अंग्रेजों ने कलकत्ता से दिल्ली क्यों शिफ्ट की राजधानी: महारानी तक से छिपाया गया प्लान; नई दिल्ली बनाने में 20 साल लगे

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अंग्रेजों ने कलकत्ता से दिल्ली क्यों शिफ्ट की राजधानी:  महारानी तक से छिपाया गया प्लान; नई दिल्ली बनाने में 20 साल लगे

अंग्रेजों ने कलकत्ता से दिल्ली क्यों शिफ्ट की राजधानी: महारानी तक से छिपाया गया प्लान; नई दिल्ली बनाने में 20 साल लगे

बात उन दिनों की है, जब देश की राजधानी कलकत्ता थी। 1905 में बंगाल का बंटवारा हुआ, तो अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गए। अंग्रेज अफसरों पर लगातार हमले हो रहे थे। शासन चलाने के लिए कलकत्ता असुरक्षित और अस्थिर हो गई, तो अंग्रेजों ने नई राजधानी के बार

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इतिहासकार नारायणी गुप्ता लिखती हैं, ‘अंग्रेजों काे लगा दिल्ली सुंदर शहर है। इसे राजधानी बनाकर वो भी इसके इतिहास से जुड़ जाएंगे, लेकिन ये भी सच था कि दिल्ली में जो राज करता है, उसका राज्य बहुत दिनों तक टिकता नहीं।’

6 साल बाद यानी 15 दिसंबर 1911। ब्रिटेन के किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के लिए दिल्ली दरबार सजाया गया। इसके लिए दिल्ली के बाहरी इलाके बुराड़ी में 20,000 कामगारों की मदद से किंग कैंप बनाया गया। हजारों शिविर लगाए गए। जिस शिविर में किंग और क्वीन ठहरे थे, वहां तक अलग रेलवे लाइन बिछाई गई।

करीब 80 हजार लोगों के सामने किंग जॉर्ज पंचम ने ऐलान किया, ‘हमें भारत की जनता को ये बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि देश को बेहतर ढंग से प्रशासित करने के लिए ब्रिटेन सरकार भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट करती है।’

ये घोषणा सुनकर किंग के बगल में बैठी क्वीन मैरी भी चौंक गईं। भारत में उस वक्त के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग को भी इसकी खबर नहीं थी। ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे ‘बेस्ट केप्ट सीक्रेट ऑफ इंडिया’ कहा था।

दिल्ली की कहानी सीरीज के तीसरे एपिसोड में अंग्रेजों के समय की दिल्ली के किस्से…

1608 में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों ने गुजरात के सूरत पोर्ट पर पहला कदम रखा। शिप के कैप्टन विलियम हॉकिंस ने मुगल बादशाह जहांगीर से मुलाकात कर सूरत में एक फैक्ट्री स्थापित करने की अनुमति मांगी, लेकिन बादशाह ने मना कर दिया।

अंग्रेजों ने उन राज्यों का रुख किया, जहां मुगल शासन नहीं था। 1611 में आंध्र प्रदेश के मछलीपट्‌टनम में पहला कारखाना लगाने की अनुमति मिली। 1615 में ब्रिटिश सरकार की तरफ से सर थॉमस रो ने जहांगीर से मुलाकात की। उनके तोहफों से जहांगीर खुश हुए और फैक्ट्री लगाने की परमिशन दे दी। इस परमिशन के बदले ईस्ट इंडिया कंपनी मुगल सरकार को टैक्स देगी।

अगले कुछ दशक में कंपनी ने मुंबई, मद्रास, पटना, अहमदाबाद और मुगल राजधानी आगरा में भी फैक्ट्री लगाई। मसालों के अलावा वे कपास, नील, सिल्क, चाय और अफीम का बिजनेस करने लगे। इन शहरों में अंग्रेजों ने किले बना लिए।

जहांगीर से फैक्ट्री लगाने की परमिशन लेने पहुंचे अंग्रेज अफसर। इस दृश्य को पेंटिंग से बताया गया है।

