आरसीपी सिंह से पहले जॉर्ज फर्नांडीस, दिग्विजय सिंह, शरद यादव के भी नीतीश कुमार से बिगड़े थे रिश्ते, सब किनारे हो गए h3>
एक समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आंखों के तारा रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह से पहले भी समाजवादी आंदोलन की पार्टियों में जिन नेताओं के नीतीश से राजनीतिक मतभेद गहराए, उनके रास्ते अलग हुए और वो राजनीति में प्रासंगिकता के लिहाज से किनारे हो गए। बात चाहे जॉर्ज फर्नांडीस की हो या शरद यादव की या फिर बांका वाले दिग्विजय सिंह की। थोड़ी बहुत राजनीतिक प्रतिष्ठा बची रही तो दिग्विजय सिंह की जो नीतीश के कैंडिडेट को हराकर बांका से जीते लेकिन कुछ समय बाद लंदन में उनका निधन हो गया।
आरसीपी से नीतीश कुमार के रास्ते तभी अलग हो गए जब वो नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री बनने अकेले राजी हो गए। पार्टी ने उनको बीजेपी से ज्यादा से ज्यादा मंत्री पद लेने कहा था लेकिन वो इकलौते मंत्री और वो भी खुद ही बन गए। 2019 में जब मोदी की दूसरी सरकार बनी थी तब जेडीयू ने कम मंत्री पद मिलने के कारण सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था। 2021 में मोदी कैबिनेट के विस्तार में नीतीश की पार्टी सरकार में शामिल होने को तैयार हुई और माना जाता है कि लोकसभा में सांसदों की संख्या के आधार पर जेडीयू दो कैबिनेट और दो राज्यमंत्री का पद मांग रही थी।
आरसीपी सिंह का साथ नहीं छोड़ रहा 7 नंबर का साया, सांसद – मंत्री बनने से बंगला गंवाने तक
नीतीश कम से कम आरसीपी सिंह के साथ-साथ ललन सिंह को मंत्री जरूर बनाना चाहते थे। लेकिन मंत्री बने अकेले आरसीपी सिंह. इसके बाद की बयानबाजी से मामला ठीक होने के बदले खराब ही होता गया। एनआरसी का मुद्दा हो या जातीय गणना का या फिर बिहार को विशेष दर्जा देने की मांग हो, आरसीपी सिंह का सुर जेडीयू के सुर से कुछ ना कुछ अलग दिखता रहा। अब नतीजा ये है कि आरसीपी सिंह ना राज्यसभा में रहे, ना मोदी सरकार में और ना पार्टी में अब वो रुतबा रहा।
जेडीयू के ‘रामचन्द्र’ को मिल ही गया सियासी वनवास, आरसीपी सिंह के सामने अब दो ही विकल्प
पार्टी में आरसीपी सिंह के रुतबे का हाल तो यह है कि पार्टी का कोई नेता अब उनसे मिलने से भी कतराता है क्योंकि यह बात पार्टी के अंदर उसके खिलाफ जा सकती है। जिनको आरसीपी का आदमी कहा जाता था वो भी अब जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह के दरबार में नजर आते हैं। आरसीपी सिंह राजनीतिक रूप से फिलहाल अब एक पूर्व मंत्री, पूर्व सांसद और जेडीयू के सदस्य भर रह गए हैं। याद करते हैं आरसीपी से पहले के उन नेताओं को जो नीतीश से अलग हुए तो किनारे हो गए।
जिस मुजफ्फरपुर से जेल में रहते जीते थे जॉर्ज फर्नांडीस वहीं जमानत जब्त हो गई
