने दरवाजे पर डिलीवर किए गए फूड का मजा लेते हैं। टेक फाउंडर्स को सफलता मिलती है और उनमें से कई तो अरबपति या राष्ट्रीय प्रतीक भी बन जाते हैं।
वैल्यूएशन बढ़ने से शेयरधारक खुश होते हैं। और औसत भारतीय अपने एनआरआई रिश्तेदारों के सामने देश की तकनीकी क्षमता का बखान करता है कि हम साबुन ऑर्डर करते हैं और वह 10 मिनट में आ जाता है! विकसित देश ऐसा कर सकते हैं?
लेकिन यहां पर हम यह अनदेखा कर देते हैं कि यह तभी संभव हो सकता है, जब तक कि एक बड़ा और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग किसी भी नौकरी के लिए बेताब न हो। ये वे लोग हैं, जो गांवों से पलायन करके शहर आ रहे हैं, क्योंकि खेती अब लाभदायक नहीं रह गई है।
वे शहरों में आते हैं, क्योंकि यहीं ज्यादातर अमीर लोग रहते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहीं पर पीएसआर नौकरियां उपलब्ध हैं। अमीर लोग पहले भी खाना पकाने, सफाई करने और गाड़ी चलाने के लिए सेवकों को काम पर रखते थे। लेकिन आज तकनीक ने माइक्रो-पीएसआर के अवसर रचे हैं।
आप एक आलीशान अपार्टमेंट में किसी अमीर आदमी के लिए भले काम नहीं कर सकते हों, लेकिन आप उसे एक सैंडविच जरूर डिलीवर कर सकते हैं- और यह आपकी आजीविका चलाने के लिए पर्याप्त होगा।
लेकिन क्या यह वास्तव में अत्याधुनिक तकनीक है? या क्या यह सस्ते श्रम का लाभ उठाने वाली तकनीक है? ये सच है कि इनमें से कई कंपनियां जॉब-क्रिएटर होने का दावा करती हैं और वे सच में ही हजारों लोगों को काम देती भी हैं। लेकिन अगर हम आत्मनिरीक्षण करें तो पाएंगे कि जो हो रहा है, वह वास्तव में भारत को तकनीक के मामले में सबसे आगे नहीं रख रहा है।
यह केवल एक ऐसे अवसर का दोहन कर रहा है, जो मौजूद है। बहुत सारे गरीब लोगों को काम चाहिए और बहुत सारे अमीर लोगों को सुविधा। यही कारण है कि बड़ी तादाद में गरीब दिनभर अमीरों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए दौड़ते रहते हैं। लेकिन यह कोई ब्रेकथ्रू टेक्नोलॉजी नहीं है।
यही कारण है कि पीयूष गोयल ने भारत की टेक-फर्मों से जो ऊंचे लक्ष्य रखने का आग्रह किया है, वह वाजिब है। हां, हम जुगाड़-टेक्नोलॉजी में माहिर हैं, लेकिन हम आज भी बड़े पैमाने पर, कॉमर्शियल इनोवेशन नहीं कर पा रहे हैं।
बड़ी तादाद में गरीब दिनभर अमीरों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए दौड़ते रहते हैं। लेकिन यह कोई ब्रेकथ्रू टेक्नोलॉजी नहीं है। हम जुगाड़- टेक्नोलॉजी में माहिर हैं, लेकिन हम बड़े पैमाने पर इनोवेशन नहीं कर पा रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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