Uttar Pradesh Politics: क्या फिर लिखी जा रही ‘मंडल बनाम कमंडल’ की पटकथा? स्‍वामी और अखिलेश का एजेंडा समझिए

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Uttar Pradesh Politics: क्या फिर लिखी जा रही ‘मंडल बनाम कमंडल’ की पटकथा? स्‍वामी और अखिलेश का एजेंडा समझिए

Uttar Pradesh Politics: क्या फिर लिखी जा रही ‘मंडल बनाम कमंडल’ की पटकथा? स्‍वामी और अखिलेश का एजेंडा समझिए


लखनऊ : 1991 में रामरथ पर सवार होकर जब भाजपा सत्ता में आई तो इसे ‘कमंडल’ की सियासत कहा गया। अगले ही चुनाव में मुलायम और कांशीराम एक हो गए और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। नारा बना ‘मिले मुलायम, कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम।’ करीब ढाई दशक बाद एक बार यूपी में ‘मंडल बनाम कमंडल’ की सियासत की पटकथा तैयार होती नजर आ रही है। इस बार चेहरे अलग हैं तो मुद्दों से एका की कवायद है। स्वामी प्रसाद मौर्य के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव के बयानों की दिशा इसी ओर इशारा कर रही है।

बसपा से भाजपा होते हुए सपा में आए एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य के रामचरितमानस बैन करने की मांग के बाद सपा बनाम भाजपा की धर्म के मसले पर जुबानी जंग तेज हो गई है। 26 जनवरी को अखिलेश यादव ने कहा कि संविधान सबसे बड़ा धर्म है। इसके अगले दिन सीएम योगी का बयान आया है कि सनातन धर्म ही राष्ट्रीय धर्म है। स्वामी के बयान के बाद सपा के भीतर उठे सवालों के बीच जब शनिवार को अखिलेश-स्वामी की मुलाकात हुई तो लगा ‘मानस’ पर टिप्पणी पर उपजे विवाद का पटाक्षेप होगा, लेकिन डालीगंज के धार्मिक कार्यक्रम में हुए विरोध प्रदर्शन से नाराज अखिलेश की टिप्पणी ने स्वामी के ‘अजेंडे’ को विस्तार दे दिया है।

‘ठेकेदारी बनाम भागीदारी के सवाल’

स्वामी प्रसाद मौर्य रामचरितमानस के जरिए शूद्रों के अपमान का सवाल उठा रहे हैं। शूद्र की परिभाषा का विस्तार उन्होंने दलितों, पिछड़ों-आदिवासियों तक किया है। वहीं, बुधवार को महायज्ञ में हुए विवाद के बाद सपा मुखिया ने भी कह दिया कि भाजपा के लोग पिछड़ों-दलितों को ‘शूद्र’ समझते हैं। भाजपा अपने को धर्म का ठेकेदार समझती है। वहीं, अखिलेश यादव से मुलाकात के बाद स्वामी ने कहा कि राष्ट्रीय अध्यक्ष से उनकी सभी मुद्दों पर बात हुई है। अब रणनीति का दूसरा पहलू दलितों, पिछड़ों की भागीदारी व आरक्षण को सुनिश्चित करना है। ‘रणनीति’ के स्वामी के दावे के साफ है कि ‘ठेकेदारी’ बनाम भागीदारी का सवाल बना सपा इस मुद्दे को आग ले जाने के मूड में है।

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इसलिए अहम है ‘मंडल’ बनाम ‘कमंडल’

2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियां पक्ष-विपक्ष दोनों शुरू कर चुके हैं। विकास के मुद्दे के साथ ही भाजपा आस्था के सरोकार के चुनावी विस्तार में लगी हुई है। लोकसभा चुनाव के पहले अयोध्या में राममंदिर के लोकार्पण की भी तैयारी है। तीन दशक तक यह मुद्दो यूपी सहित देश की सियासत के केंद्र में रहा है। इसलिए, ‘आस्था का उत्सव’ एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनना तय है। इस लहर में वोटों को बहने से रोकने की चिंता सपा सहित सभी विपक्षी दलों की है। ‘मंडल’ कमंडल की लहर पर एक बार बांध बना चुका है। इसलिए एक बार फिर जातीय अस्मिता, सम्मान, भागीदारी व जातीय जनगणना जैसे मुद्दे को विस्तार देने की कोशिश है। अति-पिछड़ों, दलितों के सवालों पर फोकस भी इस रणनीति का हिस्सा है। पार्टी को लगता है कि अगर जातीय चेतना के सवाल मुखर हुए तो आस्था की राजनीति का जवाब तलाशना आसान होगा।

पर नए दौर में आसान नहीं पुराना ‘नुस्खा’

पिछले 8 सालों में भाजपा के बदले संगठनात्मक ढांचे व चुनावी रणनीति को देखते हुए 1993 का ‘मंडल बनाम कमंडल’ दोहराना सपा के लिए फिलहाल आसान नहीं होगा। भाजपा ने सरकार से लेकर संगठन तक सामाजिक समीकरण दुरुस्त किए हैं। पिछड़ों, अति-पिछड़ों से लेकर दलितों तक में जनाधार बढ़ाने के साथ ही भागीदारी के जरिए छवि और चेहरा दोनों ही बदला है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के एक मंच पर खड़े होने के प्रयोग को भी भाजपा फेल कर चुकी है। ऐसे में नए दौर में पुराना नुस्खा कितना असर करता है, यह देखना दिलचस्प होगा।

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