एन. रघुरामन का कॉलम: हर शहर में ऐतिहासिक रूप से समृद्ध गलियां हैं, उनके बारे में बात करें h3>
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7 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
सालों पहले जब मैं पहले आधिकारिक दौरे पर लखनऊ गया, तो मुझे अमीनाबाद की अरोरा की अचार शॉप जाने का मौका मिला, जहां अरोरा की मिर्ची का अचार और नवरत्न चटनी चखी। फिर हम 150 साल पुरानी नेतराम हलवाई की दुकान पर गए और वहां से कचौड़ी, आलू तरी, सूखा आलू के साथ चटनी से भरपूर थाली का आनंद लिया।
मुझे बताया गया कि लखनऊ के कुछ सबसे लोकप्रिय व्यंजन पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं और कुछ परिवारों ने सीक्रेट रेसिपी सहेजकर अनोखे स्वाद को बरकरार रखा है और किसी भी अन्य शहर से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। तब मेरा परिचय कुछ प्रामाणिक नवाबी शैली के ज़ायके से हुआ।
जो लोग लखनऊ में अमीनाबाद को नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि ये ऐतिहासिक बाजार अपने जीवंत माहौल, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है। ये इलाका मुगल व अवधी स्थापत्य शैली के मिश्रण को दर्शाता है और यहां उस काल के सांस्कृतिक प्रभाव देख सकते हैं।
यह सदियों से व्यापार व वाणिज्य का भी केंद्र रहा है। ये पारंपरिक वस्त्रों, आभूषणों, हस्तशिल्प सहित उत्पादों की विविध शृंखला के लिए प्रसिद्ध है और विशेष रूप से अपनी जीवंत चिकन कढ़ाई के लिए जाना जाता है, जो लखनऊ के शिल्प कौशल की पहचान है।
कुल मिलाकर कहें तो अमीनाबाद सिर्फ बाज़ार नहीं है; सांस्कृतिक केंद्र है जो एक ऐसे शहर के रूप में लखनऊ की प्रतिष्ठा को दर्शाता है जो संस्कृति, विरासत, आतिथ्य, शालीन जीवन व समृद्ध व्यंजनों का प्रतीक है, जो आज भी कायम है। भारतीय उपमहाद्वीप की कला, इतिहास, संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए लखनऊ जरूर जाना चाहिए।
अतीत की यादें तब दिमाग में तैर गईं, जब मुझे ‘लखनऊ की गली-कूचे’ थीम पर 31 जनवरी से 4 फरवरी 2025 तक आयोजित होने वाले महिंद्रा सनतकदा लखनऊ फेस्टिवल का आमंत्रण मिला। ये फेस्टिवल लखनऊ की उन गलियों पर रोशनी डालेगा जो अपने अंदर अनगिनत कहानियां समेटे हैं।
इसमें ऐसी 25 मशहूर गलियों को शॉर्टलिस्ट किया है, जो ख्यात हस्तियों से जुड़ी हैं। इनमें बाम्बे वाली गली, बताशे वाली गली, पुलाव वाली गली और बर्तन वाली गली हैं, क्योंकि इन सभी गलियों में कई अनकही और अज्ञात बातें हैं, जिनके बारे में लोग नहीं जानते और आयोजक इन गलियों से आने वाले लोगों की जिंदगी व इसके इतिहास का दस्तावेजीकरण करना चाहते हैं।
इसमें हेरिटेज वॉक और टूर होंगे, जिसमें अमीनाबाद और राजा बाजार का पैदल भ्रमण सबसे महत्वपूर्ण होगा। महोत्सव का मुख्य आकर्षण विशेष रूप से लखनऊ की गलियों पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्में होंगी, जैसे ‘कहानी हर मोड़ पर’, ‘गलियों के साथी’ और ‘हमारी दुनिया’ दिखाई जाएंगी।
मेरा सवाल है कि यदि लखनऊ ऐसा कर सकता है, तो अन्य कस्बे-शहर ऐसा क्यों नहीं कर सकते, भले ही उनका आकार कुछ भी हो और वे कहीं के भी हों। जो बच्चे काम या लिखाई-पढ़ाई के सिलसिले में उन शहरों से दूर चले गए हैं, वे उनके एम्बेसडर बन सकते हैं और एक अलग जीवनशैली का अनुभव करने के लिए नए दोस्त ला सकते हैं।
चूंकि हमारे देश में हर 100 किलोमीटर पर अलग-अलग पकवान देखने को मिलते हैं, ऐसे में इस तरह के फेस्टिवल उस पीढ़ी को एक अलग तरह का प्रसार दे सकते हैं जो हमेशा कुछ नया प्रयोग करना चाहती है। ऐसा कोई शहर नहीं हो सकता, जिसमें कहानियां न हों।
आज जो बच्चे स्कूली पढ़ाई में सिर्फ किताबों में ही अपना सिर घुसाए रहते हैं, जैसे कि शुतुरमुर्ग अपना सिर रेत में छिपाती है, ऐसे बच्चे अपने ही शहर की समृद्ध संस्कृति को जाने बिना बेहतर अवसर के लिए शहर छोड़ देते हैं। ऐसे फेस्टिवल शहर के गौरव को दिखाते हैं, अगली पीढ़ी को यह भूलने नहीं देते कि वे किस स्थान पर पले-बढ़े हैं।
फंडा यह है कि हर शहर को इसे आजमाना चाहिए और उन इलाकों के बारे में बताना चािहए, जिनकी कुछ अनोखी कहानियां हैं और दुनिया इससे महरूम है। इससे न केवल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि शहर की संस्कृति को अगली पीढ़ी को सौंपने से शहर के इतिहास को लंबे समय तक जीवित रखने का लक्ष्य पूरा होता है।
