किराए पर कब तक चलेंगे सेंट्रल स्कूल h3>
लेखकः सुबोध मेहता
भारत के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार की शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित है। इसमें भी सबसे अधिक स्कूली शिक्षा की व्यवस्था खराब हो रखी है। हाल यह है कि बिहार प्राथमिक स्कूलों में लगभग 75 प्रतिशत क्लासरूम की कमी है। कक्षा 1 से 8 तक चाहिए 8 लाख टीचर, मगर हैं लगभग 3 लाख 75 हजार।
राइट टू एजुकेशन के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चे पर होने वाला खर्च देखें, तो पाते हैं कि सभी राज्यों को 18029 रुपये खर्च करने है। 2018 की एमएचआरडी की रिपोर्ट बताती है कि बिहार में प्रति विद्यार्थी हर साल प्राथमिक शिक्षा के मद में 7453 और माध्यमिक शिक्षा में 6020 रुपये खर्च करती है। यह तस्वीर तब और साफ होती है, जब हम बिहार की तुलना अन्य प्रदेशों, केंद्रीय विद्यालय संगठन या नवोदय विद्यालय से करते हैं। केंद्रीय विद्यालय लगभग 35000 रुपये प्रति विद्यार्थी खर्च कर रहा है। नवोदय विद्यालय प्रति विद्यार्थी 85000 खर्च करता है। गोवा लगभग 68000, दिल्ली 78000, हिमाचल प्रदेश 60000, तमिलनाडु 23000, केरल लगभग 39000 और कर्नाटक लगभग 22000 रुपये प्रति विद्यार्थी खर्च करते हैं।

मगर यही केंद्रीय विद्यालय जब बिहार में होते हैं तो इनकी हाल राज्य की खस्ता शिक्षा व्यवस्था से अलग नहीं दिखती। आज भारत में 1248 सेंट्रल स्कूल हैं, जबकि 3 स्कूल भारत के बाहर मॉस्को, तेहरान और काठमांडू में हैं। एक स्कूल भूटान सरकार को ट्रांसफर कर दिया गया है, जो अब इंडो-भूटान सेंट्रल स्कूल के नाम से जाना जाता है। 1248 केंद्रीय विद्यालयों में से 48 बिहार में हैं। इनमें सबसे पुराना सेंट्रल स्कूल जवाहर नगर में है, जो 1965-66 में खुला था। इसके बाद गया में केंद्रीय विद्यालय 1967-68 में खुला था।
बिहार के 48 केंद्रीय विद्यालयों में से 39 सिविल सेक्टर के हैं, 6 डिफेंस के 3 प्रॉजेक्ट सेक्टर के हैं। 39 सिविल सेक्टर केंद्रीय विद्यालयों में से 19 के पास अपनी इमारत नहीं है। वे किराए की इमारतों में चल रहे हैं। जिन सेंट्रल स्कूलों के पास अपनी इमारत है, उसमें हर एक में औसतन लगभग 1500 विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। मगर जिनके पास अपनी इमारत नहीं है, उसमें से हर एक में 450 से ज्यादा बच्चे नामांकित ही नहीं हो पाते। स्थायी भवन के लिए अगर राज्य सरकार जमीन दे देती, तो जितने विद्यार्थी पढ़ रहे हैं, उससे तीन गुना अधिक को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मिलती।
1990 से 2005 के बीच में 19 सिविल सेक्टर के केंद्रीय विद्यालय बिहार में खुले। 2006 से 2022 तक सिविल सेक्टर के 9 केंद्रीय विद्यालय और खुले। जिन जिलों में एक भी केंद्रीय विद्यालय नहीं है, उन सभी में विद्यालय बनाने का प्रस्ताव 2016 में भारत सरकार ने मंत्रालय की योजना में शामिल किया। छह साल पहले कैमूर, शेखपुरा, मधुबनी, मधेपुरा, सुपौल, अरवल, नवादा जिलों के लिए प्रदेश सरकार से प्रस्ताव मांगा गया, जो अभी तक भेजा ही नहीं गया। 2018 में भारत सरकार के मानव संसाधन विकास विभाग ने देश भर में कुल 13 केंद्रीय विद्यालयों के लिए स्वीकृति दी, जिसमें से 2 विद्यालय बिहार को मिले। एक नवादा जिले के नवादा में और दूसरा औरंगाबाद जिले के देवकुंड में। देश भर के बाकी 11 सेंट्रल स्कूल बनकर चलने लगे, मगर बिहार के इन दोनों स्कूलों में पिछले चार सालों से सत्र ही नहीं शुरू हुआ है। यह हाल तब है, जब केंद्र सरकार इन स्कूलों का 100 फीसदी खर्च उठाती है, सिर्फ जमीन राज्य को देनी होती है।
बिहार सरकार पिछले 5 वर्षों से केंद्रीय विद्यालय संगठन को पत्र लिख रही है कि केंद्रीय विद्यालय की स्थापना के लिए फ्री में वह जमीन तब देगी, जब उसे उनमें 75 फीसदी स्थानीय बच्चों के ही नामांकन करने की अंडरटेकिंग दी जाए। बिहार सरकार की यह शर्त सिरे से बेवजह की है। केंद्रीय विद्यालय संगठन की रिपोर्ट कहती है कि सभी केंद्रीय विद्यालयों में यह संख्या पहले ही 82 से लेकर 100 प्रतिशत है। सिविल सेक्टर में ही सभी प्रस्ताव स्वीकृत हैं, जहां स्थानीय बच्चों का नामांकन 100 फीसदी तक है। इस तरह की शर्तें लगाने से अच्छा था कि बिहार सरकार यही रिपोर्ट देख लेती तो कम से कम 50 हजार बच्चों को हर साल टॉप लेवल की एजुकेशन मिल सकती थी।
