उपेन्द्र कुशवाहा की चौथी पारी की राह आसान नहीं, लव-कुश वोट बैंक को अकेले समेट पाएंगे?

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उपेन्द्र कुशवाहा की चौथी पारी की राह आसान नहीं, लव-कुश वोट बैंक को अकेले समेट पाएंगे?

उपेन्द्र कुशवाहा की चौथी पारी की राह आसान नहीं, लव-कुश वोट बैंक को अकेले समेट पाएंगे?


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उपेन्द्र कुशवाहा ने एक बार फिर अपनी राह जदयू से अलग कर ली है। रालोजद नाम से नई पार्टी भी बनाकर वह इसके अध्यक्ष भी बन गए हैं। इसे लेकर पिछले 14 साल में वह तीन पार्टी बना चुके हैं। इसके अलावा वह एनसीपी में भी रह चुके हैं। बिहार की दो ध्रुवीय राजनीति में अभी एक ध्रुव- नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की अगुआई वाला महागठबंधन है तो दूसरा भाजपा नेतृत्व वाला एनडीए है। उनका भाजपा के साथ जाना तय माना जा रहा है। यदि ऐसा हुआ तो एनडीए के कुनबे में उनका दल एक नया सदस्य होगा। वैसे, उपेन्द्र की चौथी पारी की राह भी आसान नहीं होगी। 

अब तक उपेन्द्र कुशवाहा अकेले दम पर कुशवाहा वोटों का समर्थन हासिल करने में कामयाब नहीं हुए हैं। बहरहाल, भाजपा की रणनीति चाहे जो हो, सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उपेन्द्र कुशवाह के जदयू का साथ छोड़ने से बिहार की सियासत पर असर क्या होगा। इसके लिए जिस समाज से उपेन्द्र आते हैं, उसकी ताकत को बिहार की राजनीति में समझना होगा। वर्ष 2005 में नीतीश कुमार ने जब लालू प्रसाद को शिकस्त दी थी तो लव-कुश समाज का बड़ा योगदान था। पिछड़ों में यादव के बाद सबसे अधिक संख्या कुशवाहा समाज की है। जदयू का आधार वोट लव-कुश है। इन दोनों समाज को उचित सियासी प्रतिनिधित्व मिले, इसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का निर्णायक हस्तक्षेप भी रहता है। 

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कई कुशवाहा नेता अभी भी जेडीयू के साथ

कुशवाहा समाज से आने के कारण ही  कुशवाहा को जदयू में बार-बार जगह भी मिली है। ऐसे में उपेन्द्र की सबसे बड़ी चुनौती अपने समाज के वोटों को अपने साथ जोड़े रखने की होगी। पहले अपने समाज में कुशवाहा की जो भी हैसियत रही हो मगर आज इस समाज में सिर्फ वही एक बड़ा नाम नहीं हैं। बल्कि, भगवान सिंह कुशवाहा (जदयू), आलोक मेहता (राजद) और नागमणि के साथ ही जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा भी इस समाज में अच्छी पैठ रखते हैं। लेकिन, उपेन्द्र चूंकि जदयू में इस बार बड़े पद पर थे, इसलिए पार्टी कार्यकर्ताओं को तोड़ने की कोशिश करेंगे।

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उम्मीद थी, बड़ा पद मिलने पर पार्टी में टिककर रहेंगे

इस बार दो साल पहले वह जदयू से फिर जुड़े। पार्टी में उनको संसदीय बोर्ड का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। विधान पार्षद बनाया गया। उम्मीद थी कि बड़ा पद मिलने पर वह पार्टी में टिककर रहेंगे। लेकिन, महागठबंधन की सरकार बननी पर जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि वर्ष 2025 के चुनाव में तेजस्वी यादव महागठबंधन का चेहरा होंगे, तभी से उपेन्द्र की जदयू से दूरी बढ़ने लगी थी। वह नेतृत्व पर पार्टी गिरवी रखने और राजद से डील के आरोप लगाने लगे थे। माना जा रहा है कि उपेन्द्र चाहते थे कि नीतीश कुमार उनको उत्तराधिकारी घोषित करें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसकी परिणति सोमवार को उनके द्वारा नई पार्टी के गठन के रूप में सामने आई।

 

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