एन. रघुरामन का कॉलम: क्या युवा पीढ़ी डिजिटल डिमेंशिया का शिकार होती जा रही है? h3>
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1 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
रविवार की सुबह मैंने इंदौर में बिना जीपीएस का उपयोग किए गाड़ी चलाई और वो जगह ढूंढने में सफल रहा, जहां 21 साल पहले विजयनगर के भीड़भाड़ वाले इलाके में मैं जाया करता था। इसमें मुझे शायद पांच मिनट ज्यादा लगे, लेकिन रविवार को ट्रैफिक न होने के कारण मैं अपनी याददाश्त का सहारा लेकर आसानी से स्थान ढूंढ पाया। अब मैं अपने जीवन में ज्यादा से ज्यादा दिमाग पर जोर डालने वाले काम कर रहा हूं।
इसका मतलब है कि मैं अनजान जगहों पर भी जीपीएस बंद कर देता हूं। जब मुझे पते याद रखने होते हैं और वहां पहुंचने का रास्ता जानना होता है, तो मैं हाथ से नोट्स बनाता हूं। मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं? लंबे समय तक मैं मुंबई में भी जीपीएस पर निर्भर रहा, जहां मैं पिछले 45 सालों से रह रहा हूं। ऐसा नहीं था कि मुझे रास्ते नहीं पता थे, बल्कि जीपीएस वैकल्पिक रास्ते दिखाता था जो मुझे मेरी मंजिल तक तेजी से पहुंचाते थे।
धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि जितना अधिक मैं जीपीएस का प्रयोग करता हूं, उतना ही मैं अपने आप रास्ता खोजने में कमजोर होता जा रहा हूं। ये पहले से ही कई लोगों के साथ हो चुका है जब बात मोबाइल में कॉन्टैक्ट्स की आती है, तो अधिकांश लोग अब कॉन्टैक्ट्स याद रखने की चिंता नहीं करते, जिससे हम धीरे-धीरे ‘डिजिटल डिमेंशिया’ के जाल में फंस जाते हैं।
डिजिटल डिमेंशिया क्या है? यह इंटरनेट और इंटरनेट-से जुड़े उपकरणों पर अत्यधिक निर्भरता है, जो संज्ञानात्मक हानि का कारण बनती है, जैसे कि ध्यान में कमी और स्मृति अवधि में कमी। यह प्रारंभिक डिमेंशिया की शुरुआत को भी तेज कर सकती है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि स्मार्टफोन का उपयोग मस्तिष्क के बाएं हिस्से को उत्तेजित करता है, जबकि दायां हिस्सा, जो ध्यान से जुड़ा होता है, उसका इस्तेमाल ही नहीं हो पाता और अंततः कमजोर हो जाता है। इससे भूलने की बीमारी बढ़ गई है, क्योंकि उपयोगकर्ता अपने स्मार्टफोन पर छोटी से छोटी जानकारी याद रखने के लिए भी निर्भर रहते हैं। उस दिन बाद में, जब मैं कुछ सैकड़ों छात्रों को संबोधित कर रहा था, तो मुझे एहसास हुआ कि युवा पहले से ही डिजिटल डिमेंशिया के चंगुल में हैं।
मैं उनसे मेनिफेस्टेशन यानी सकारात्मक कल्पना की कला के बारे में बात कर रहा था, और कैसे यह परीक्षाओं में उनके अंक सुधार सकती है। मैंने उन्हें कुछ प्रश्न दिए और उनसे समय लेकर सावधानीपूर्वक जवाब लिखने का अनुरोध किया क्योंकि वाक्यों में गलत शब्दों का उपयोग मेनिफेस्टेशन के अर्थ को पूरी तरह से बदल सकता है।
