‘खुद से जांच रोकी, फिर चार्जशीट में 8 साल की देरी के आधार पर केस रद्द करने की मांग की’

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‘खुद से जांच रोकी, फिर चार्जशीट में 8 साल की देरी के आधार पर केस रद्द करने की मांग की’

‘खुद से जांच रोकी, फिर चार्जशीट में 8 साल की देरी के आधार पर केस रद्द करने की मांग की’

नई दिल्लीः ‘क्या इस देश के आम नागरिक को पुलिस की ओर से जानबूझकर की गई निष्क्रियता के लिए दोषी ठहराया जा सकता है? क्या कानून से मदद लेने के उसके अधिकार इतने पराजित (कमजोर) हैं?’ ये सवाल दिल्ली हाई कोर्ट ने उस याचिका को खारिज करते हुए उठाए, जिसमें साल 2014 में दर्ज एक एफआईआर में 8 साल बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं होने के आधार पर केस को रद्द करने की मांग की गई थी। आरोपी के तौर पर पेश किए जा रहे लोगों ने यह याचिका दायर की थी, जिनमें से एक पुलिसवाला था। उन सभी पर 10 हजार रुपये का जुर्माना लगाते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि इस देश का हर नागरिक कानून से संरक्षण पाने का अधिकारी है।

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जस्टिस आशा मेनन ने राजन पाल सिंह और अन्य की याचिका खारिज करते हुए उन्हें निर्देश दिया कि वे जुर्माने की रकम दिल्ली हाई कोर्ट स्टाफ वेलफेयर फंड में जमा कराएं। जांच अधिकारी को निर्देश मिला कि वह तीन महीनों के अंदर संबंधित एफआईआर में जांच के आधार पर अपनी अंतिम रिपोर्ट तैयार कर अदालत के सामने पेश करे। कोर्ट को याचिका में कोई दम नजर नहीं आया। इसे ठुकराने की वजह बताते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि 2007 में दी गई पहली शिकायत पर जब कोई कार्रवाई हुई ही नहीं, तो साल 2014 में पुलिस को दी गई शिकायत को दूसरी नहीं कहा जा सकता है। ऐसा है, तब भी इसमें कोई रोक नहीं है, क्योंकि पिछली शिकायत पर जांच पूरी करने के बाद कोई फाइनल रिपोर्ट दायर नहीं की गई थी। केस के तथ्यों पर गौर करते हुए कोर्ट ने अफसोस जताया और कहा कि दुर्भाग्य से 2014 में शिकायत के बावजूद कुछ नहीं हुआ। इसके बाद शिकायतकर्ता को 2018 में मैजिस्ट्रेट के पास सीआरपीसी 156(3) का आवेदन देना पड़ा। जवाब में पुलिस ने एक अस्पष्ट सी रिपोर्ट दायर की, जिसके लिए शिकायतकर्ता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। आठ साल बाद भी मामले में चार्जशीट दाखिल नहीं हुई।

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शिकायत देने वाले व्यक्ति के संदर्भ में उक्त सवाल उठाते हुए कोर्ट ने कहा कि जाहिर होता है कि याचिकाकर्ता नंबर-1 खुद एक पुलिसवाला है, इसलिए वह जांच और अभियोजन को रोके रखने में सफल रहा। अब वह इसका (देरी का) लाभ न्यायिक प्रक्रिया के दखल के जरिए पाना चाहता है। पर ऐसा करने की इजाजत उसे नहीं दी जा सकती। याचिकाकर्ताओं ने दूसरी शिकायत और उस पर दर्ज एफआईआर में चार्जशीट दाखिल करने में सालों की देरी को आधार बनाकर ही यह मांग उठाई थी।

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