1670 में ब्रिटिश किंग चार्ल्स द्वितीय ने सरकारी नियंत्रण में ले लिया। अब कंपनी खुद की आर्मी रख सकती थी। करेंसी छाप सकती थी। 1707 आते-आते अंग्रेज पूरे भारत में मजबूत हो चुके थे।

आदित्य अवस्थी अपनी किताब ‘दास्तान ए दिल्ली’ में लिखते हैं कि अंग्रेजों ने 1714 से दिल्ली आना शुरू किया। वे लाल किले में पैदल जाकर, दीवाने आम, दीवाने खास में बादशाह के सामने घुटने टेककर सलामी देते थे।

1803 में पहली बार मुगल बादशाह शाह आलम ने सैन्य मदद के लिए अंग्रेजों को दिल्ली बुलाया। एम.एस. नरवने अपनी किताब ‘बैटल्स ऑफ द ऑनरेबल ईस्ट इंडिया कंपनी: मेकिंग ऑफ द राज’ में बताते हैं कि मराठा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय दिल्ली पर कब्जा करने आ रहे थे। अंग्रेजों ने पहली बार मुगलों की तरफ से जंग लड़ी।

11 सितंबर, 1803 को पटपड़गंज (अब पूर्वी दिल्ली में) में मुगलों के कथित अंग्रेज सैनिकों और मराठों के बीच युद्ध हुआ। अंग्रेजों ने मराठों को हरा दिया। अब बादशाह भले ही शाह आलम था, लेकिन उसके पास कोई अधिकार नहीं थे। वो अंग्रेजों की पेंशन पर जिंदा थे। यह सिलसिला बहादुर शाह जफर तक चला।

1857 की क्रांति का केंद्र दिल्ली था। क्रांतिकारियों ने 80 वर्षीय बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया था। इतिहासकार विलियम बेनेडिक्ट हैमिल्टन-डेलरिम्पल अपनी किताब ‘द लास्ट मुगल: द फॉल ऑफ द डायनेस्टी, दिल्ली 1857’ में लिखते हैं कि बहादुर शाह जफर कभी इसमें शामिल नहीं होना चाहते थे, लेकिन लोगों के चाहने पर इनकार नहीं कर सके।

अंग्रेजों ने पूरा जोर लगाकर विद्रोह को कुचल दिया। 14 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने कश्मीरी गेट के पास से शहर पर हमला किया। दिल्ली के गलियारों में खून बहने लगा और विद्रोही एक-एक कर पीछे हटने लगे। 20 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। बहादुर शाह जफर हार जानकर अपने परिवार के साथ हुमायूं के मकबरे में शरण लेने के लिए भाग गए।

ब्रिटिश अफसर मेजर हडसन ने उनका पता लगा लिया और गिरफ्तार कर लिया। उनके बेटों और पोतों को कैद कर लिया गया और बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। उनके कटे हुए सिर बहादुर शाह जफर के सामने पेश किए गए, ताकि उनकी इच्छाशक्ति को तोड़ा जा सके।

लाल किले पर ब्रिटिश झंडा फहराने के बाद अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को रंगून निर्वासित कर दिया गया। जहां उनकी मौत हो गई। दिल्ली पर अब सीधा अंग्रेजों का नियंत्रण था, हालांकि उन्होंने अपनी राजधानी कलकत्ता बनाई।

आदित्य अवस्थी अपनी किताब “दास्तान ए दिल्ली’ में लिखते हैं कि राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाए जाने के प्लान को बेहद सीक्रेट रखा गया था। इसे ‘सीसेम प्रोजेक्ट’ नाम दिया गया था। अंग्रेज राजशाही काे अनुमान था कि अगर पहले ऐलान किया गया तो कोलकाता के प्रभावशाली लोग और व्यापारी विरोध करेंगे।

जब ये फैसला लिया गया तो किंग जॉर्ज पंचम के अलावा दो दर्जन लोगों को यह जानकारी दी गई थी। दिल्ली में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग और लंदन में भारत मामलाें के सेक्रेटरी रॉबर्ट ऑफ क्रू-मिल्स को भी इसकी जानकारी नहीं दी गई थी।