दुर्भाग्यवश, उन्होंने सही शब्दों के चयन में चैटजीपीटी नामक एआई टूल का सहारा लिया, जबकि यह सोच-विचार वाला मूल काम था। वे जानते थे कि वे क्या चाहते हैं, लेकिन इसे समेट नहीं पाए या उन्हें सही शब्द नहीं मिल पाए जो उनके विचारों को सबसे अच्छे तरीके से व्यक्त कर सकें।
ऐसा इसलिए है क्योंकि वे आलसी हो गए हैं और सोचते हैं कि उन्हें कुछ ऐसा करना चाहिए जो एक साधारण टूल उनके लिए कर सकता है। जैसे कागजी कैलेंडर लंबे समय तक अपॉइंटमेंट्स रखते थे, और हमारे दिमाग के एक कोने में हम उन्हें याद रखते थे, लेकिन आज डिजिटल कैलेंडर हमें अलर्ट करते हैं जब हमें अपॉइंटमेंट के लिए जाना होता है, इसलिए हम उन्हें कभी याद नहीं रखते और दिमाग का वह कोना अप्रयुक्त रह जाता है।
जो लोग नियमित रूप से डिजिटल मदद पर निर्भर रहते हैं, वे अकेले काम करने की क्षमता खो सकते हैं। जैसे-जैसे हम डिजिटल युग में आगे बढ़ रहे हैं, यह जानना महत्वपूर्ण है कि हम जिस तकनीक का उपयोग करते हैं, वह हमारे मानसिक स्वास्थ्य और संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली को कैसे प्रभावित करती है। अब सवाल यह है कि हमें यह तय करना होगा कि कौन सी क्षमताएं हमें खुद करनी चाहिए और कौन सी नई टूल्स को सौंपनी चाहिए। यह स्पष्टता हमारे मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
फंडा यह है कि जैसे आप शारीरिक सेहत को फिट रखने के लिए लिफ्ट के बजाय सीढ़ियों का उपयोग करने के लिए खुद को मजबूर करते हैं, वैसे ही जब आपका दिमाग चुनौती का सामना करता है, तो इन एआई टूल्स को बंद कर दें। यह आपको भविष्य के डिजिटल डिमेंशिया से बचाएगा।
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रविवार की सुबह मैंने इंदौर में बिना जीपीएस का उपयोग किए गाड़ी चलाई और वो जगह ढूंढने में सफल रहा, जहां 21 साल पहले विजयनगर के भीड़भाड़ वाले इलाके में मैं जाया करता था। इसमें मुझे शायद पांच मिनट ज्यादा लगे, लेकिन रविवार को ट्रैफिक न होने के कारण मैं अपनी याददाश्त का सहारा लेकर आसानी से स्थान ढूंढ पाया। अब मैं अपने जीवन में ज्यादा से ज्यादा दिमाग पर जोर डालने वाले काम कर रहा हूं।
इसका मतलब है कि मैं अनजान जगहों पर भी जीपीएस बंद कर देता हूं। जब मुझे पते याद रखने होते हैं और वहां पहुंचने का रास्ता जानना होता है, तो मैं हाथ से नोट्स बनाता हूं। मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं? लंबे समय तक मैं मुंबई में भी जीपीएस पर निर्भर रहा, जहां मैं पिछले 45 सालों से रह रहा हूं। ऐसा नहीं था कि मुझे रास्ते नहीं पता थे, बल्कि जीपीएस वैकल्पिक रास्ते दिखाता था जो मुझे मेरी मंजिल तक तेजी से पहुंचाते थे।
धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि जितना अधिक मैं जीपीएस का प्रयोग करता हूं, उतना ही मैं अपने आप रास्ता खोजने में कमजोर होता जा रहा हूं। ये पहले से ही कई लोगों के साथ हो चुका है जब बात मोबाइल में कॉन्टैक्ट्स की आती है, तो अधिकांश लोग अब कॉन्टैक्ट्स याद रखने की चिंता नहीं करते, जिससे हम धीरे-धीरे ‘डिजिटल डिमेंशिया’ के जाल में फंस जाते हैं।