कभी नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडीस को पहला झटका 2004 में लगा था जब शरद यादव अध्यक्ष बने थे। 2009 का लोकसभा चुनाव आते-आते रिश्ते और खराब हो चुके थे। फर्नांडीस की सेहत ठीक नहीं थी लेकिन वो मुजफ्फरपुर से लड़ना चाहते थे जिस सीट को 1977 में उन्होंने जेल में बंद रहते जीता था। नीतीश ने बीमारी की वजह से जॉर्ज के बदले मुजफ्फरपुर से कैप्टन जय नारायण निषाद को टिकट दिया और निषाद जीत भी गए। जॉर्ज की जमानत तक जब्त हो गई। कुछ महीने बाद शरद यादव के इस्तीफे से खाली हुई राज्यसभा सीट के चुनाव में वो निर्दलीय लड़े और नीतीश के समर्थन से जीते।
नीतीश से अलग होकर लड़े और बांका जीते दिग्विजय सिंह
जॉर्ज फर्नांडीस के ही करीबी शिष्य रहे दिग्विजय सिंह बांका से लोकसभा चुनाव लड़ते और जीतते थे। 2009 के चुनाव से पहले उनका रिश्ता भी नीतीश से खराब हो गया था। उनको भी टिकट नहीं मिला और बांका से जेडीयू का टिकट दामोदर रावत को दिया गया। दिग्विजय सिंह का दावा था कि बांका में वो सुशासन बाबू से ज्यादा लोकप्रिय हैं। दिग्विजय सिंह बांका खुद से लड़ गए और जीत भी गए। जेडीयू तीसरे नंबर पर चली गई। एक साल बाद लंदन में ब्रेन हेमरेज से उनका निधन हो गया।
एनडीए में नीतीश की वापसी के विरोध से शरद यादव की सांसदी गई
समाजवादी नेताओं में बड़ा नेता शरद यादव दावा करते थे कि नीतीश कुमार को कर्पूरी ठाकुर से उन्होंने ही मिलवाया था। जब 2017 में नीतीश ने एनडीए में वापसी का फैसला किया तो शरद यादव खिलाफ हो गए। शरद आरजेडी के साथ बने रहने के पक्ष में थे। उसके कुछ समय पहले ही वो जेडीयू के टिकट पर राज्यसभा गए थे। नीतीश कुमार एनडीए में लौट गए। उसके बाद दल बदल कानून के आधार पर शरद की राज्यसभा सदस्यता चली गई। बाद में शरद यादव आरजेडी में शामिल हो गए।
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एक समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आंखों के तारा रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह से पहले भी समाजवादी आंदोलन की पार्टियों में जिन नेताओं के नीतीश से राजनीतिक मतभेद गहराए, उनके रास्ते अलग हुए और वो राजनीति में प्रासंगिकता के लिहाज से किनारे हो गए। बात चाहे जॉर्ज फर्नांडीस की हो या शरद यादव की या फिर बांका वाले दिग्विजय सिंह की। थोड़ी बहुत राजनीतिक प्रतिष्ठा बची रही तो दिग्विजय सिंह की जो नीतीश के कैंडिडेट को हराकर बांका से जीते लेकिन कुछ समय बाद लंदन में उनका निधन हो गया।
आरसीपी से नीतीश कुमार के रास्ते तभी अलग हो गए जब वो नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री बनने अकेले राजी हो गए। पार्टी ने उनको बीजेपी से ज्यादा से ज्यादा मंत्री पद लेने कहा था लेकिन वो इकलौते मंत्री और वो भी खुद ही बन गए। 2019 में जब मोदी की दूसरी सरकार बनी थी तब जेडीयू ने कम मंत्री पद मिलने के कारण सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था। 2021 में मोदी कैबिनेट के विस्तार में नीतीश की पार्टी सरकार में शामिल होने को तैयार हुई और माना जाता है कि लोकसभा में सांसदों की संख्या के आधार पर जेडीयू दो कैबिनेट और दो राज्यमंत्री का पद मांग रही थी।
आरसीपी सिंह का साथ नहीं छोड़ रहा 7 नंबर का साया, सांसद – मंत्री बनने से बंगला गंवाने तक