ब्रिटिश इतिहासकार जेन रीडली अपनी किताब ‘द आर्किटेक्स एंड हिज वाइफ: ए लाइफ ऑफ एडविन लुटियंस’ में लिखती हैं कि राजधानी कोलकाता से दिल्ली शिफ्ट हो चुकी थी। अब नए शहर का निर्माण होना था।

किंग जॉर्ज पंचम ने मशहूर आर्किटेक्ट एडविन लुटियंस को बुलाया। उन्होंने बताया कि इंडिया जाकर नई राजधानी बनानी है। उस समय एडविन लुटियंस ने शर्त रखी कि उनके साथ उनके पुराने दोस्त हर्बर्ट बेकर भी सलाहकार के तौर पर जाएंगे। मजदूरी के रूप में उन्हें कुल लागत का 5% देने का वादा किया गया।

15 दिसंबर 1911 को किंग ने पुरानी दिल्ली के पास ही नई दिल्ली की नींव रखी थी, लेकिन एडवर्ड लुटियंस ने नई दिल्ली बसाने के लिए रायसीना हिल को चुना। कहते हैं भारतीय ठेकेदार सोभा सिंह ने अपनी साइकिल पर नींव का पत्थर लादकर रातों-रात उसे रायसीना हिल पहुंचाया था।

काउंसिल हाउस यानी संसद भवन को बनाने के दौरान दिल्ली के आर्किटेक्ट लुटियंस और बेकर में झगड़ा हो गया था। संसद भवन तब बन रहा था।

नई दिल्ली को बनाने का काम 1912 में शुरू होकर 1931 में खत्म हुआ। बेकर को काउंसिल हाउस यानी संसद भवन बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी।

बेकर ने अलग-अलग साइज वाला बेतरतीब त्रिकोण वाला नक्शा बनाया था। प्लान के अनुसार डिजाइन समबाहु त्रिकोण होना था। तीनों तरफ विधानसभा, राज्य परिषद और राजकुमारों के रूम्स होने चाहिए थे। सेंटर में भव्य गुंबद होना था। लुटियंस ने इस डिजाइन का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा काउंसिल हाउस गोलाकार कोलोजियम जैसा होना चाहिए।

मामला 10 जनवरी 1920 को न्यू कैपिटल कमेटी में गया। कमेटी ने फैसला लुटियंस के फेवर में सुनाया। लुटियंस ने कहा कि मैं जो चाहता था वो हो गया। मुझे मेरी बिल्डिंग मिल गई है। बेकर ने कहा कि मैं जानता हूं, मुझे बाहर कर दिया गया है। इसके बाद दोनों में कड़वाहटें और बढ़ गईं।

फिर दोनों में वायसराय हाउस यानी आज के राष्ट्रपति भवन की ढलान को लेकर विवाद हो गया। बेकर का कहना था कि दूर ढलान से इमारत दिखनी चाहिए। ये बात भी कमेटी में गई और इस बार बेकर जीत गए।

लुटियंस चीफ आर्किटेक्ट थे। उनके ईगो को ज्यादा ठेस पहुंची। वे इतना नाराज हुए कि उन्होंने अपनी पत्नी को लिखा कि मुझे बेकर से प्रॉब्लम हो रही है। बेकर मुगलिया वास्तुकला के मुरीद थे, वे चाहते थे कि इमारतों में उसका उपयोग हो। जबकि लुटियंस कुछ अलग करना चाहते थे। इसे लेकर भी दोनों दोस्त कई बार भिड़े थे। दोनों ने अपने प्रोजेक्ट पूरे किए, लेकिन फिर एक-दूसरे से बात नहीं की।

23 दिसंबर 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग और उनकी पत्नी विनिफ्रेड सेसिल ट्रेन से दिल्ली पहुंचे थे। हार्डिंग अपनी किताब ‘माय इंडियन इयर्स’ में लिखते हैं, ‘दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पंजाब के सभी राजाओं ने स्वागत किया। हमें एक हाथी पर बैठाया गया और जुलूस शुरू हो गया। दिल्ली का मुख्य बाजार चांदनी चौक लोगों से खचाखच भरा हुआ था। हम 300 कदम ही चले होंगे कि अचानक एक जोरदार ब्लास्ट हुआ और मेरा हाथी रुक गया।’