लेखकः सुबोध मेहता
भारत के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार की शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित है। इसमें भी सबसे अधिक स्कूली शिक्षा की व्यवस्था खराब हो रखी है। हाल यह है कि बिहार प्राथमिक स्कूलों में लगभग 75 प्रतिशत क्लासरूम की कमी है। कक्षा 1 से 8 तक चाहिए 8 लाख टीचर, मगर हैं लगभग 3 लाख 75 हजार।
राइट टू एजुकेशन के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चे पर होने वाला खर्च देखें, तो पाते हैं कि सभी राज्यों को 18029 रुपये खर्च करने है। 2018 की एमएचआरडी की रिपोर्ट बताती है कि बिहार में प्रति विद्यार्थी हर साल प्राथमिक शिक्षा के मद में 7453 और माध्यमिक शिक्षा में 6020 रुपये खर्च करती है। यह तस्वीर तब और साफ होती है, जब हम बिहार की तुलना अन्य प्रदेशों, केंद्रीय विद्यालय संगठन या नवोदय विद्यालय से करते हैं। केंद्रीय विद्यालय लगभग 35000 रुपये प्रति विद्यार्थी खर्च कर रहा है। नवोदय विद्यालय प्रति विद्यार्थी 85000 खर्च करता है। गोवा लगभग 68000, दिल्ली 78000, हिमाचल प्रदेश 60000, तमिलनाडु 23000, केरल लगभग 39000 और कर्नाटक लगभग 22000 रुपये प्रति विद्यार्थी खर्च करते हैं।
मगर यही केंद्रीय विद्यालय जब बिहार में होते हैं तो इनकी हाल राज्य की खस्ता शिक्षा व्यवस्था से अलग नहीं दिखती। आज भारत में 1248 सेंट्रल स्कूल हैं, जबकि 3 स्कूल भारत के बाहर मॉस्को, तेहरान और काठमांडू में हैं। एक स्कूल भूटान सरकार को ट्रांसफर कर दिया गया है, जो अब इंडो-भूटान सेंट्रल स्कूल के नाम से जाना जाता है। 1248 केंद्रीय विद्यालयों में से 48 बिहार में हैं। इनमें सबसे पुराना सेंट्रल स्कूल जवाहर नगर में है, जो 1965-66 में खुला था। इसके बाद गया में केंद्रीय विद्यालय 1967-68 में खुला था।
बिहार के 48 केंद्रीय विद्यालयों में से 39 सिविल सेक्टर के हैं, 6 डिफेंस के 3 प्रॉजेक्ट सेक्टर के हैं। 39 सिविल सेक्टर केंद्रीय विद्यालयों में से 19 के पास अपनी इमारत नहीं है। वे किराए की इमारतों में चल रहे हैं। जिन सेंट्रल स्कूलों के पास अपनी इमारत है, उसमें हर एक में औसतन लगभग 1500 विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। मगर जिनके पास अपनी इमारत नहीं है, उसमें से हर एक में 450 से ज्यादा बच्चे नामांकित ही नहीं हो पाते। स्थायी भवन के लिए अगर राज्य सरकार जमीन दे देती, तो जितने विद्यार्थी पढ़ रहे हैं, उससे तीन गुना अधिक को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मिलती।
1990 से 2005 के बीच में 19 सिविल सेक्टर के केंद्रीय विद्यालय बिहार में खुले। 2006 से 2022 तक सिविल सेक्टर के 9 केंद्रीय विद्यालय और खुले। जिन जिलों में एक भी केंद्रीय विद्यालय नहीं है, उन सभी में विद्यालय बनाने का प्रस्ताव 2016 में भारत सरकार ने मंत्रालय की योजना में शामिल किया। छह साल पहले कैमूर, शेखपुरा, मधुबनी, मधेपुरा, सुपौल, अरवल, नवादा जिलों के लिए प्रदेश सरकार से प्रस्ताव मांगा गया, जो अभी तक भेजा ही नहीं गया। 2018 में भारत सरकार के मानव संसाधन विकास विभाग ने देश भर में कुल 13 केंद्रीय विद्यालयों के लिए स्वीकृति दी, जिसमें से 2 विद्यालय बिहार को मिले। एक नवादा जिले के नवादा में और दूसरा औरंगाबाद जिले के देवकुंड में। देश भर के बाकी 11 सेंट्रल स्कूल बनकर चलने लगे, मगर बिहार के इन दोनों स्कूलों में पिछले चार सालों से सत्र ही नहीं शुरू हुआ है। यह हाल तब है, जब केंद्र सरकार इन स्कूलों का 100 फीसदी खर्च उठाती है, सिर्फ जमीन राज्य को देनी होती है।
बिहार सरकार पिछले 5 वर्षों से केंद्रीय विद्यालय संगठन को पत्र लिख रही है कि केंद्रीय विद्यालय की स्थापना के लिए फ्री में वह जमीन तब देगी, जब उसे उनमें 75 फीसदी स्थानीय बच्चों के ही नामांकन करने की अंडरटेकिंग दी जाए। बिहार सरकार की यह शर्त सिरे से बेवजह की है। केंद्रीय विद्यालय संगठन की रिपोर्ट कहती है कि सभी केंद्रीय विद्यालयों में यह संख्या पहले ही 82 से लेकर 100 प्रतिशत है। सिविल सेक्टर में ही सभी प्रस्ताव स्वीकृत हैं, जहां स्थानीय बच्चों का नामांकन 100 फीसदी तक है। इस तरह की शर्तें लगाने से अच्छा था कि बिहार सरकार यही रिपोर्ट देख लेती तो कम से कम 50 हजार बच्चों को हर साल टॉप लेवल की एजुकेशन मिल सकती थी।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं