कौशिक बसु का कॉलम: स्वार्थ और मुनाफे की लालसा भी विनाश की ओर ले जाती है h3>
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10 घंटे पहले
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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
दुनिया कठिन समय से गुजर रही है। इतिहास में शायद ही कभी हमने एक साथ इतनी बुरी खबरें आते देखी हों। यूक्रेन और मध्य-पूर्व में चल रहे युद्धों के कारण निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। वैश्विक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति बाधित हो रही है। हम दुनियाभर में लोकतंत्र का क्षरण देख रहे हैं। ऐसे नेताओं का उदय हो रहा है जिन्हें केवल अपनी सत्ता की परवाह है, आम इंसानों के लिए उनके मन में कोई सहानुभूति या चिंता नहीं है।
प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचला जा रहा है। कई देशों में आम नागरिकों के विरोध-प्रदर्शनों को बेरहमी से दबाया जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह सब डिजिटल तकनीक के बढ़ते प्रभाव और एआई की तरक्की से हो रहा है। कुछ का कहना है सोशल मीडिया और फेक न्यूज इसकी जड़ में है। कुछ कहते हैं कि इस स्थिति की शुरुआत महामारी से हुई थी।
हम अलग-अलग देशों को दोष देते हैं, दूसरों पर उंगली उठाते हैं, और नेताओं और बड़े कॉरपोरेट प्रमुखों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इस सब में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन यहां मैं हमारी अपनी जिम्मेदारी की बात करना चाहता हूं। मुख्यधारा का अर्थशास्त्र- जिसकी शुरुआत 1776 में प्रकाशित एडम स्मिथ की प्रसिद्ध किताब से मानी जाती है- यह दिखाता है कि आर्थिक विकास और तरक्की इसलिए होती है क्योंकि लोग मुनाफा बढ़ाने और अपनी आय को अधिक से अधिक करने की कोशिश करते हैं। अर्थशास्त्री इसे यूटिलिटी मैक्सिमाइजेशन कहते हैं।
यही सोच मेहनत, उद्यम व इनोवेशन के लिए प्रेरित करती है। जिस बात का शायद ही कभी जिक्र होता है, लेकिन जो उतनी ही सच है, वो यह है कि किसी अर्थव्यवस्था के लंबे समय तक स्थिर रूप से विकसित होने के लिए सिर्फ मुनाफे की चाह काफी नहीं होती- हमें नैतिकता और भरोसे, ईमानदारी जैसे बुनियादी मूल्यों की भी जरूरत होती है। केनेथ ऐरो- जो दुनिया के सबसे महान अर्थशास्त्रियों में गिने जाते हैं- ने एक गणितीय मॉडल बनाया था, जिसमें उन्होंने एडम स्मिथ के इस विचार को औपचारिक रूप दिया था।
उन्होंने समझाया था कि किस तरह मुक्त बाजार और व्यक्तिगत उद्यम से समाज का भला हो सकता है। लेकिन 1978 में लिखे एक निबंध में ऐरो ने यह चेतावनी भी दी थी कि अगर स्वार्थ व मुनाफे की लालसा को बुनियादी मूल्यों से अलग कर दिया जाए, तो वह प्रणाली आर्थिक विनाश की ओर ले जाएगी। आज के इस कठिन समय में हमारे लिए यह याद रखना और ईमानदारी, विनम्रता और करुणा जैसे बुनियादी मानवीय मूल्यों को संजोना बेहद जरूरी है।
साथ ही, करुणा का मतलब सिर्फ अपनी जाति, धर्म, नस्ल या देश के लोगों के लिए करुणा नहीं होना चाहिए। दुनिया में कहीं भी अगर कोई इंसान दु:ख में है, तो वह पूरे मानव समाज के लिए एक त्रासदी है। यह जानना दिलचस्प है कि देश की स्थापना के समय भारत इन मूल्यों को अपनाने में दुनिया में अग्रणी था। आजादी के समय ये सिद्धांत भारत की बुनियाद का हिस्सा थे। हम इसे रबींद्रनाथ ठाकुर की कविता में देखते हैं। हम इसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषणों में देखते हैं।
भारत ने वैश्विक एकता के इस संदेश को फैलाने और संकीर्ण, पक्षपातपूर्ण राजनीति को नकारने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग में आयोजित सम्मेलन- जिसमें नेहरू और इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री सुकर्णो ने नेतृत्व किया और कई अन्य नवस्वतंत्र देशों के नेता शामिल हुए- इन नैतिक मूल्यों के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था।
दु:ख की बात है कि आज भारत में समूहों के प्रति घृणा बढ़ रही है, जबकि हमने कभी सार्वभौमिकता का संदेश फैलाने में अहम भूमिका निभाई थी। जब दुनिया संघर्ष और शोषण से जूझ रही है, तब हमारा कर्तव्य है कि हम नैतिक मूल्यों को अपनाएं, सभी के अधिकारों के लिए खड़े हों, और खुद को बार-बार याद दिलाएं कि किसी भी व्यक्ति का दु:ख, गरीबी और वंचना सबके लिए शर्म की बात है।
- अगर आपको किसी देश या समुदाय का गलत व्यवहार पसंद नहीं है, तो आपको वैसा ही व्यवहार हरगिज नहीं अपनाना चाहिए। लेकिन ठीक यही काम आज वे लोग कर रहे हैं, जो देश में साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