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सालों पहले जब मैं पहले आधिकारिक दौरे पर लखनऊ गया, तो मुझे अमीनाबाद की अरोरा की अचार शॉप जाने का मौका मिला, जहां अरोरा की मिर्ची का अचार और नवरत्न चटनी चखी। फिर हम 150 साल पुरानी नेतराम हलवाई की दुकान पर गए और वहां से कचौड़ी, आलू तरी, सूखा आलू के साथ चटनी से भरपूर थाली का आनंद लिया।
मुझे बताया गया कि लखनऊ के कुछ सबसे लोकप्रिय व्यंजन पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं और कुछ परिवारों ने सीक्रेट रेसिपी सहेजकर अनोखे स्वाद को बरकरार रखा है और किसी भी अन्य शहर से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। तब मेरा परिचय कुछ प्रामाणिक नवाबी शैली के ज़ायके से हुआ।
जो लोग लखनऊ में अमीनाबाद को नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि ये ऐतिहासिक बाजार अपने जीवंत माहौल, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है। ये इलाका मुगल व अवधी स्थापत्य शैली के मिश्रण को दर्शाता है और यहां उस काल के सांस्कृतिक प्रभाव देख सकते हैं।
यह सदियों से व्यापार व वाणिज्य का भी केंद्र रहा है। ये पारंपरिक वस्त्रों, आभूषणों, हस्तशिल्प सहित उत्पादों की विविध शृंखला के लिए प्रसिद्ध है और विशेष रूप से अपनी जीवंत चिकन कढ़ाई के लिए जाना जाता है, जो लखनऊ के शिल्प कौशल की पहचान है।
कुल मिलाकर कहें तो अमीनाबाद सिर्फ बाज़ार नहीं है; सांस्कृतिक केंद्र है जो एक ऐसे शहर के रूप में लखनऊ की प्रतिष्ठा को दर्शाता है जो संस्कृति, विरासत, आतिथ्य, शालीन जीवन व समृद्ध व्यंजनों का प्रतीक है, जो आज भी कायम है। भारतीय उपमहाद्वीप की कला, इतिहास, संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए लखनऊ जरूर जाना चाहिए।
अतीत की यादें तब दिमाग में तैर गईं, जब मुझे ‘लखनऊ की गली-कूचे’ थीम पर 31 जनवरी से 4 फरवरी 2025 तक आयोजित होने वाले महिंद्रा सनतकदा लखनऊ फेस्टिवल का आमंत्रण मिला। ये फेस्टिवल लखनऊ की उन गलियों पर रोशनी डालेगा जो अपने अंदर अनगिनत कहानियां समेटे हैं।
इसमें ऐसी 25 मशहूर गलियों को शॉर्टलिस्ट किया है, जो ख्यात हस्तियों से जुड़ी हैं। इनमें बाम्बे वाली गली, बताशे वाली गली, पुलाव वाली गली और बर्तन वाली गली हैं, क्योंकि इन सभी गलियों में कई अनकही और अज्ञात बातें हैं, जिनके बारे में लोग नहीं जानते और आयोजक इन गलियों से आने वाले लोगों की जिंदगी व इसके इतिहास का दस्तावेजीकरण करना चाहते हैं।
इसमें हेरिटेज वॉक और टूर होंगे, जिसमें अमीनाबाद और राजा बाजार का पैदल भ्रमण सबसे महत्वपूर्ण होगा। महोत्सव का मुख्य आकर्षण विशेष रूप से लखनऊ की गलियों पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्में होंगी, जैसे ‘कहानी हर मोड़ पर’, ‘गलियों के साथी’ और ‘हमारी दुनिया’ दिखाई जाएंगी।
मेरा सवाल है कि यदि लखनऊ ऐसा कर सकता है, तो अन्य कस्बे-शहर ऐसा क्यों नहीं कर सकते, भले ही उनका आकार कुछ भी हो और वे कहीं के भी हों। जो बच्चे काम या लिखाई-पढ़ाई के सिलसिले में उन शहरों से दूर चले गए हैं, वे उनके एम्बेसडर बन सकते हैं और एक अलग जीवनशैली का अनुभव करने के लिए नए दोस्त ला सकते हैं।
चूंकि हमारे देश में हर 100 किलोमीटर पर अलग-अलग पकवान देखने को मिलते हैं, ऐसे में इस तरह के फेस्टिवल उस पीढ़ी को एक अलग तरह का प्रसार दे सकते हैं जो हमेशा कुछ नया प्रयोग करना चाहती है। ऐसा कोई शहर नहीं हो सकता, जिसमें कहानियां न हों।
आज जो बच्चे स्कूली पढ़ाई में सिर्फ किताबों में ही अपना सिर घुसाए रहते हैं, जैसे कि शुतुरमुर्ग अपना सिर रेत में छिपाती है, ऐसे बच्चे अपने ही शहर की समृद्ध संस्कृति को जाने बिना बेहतर अवसर के लिए शहर छोड़ देते हैं। ऐसे फेस्टिवल शहर के गौरव को दिखाते हैं, अगली पीढ़ी को यह भूलने नहीं देते कि वे किस स्थान पर पले-बढ़े हैं।
फंडा यह है कि हर शहर को इसे आजमाना चाहिए और उन इलाकों के बारे में बताना चािहए, जिनकी कुछ अनोखी कहानियां हैं और दुनिया इससे महरूम है। इससे न केवल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि शहर की संस्कृति को अगली पीढ़ी को सौंपने से शहर के इतिहास को लंबे समय तक जीवित रखने का लक्ष्य पूरा होता है।
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