नीतीश कम से कम आरसीपी सिंह के साथ-साथ ललन सिंह को मंत्री जरूर बनाना चाहते थे। लेकिन मंत्री बने अकेले आरसीपी सिंह. इसके बाद की बयानबाजी से मामला ठीक होने के बदले खराब ही होता गया। एनआरसी का मुद्दा हो या जातीय गणना का या फिर बिहार को विशेष दर्जा देने की मांग हो, आरसीपी सिंह का सुर जेडीयू के सुर से कुछ ना कुछ अलग दिखता रहा। अब नतीजा ये है कि आरसीपी सिंह ना राज्यसभा में रहे, ना मोदी सरकार में और ना पार्टी में अब वो रुतबा रहा।
जेडीयू के ‘रामचन्द्र’ को मिल ही गया सियासी वनवास, आरसीपी सिंह के सामने अब दो ही विकल्प
पार्टी में आरसीपी सिंह के रुतबे का हाल तो यह है कि पार्टी का कोई नेता अब उनसे मिलने से भी कतराता है क्योंकि यह बात पार्टी के अंदर उसके खिलाफ जा सकती है। जिनको आरसीपी का आदमी कहा जाता था वो भी अब जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह के दरबार में नजर आते हैं। आरसीपी सिंह राजनीतिक रूप से फिलहाल अब एक पूर्व मंत्री, पूर्व सांसद और जेडीयू के सदस्य भर रह गए हैं। याद करते हैं आरसीपी से पहले के उन नेताओं को जो नीतीश से अलग हुए तो किनारे हो गए।
जिस मुजफ्फरपुर से जेल में रहते जीते थे जॉर्ज फर्नांडीस वहीं जमानत जब्त हो गई
कभी नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडीस को पहला झटका 2004 में लगा था जब शरद यादव अध्यक्ष बने थे। 2009 का लोकसभा चुनाव आते-आते रिश्ते और खराब हो चुके थे। फर्नांडीस की सेहत ठीक नहीं थी लेकिन वो मुजफ्फरपुर से लड़ना चाहते थे जिस सीट को 1977 में उन्होंने जेल में बंद रहते जीता था। नीतीश ने बीमारी की वजह से जॉर्ज के बदले मुजफ्फरपुर से कैप्टन जय नारायण निषाद को टिकट दिया और निषाद जीत भी गए। जॉर्ज की जमानत तक जब्त हो गई। कुछ महीने बाद शरद यादव के इस्तीफे से खाली हुई राज्यसभा सीट के चुनाव में वो निर्दलीय लड़े और नीतीश के समर्थन से जीते।
नीतीश से अलग होकर लड़े और बांका जीते दिग्विजय सिंह
जॉर्ज फर्नांडीस के ही करीबी शिष्य रहे दिग्विजय सिंह बांका से लोकसभा चुनाव लड़ते और जीतते थे। 2009 के चुनाव से पहले उनका रिश्ता भी नीतीश से खराब हो गया था। उनको भी टिकट नहीं मिला और बांका से जेडीयू का टिकट दामोदर रावत को दिया गया। दिग्विजय सिंह का दावा था कि बांका में वो सुशासन बाबू से ज्यादा लोकप्रिय हैं। दिग्विजय सिंह बांका खुद से लड़ गए और जीत भी गए। जेडीयू तीसरे नंबर पर चली गई। एक साल बाद लंदन में ब्रेन हेमरेज से उनका निधन हो गया।
एनडीए में नीतीश की वापसी के विरोध से शरद यादव की सांसदी गई
समाजवादी नेताओं में बड़ा नेता शरद यादव दावा करते थे कि नीतीश कुमार को कर्पूरी ठाकुर से उन्होंने ही मिलवाया था। जब 2017 में नीतीश ने एनडीए में वापसी का फैसला किया तो शरद यादव खिलाफ हो गए। शरद आरजेडी के साथ बने रहने के पक्ष में थे। उसके कुछ समय पहले ही वो जेडीयू के टिकट पर राज्यसभा गए थे। नीतीश कुमार एनडीए में लौट गए। उसके बाद दल बदल कानून के आधार पर शरद की राज्यसभा सदस्यता चली गई। बाद में शरद यादव आरजेडी में शामिल हो गए।