दुनिया कठिन समय से गुजर रही है। इतिहास में शायद ही कभी हमने एक साथ इतनी बुरी खबरें आते देखी हों। यूक्रेन और मध्य-पूर्व में चल रहे युद्धों के कारण निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। वैश्विक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति बाधित हो रही है। हम दुनियाभर में लोकतंत्र का क्षरण देख रहे हैं। ऐसे नेताओं का उदय हो रहा है जिन्हें केवल अपनी सत्ता की परवाह है, आम इंसानों के लिए उनके मन में कोई सहानुभूति या चिंता नहीं है।
प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचला जा रहा है। कई देशों में आम नागरिकों के विरोध-प्रदर्शनों को बेरहमी से दबाया जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह सब डिजिटल तकनीक के बढ़ते प्रभाव और एआई की तरक्की से हो रहा है। कुछ का कहना है सोशल मीडिया और फेक न्यूज इसकी जड़ में है। कुछ कहते हैं कि इस स्थिति की शुरुआत महामारी से हुई थी।
हम अलग-अलग देशों को दोष देते हैं, दूसरों पर उंगली उठाते हैं, और नेताओं और बड़े कॉरपोरेट प्रमुखों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इस सब में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन यहां मैं हमारी अपनी जिम्मेदारी की बात करना चाहता हूं। मुख्यधारा का अर्थशास्त्र- जिसकी शुरुआत 1776 में प्रकाशित एडम स्मिथ की प्रसिद्ध किताब से मानी जाती है- यह दिखाता है कि आर्थिक विकास और तरक्की इसलिए होती है क्योंकि लोग मुनाफा बढ़ाने और अपनी आय को अधिक से अधिक करने की कोशिश करते हैं। अर्थशास्त्री इसे यूटिलिटी मैक्सिमाइजेशन कहते हैं।
यही सोच मेहनत, उद्यम व इनोवेशन के लिए प्रेरित करती है। जिस बात का शायद ही कभी जिक्र होता है, लेकिन जो उतनी ही सच है, वो यह है कि किसी अर्थव्यवस्था के लंबे समय तक स्थिर रूप से विकसित होने के लिए सिर्फ मुनाफे की चाह काफी नहीं होती- हमें नैतिकता और भरोसे, ईमानदारी जैसे बुनियादी मूल्यों की भी जरूरत होती है। केनेथ ऐरो- जो दुनिया के सबसे महान अर्थशास्त्रियों में गिने जाते हैं- ने एक गणितीय मॉडल बनाया था, जिसमें उन्होंने एडम स्मिथ के इस विचार को औपचारिक रूप दिया था।
उन्होंने समझाया था कि किस तरह मुक्त बाजार और व्यक्तिगत उद्यम से समाज का भला हो सकता है। लेकिन 1978 में लिखे एक निबंध में ऐरो ने यह चेतावनी भी दी थी कि अगर स्वार्थ व मुनाफे की लालसा को बुनियादी मूल्यों से अलग कर दिया जाए, तो वह प्रणाली आर्थिक विनाश की ओर ले जाएगी। आज के इस कठिन समय में हमारे लिए यह याद रखना और ईमानदारी, विनम्रता और करुणा जैसे बुनियादी मानवीय मूल्यों को संजोना बेहद जरूरी है।
साथ ही, करुणा का मतलब सिर्फ अपनी जाति, धर्म, नस्ल या देश के लोगों के लिए करुणा नहीं होना चाहिए। दुनिया में कहीं भी अगर कोई इंसान दु:ख में है, तो वह पूरे मानव समाज के लिए एक त्रासदी है। यह जानना दिलचस्प है कि देश की स्थापना के समय भारत इन मूल्यों को अपनाने में दुनिया में अग्रणी था। आजादी के समय ये सिद्धांत भारत की बुनियाद का हिस्सा थे। हम इसे रबींद्रनाथ ठाकुर की कविता में देखते हैं। हम इसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषणों में देखते हैं।
भारत ने वैश्विक एकता के इस संदेश को फैलाने और संकीर्ण, पक्षपातपूर्ण राजनीति को नकारने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग में आयोजित सम्मेलन- जिसमें नेहरू और इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री सुकर्णो ने नेतृत्व किया और कई अन्य नवस्वतंत्र देशों के नेता शामिल हुए- इन नैतिक मूल्यों के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था।
दु:ख की बात है कि आज भारत में समूहों के प्रति घृणा बढ़ रही है, जबकि हमने कभी सार्वभौमिकता का संदेश फैलाने में अहम भूमिका निभाई थी। जब दुनिया संघर्ष और शोषण से जूझ रही है, तब हमारा कर्तव्य है कि हम नैतिक मूल्यों को अपनाएं, सभी के अधिकारों के लिए खड़े हों, और खुद को बार-बार याद दिलाएं कि किसी भी व्यक्ति का दु:ख, गरीबी और वंचना सबके लिए शर्म की बात है।
- अगर आपको किसी देश या समुदाय का गलत व्यवहार पसंद नहीं है, तो आपको वैसा ही व्यवहार हरगिज नहीं अपनाना चाहिए। लेकिन ठीक यही काम आज वे लोग कर रहे हैं, जो देश में साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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