डिजिटल डिमेंशिया क्या है? यह इंटरनेट और इंटरनेट-से जुड़े उपकरणों पर अत्यधिक निर्भरता है, जो संज्ञानात्मक हानि का कारण बनती है, जैसे कि ध्यान में कमी और स्मृति अवधि में कमी। यह प्रारंभिक डिमेंशिया की शुरुआत को भी तेज कर सकती है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि स्मार्टफोन का उपयोग मस्तिष्क के बाएं हिस्से को उत्तेजित करता है, जबकि दायां हिस्सा, जो ध्यान से जुड़ा होता है, उसका इस्तेमाल ही नहीं हो पाता और अंततः कमजोर हो जाता है। इससे भूलने की बीमारी बढ़ गई है, क्योंकि उपयोगकर्ता अपने स्मार्टफोन पर छोटी से छोटी जानकारी याद रखने के लिए भी निर्भर रहते हैं। उस दिन बाद में, जब मैं कुछ सैकड़ों छात्रों को संबोधित कर रहा था, तो मुझे एहसास हुआ कि युवा पहले से ही डिजिटल डिमेंशिया के चंगुल में हैं।
मैं उनसे मेनिफेस्टेशन यानी सकारात्मक कल्पना की कला के बारे में बात कर रहा था, और कैसे यह परीक्षाओं में उनके अंक सुधार सकती है। मैंने उन्हें कुछ प्रश्न दिए और उनसे समय लेकर सावधानीपूर्वक जवाब लिखने का अनुरोध किया क्योंकि वाक्यों में गलत शब्दों का उपयोग मेनिफेस्टेशन के अर्थ को पूरी तरह से बदल सकता है।
दुर्भाग्यवश, उन्होंने सही शब्दों के चयन में चैटजीपीटी नामक एआई टूल का सहारा लिया, जबकि यह सोच-विचार वाला मूल काम था। वे जानते थे कि वे क्या चाहते हैं, लेकिन इसे समेट नहीं पाए या उन्हें सही शब्द नहीं मिल पाए जो उनके विचारों को सबसे अच्छे तरीके से व्यक्त कर सकें।
ऐसा इसलिए है क्योंकि वे आलसी हो गए हैं और सोचते हैं कि उन्हें कुछ ऐसा करना चाहिए जो एक साधारण टूल उनके लिए कर सकता है। जैसे कागजी कैलेंडर लंबे समय तक अपॉइंटमेंट्स रखते थे, और हमारे दिमाग के एक कोने में हम उन्हें याद रखते थे, लेकिन आज डिजिटल कैलेंडर हमें अलर्ट करते हैं जब हमें अपॉइंटमेंट के लिए जाना होता है, इसलिए हम उन्हें कभी याद नहीं रखते और दिमाग का वह कोना अप्रयुक्त रह जाता है।
जो लोग नियमित रूप से डिजिटल मदद पर निर्भर रहते हैं, वे अकेले काम करने की क्षमता खो सकते हैं। जैसे-जैसे हम डिजिटल युग में आगे बढ़ रहे हैं, यह जानना महत्वपूर्ण है कि हम जिस तकनीक का उपयोग करते हैं, वह हमारे मानसिक स्वास्थ्य और संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली को कैसे प्रभावित करती है। अब सवाल यह है कि हमें यह तय करना होगा कि कौन सी क्षमताएं हमें खुद करनी चाहिए और कौन सी नई टूल्स को सौंपनी चाहिए। यह स्पष्टता हमारे मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
फंडा यह है कि जैसे आप शारीरिक सेहत को फिट रखने के लिए लिफ्ट के बजाय सीढ़ियों का उपयोग करने के लिए खुद को मजबूर करते हैं, वैसे ही जब आपका दिमाग चुनौती का सामना करता है, तो इन एआई टूल्स को बंद कर दें। यह आपको भविष्य के डिजिटल डिमेंशिया से बचाएगा।
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