हार्डिंग ने पीछे देखा तो छत्र पकड़े बैठा कर्मचारी हौज की रस्सी में उलझकर मृत लटक रहा है। थोड़ी देर में हार्डिंग बेहोश हो गए। होश आया तो उन्होंने खुद को एक कार में पाया।

जापानी लेखक और प्रोफेसर ताकेशी नाकाजिमा अपनी किताब ‘बोस ऑफ नाकामुराया: एन इंडियन रिवोल्यूशनरी इन जापान’ में लिखते हैं कि ये हमला रास बिहारी बोस ने अपने ऑफिस से एक दिन की छुट्‌टी लेकर किया था। हमले के बाद वे वापस देहरादून लौट गए।

23 दिसंबर 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग के जुलूस में बम फेंकने के बाद हमला हुआ था। इस घटना को पेंटिंग में बताया गया है।

ब्रिटिश शासन के खिलाफ हर बड़े आंदोलन का कहीं न कहीं दिल्ली से जुड़ाव रहा। यह न केवल भौगोलिक रूप से भारत के बीच में थी, बल्कि राजनीतिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण थी। ऐसी ही कुछ घटनाएं…

  • 9 जनवरी 1915 को महात्मा गांधी 21 साल बाद दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर उन्होंने भारत यात्रा शुरू की और 12 अप्रैल 1915 को पहली बार दिल्ली पहुंचे।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिल्ली में कई अहम सत्र आयोजित किए, जैसे 1924 का अधिवेशन, जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ। इन सत्रों के जरिए स्वतंत्रता के लिए रणनीतियां बनाई गईं।
  • 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय विधान सभा में बम फेंका ताकि ब्रिटिश सरकार को संदेश दिया जा सके। दिल्ली में कई गुप्त सभाएं और योजनाएं बनाई गईं।
  • भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दिल्ली में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जन समर्थन जुटाने में दिल्ली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के खिलाफ दिल्ली के लालकिले में 1945 में मुकदमा चलाया गया। इसमें तीन अफसरों कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज खान पर राजद्रोह का आरोप चलाया गया था।

15 अगस्त 1947 को जब आजादी मिली तो लाखों लोग राष्ट्रपति भवन, लाल किले और दिल्ली के अन्य स्थानों पर इकट्‌ठा हो गए थे। फोटो राष्ट्रपति भवन का है।

सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद 1945 में ब्रिटेन में चुनाव हुए। लेबर पार्टी सत्ता में आई और क्लेमेंट एटली प्रधानमंत्री बने। पीएम एटली ने फरवरी 1947 में ऐलान किया कि 30 जून 1948 तक ब्रिटेन भारत को आजाद कर देगा। इसके लिए लॉर्ड माउंटबेटन को आखिरी वायसराय चुना गया।

भारत के पहले गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी के मुताबिक अगर माउंटबेटन जून 1948 तक इंतजार करते तो ट्रांसफर करने के लिए उनके पास कोई पावर ही नहीं बचती। पूरे देश में हिंसा और उथल-पुथल मची थी। माउंटबेटन ने भारत की आजादी और बंटवारे के प्लान में तेजी दिखाई।

माउंटबेटन के सुझावों पर ब्रिटेन की संसद ने 4 जुलाई, 1947 को इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट पारित किया। इसमें 15 अगस्त 1947 को भारत से ब्रिटिश शासन खत्म करने का प्रावधान था। इससे पहले ही सत्ता हस्तांतरित कर दी गई। बंटवारे के दौरान कत्लेआम हुआ। हिंदू-मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग मारे गए।

पंडित जवाहरलाल नेहरू को पीएम चुना गया। 15 अगस्त 1947 की आधी रात को संसद में जवाहरलाल नेहरू ने शपथ ली। लार्ड माउंटबेटन 14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को पाकिस्तान और भारत को आजादी मिलने के बाद से 10 महीने तक नई दिल्ली में रहे। जून 1948 तक स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल के रूप में काम किया।

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