एन. रघुरामन का कॉलम: अगर हमें ही जागना है, तो सिक्योरिटी की क्या जरूरत?

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एन. रघुरामन का कॉलम:  अगर हमें ही जागना है, तो सिक्योरिटी की क्या जरूरत?

एन. रघुरामन का कॉलम: अगर हमें ही जागना है, तो सिक्योरिटी की क्या जरूरत?

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5 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

‘जागते रहो…ठक-ठक-ठक-ठक’ आधी रात को जब हम गहरी नींद में होते थे, तब सुनाई देने वाली ये आवाज सबको याद होगी, जहां उस पहरेदार के डंडा पटकने की आवाज धीरे-धीरे मद्धिम होती जाती थी। नींद खराब करने के लिए हम उसे कोसते और जैसे ही झपकी आने लगती, 30 मिनट में वो फिर वापस आता और वही दोहराता।

कभी दिमाग ऐसा खराब होता, “अगर हमें ही जागते रहना है, तो तुम सड़कों पर क्या कर रहे हो?’ और आखिर में अगली सुबह पता चलता कि तड़के 3.30 बजे कॉलोनी से उसके गायब होते ही किसी के घर में चोरी हो गई।

वो इसलिए क्योंकि वह तथाकथित नाइट वॉचमैन वही सब दोहराने के लिए किसी दूसरी कॉलोनी में चला गया था, क्योंकि इस कॉलोनी के हर घर से मिला पैसा इतना काफी नहीं था कि वह अपनी जरूरतें पूरी कर सके।

छोटे शहरों-कस्बों का चलन मुझे तब याद आया, जब मुंबई में बांद्रा की पॉश बिल्डिंग ‘सतगुरु शरण’ के बारे मेंं खबरें आईं, जहां सैफ अली खान अपने परिवार के साथ रहते हैं। हाल ही में उन पर हमला हुआ था। मालूम चला कि इस बिल्डिंग ने सुरक्षा का जिम्मा जिसे दिया था, वो सिक्योरिटी फर्म न होकर एक हाउसकीपिंग फर्म निकली, जिसका काम लोगों के घरों में सफाई का था।

इस एजेंसी के पास सिक्योरिटी सर्विस संचालित करने का लाइसेंस कभी था ही नहीं और इसने अपने कर्मचारियों का बैकग्राउंड चेक भी कभी नहीं किया और किसी भी अप्रिय घटना के लिए किसी को प्रशिक्षित नहीं किया, खासकर जब सैफ जैसे अमीर और जानेमाने लोग परिसर में रहते हैं।

अब जाहिर तौर पर नजरें सोसायटी प्रबंधन पर हैं, जो कि बुनियादी चीजों को जांचने-परखने में विफल रहा और सिर्फ इसलिए उस फर्म का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि वे बाकी फर्म की तुलना में कम दाम पर सेवाएं दे रही थी।

कम से कम ऐसी सोसाइटीज़ में, जहां मशहूर हस्तियां रहती हैं, एजेंसी की साख को अनिवार्य रूप से जांचना चाहिए, जो कि उन्होंने नहीं किया। जब से उजागर हुआ है कि सैफ का तथाकथित हमलावर शरीफुल फकीर आसानी से उनके चारमंजिला घर में दाखिल हो गया था, तब से बिल्डिंग की सुरक्षा कड़ी जांच के दायरे में आ गई है।

ऐसे हालात सिर्फ पॉश बिल्डिंग्स के साथ नहीं है, मुंबई की अधिकांश रिहायशी इमारतें खर्चा कम करने की इसी मानसिकता के साथ काम करती हैं और ऐसी कोई भी एजेंसी चुन लेती हैं, जो किसी को भी पकड़कर एक चमचमाती ड्रेस बस पहना देती है।

मेरा यकीन करें, इन सुरक्षा गार्ड्स पर एक नजर डालते ही कोई भी आम आदमी बता देगा कि वे लोग अपने घर लौटने के लिए दौड़कर बस भी नहीं पकड़ सकते और सोसायटी उनसे चोर के पीछे भागने की उम्मीद करती है! सिक्योरिटी हमारे देश में हंसी-खेल बन गई है।

कमियों की सूची बनाएं, तो दिखेगा कि कूबड़ निकले हुए गार्ड्स हैं, जो सीधा खड़े भी नहीं हो सकते, 60 साल से ऊपर के लोगों को भी भर्ती कर रहे हैं, पान चबाने वाले गार्ड हैं और 12 घंटे की लंबी शिफ्ट में उनके पास एक टॉयलेट तक नहीं है, जो कि शिफ्ट कई बार 24 घंटे की भी हो जाती है और गार्ड्स अपने लिए छोटे-से सिक्योरिटी रूम के बिना गेट पर खड़े रहते हैं।

यह सब, सिक्योरिटी नामक पेशे के प्रति हमारा ढुलमुल रवैया बताता है, और अपंजीकृत एजेंसी इस मानसिकता का लाभ उठाती हैं और ऐसे लोगों को तैनात करती है, जिनका सुरक्षा नामक शब्द से कोई संबंध नहीं है।

बिल्कुल यही बात चंद दिनों पहले मैंने अपने कॉलम में ‘रामू काका’ किरदार का जिक्र करते हुए लिखी थी, जो कि बगीचों में पानी भी देता है, यहां-वहां दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम भी करता है और सिक्योरिटी के लिए हमारे साथ खड़ा भी रहता है। जब हम एक समाज के रूप में, उचित प्रशिक्षण के बिना मल्टी टास्किंग करने के लिए सस्ते कामगार चुनते हैं, तो उम्मीद नहीं कर सकते कि वही चीप लेबर काम को परफेक्ट तरीके से करेगा।

फंडा यह है कि किसी संस्था प्रमुख या मालिक के मन में सस्ता लेबर चुनने की मानसिकता चलने लगती है, तो वह बैकग्राउंड चेक करने जैसी सरल प्रक्रियाओं के साथ समझौता करने लगते हैं और फिर ये लोग ताकत बनने के बजाय बोझ बन जाते हैं, जैसा कि सैफ की इमारत में हुआ।

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