चेहरे पर फेंकते थे गंदगी, मारते थे पत्थर… भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले को जानिए

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चेहरे पर फेंकते थे गंदगी, मारते थे पत्थर… भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले को जानिए

चेहरे पर फेंकते थे गंदगी, मारते थे पत्थर… भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले को जानिए


भारत की आजादी से पहले तक भारत में महिलाओं के साथ कई भेदभाव होते थे। अगर महिला दलित होती थी तो यह भेदभाव और भी बड़ा होता था। महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था। दलित लड़कियों को तो कतई पढ़ने नहीं दिया जाता था। सावित्रीबाई फुले ने अपने दम पर पढ़ाई करने की ठानी। तमाम विरोध के बीच वह स्कूल पढ़ने जाती थीं। कई बार उनके ऊपर लोग पत्थर फेंकते थे। उन्हें खरीखोटी सुनाई जाती थी। लोग अपशब्द कहते थे और अभद्र भाषा का प्रयोग करते थे लेकिन वह अपने उद्देश्य से पीछे नहीं हटीं। उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और अपने हक के लिए लड़ती रहीं। सावित्रीबाई को आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है।

लोगों की करती रहीं सेवा और प्लेग की चपेट में आकर निधन

1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग भयंकर रूप से फैला था। लोग एक दूसरे के संपर्क में आने से डरते थे। मौते हो रही थीं। हर तरफ बीमार और लाशें ही लाशें थीं। तबाही मची थी। सावित्रीबाई फूले लोगों की सेवा के लिए सुबह से लेकर शाम तक गांव-गांव में लोगों की सेवा करती थीं। आखिर वह भी प्लेग की चपेट में आ गईं और पति के निधन के 7 साल बाद 10 मार्च 1897 में उन्होंने भी अंतिम सांस ली।

पति को खुद दी थी मुखाग्नि

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दलितों और ऊंची जाति के लोगों के लिए जलाश्रय अलग हुआ करते थे। गांव में कुएं से दलितों का पानी लेने बैन था। इस पर विरोध होता था तो सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर गांव में एक कुएं का निर्माण भी किया। दंपती ने अपना पूरा जीवन समाजसेवा को समर्पित कर दिया। ज्योतिराव का निधन 1890 में हो गया। पति के निधन के बाद सावित्रीबाई फूले ने उनका दाह संस्कार किया। पति की चिता को मुखाग्नि दी और अंतिम संस्कार की सारी विधियां पूरी कीं। यह भी उन्होंने तब किया जब इसके बारे में कोई सोच तक नहीं सकता था। सावित्रीबाई का तब भी खूब विरोध हुआ।

विधवाओं के लिए खोला आश्रम

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विधवा महिलाओं की दुर्दशा होती थी। पति के मरने के बाद जो चिता में नहीं सती होती थीं, उनका जीवन नर्क हो जाता था। ऐसी विधवा महिलाओं के लिए सावित्रीबाई ने 1854 में एक विधवाश्रम खोला। हालांकि इस पहल का भी खूब विरोध हुआ लेकिन सावित्रीबाई ने सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान दिया। लगभग दस साल के बाद 1864 में उन्होंने इस विधवाश्रम का विस्तार किया और यहां पर विधवा महिलाओं के साथ ही निराश्रित महिलाओं, बाल विधवा बच्चियों और परिवार से त्यागी गई महिलाओं को शरण देने लगीं। सावित्रीबाई आश्रम में रहने वाली हर महिला और लड़कियों को भी पढ़ाती थीं।

थैले में लेकर चलती थीं एक्स्ट्रा कपड़े

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सावित्रीबाई फुले उस दौर में जन्मी थीं जब समाज में छुआछूत चरम पर था। महिलाओं को लेकर कई ऐसी प्रथाएं थीं जिन्हें कुप्रथाएं कहा जा सकता है। महिलाओं के पति मरने के बाद उन्हें चिता में पति के साथ जिंदा जला दिया जाता था। बाल विवाह कर दिए जाते थे। दलित महिलाओं का जीवन बहुत कठिनाई भरा होता था। कहा जाता है कि जब सावित्रीबाई स्कूल में पढ़ाने जाती थीं तो उनके ऊपर पत्थर फेंके जाते थे। कई बार उनके चेहरे पर गोबर और मल जैसी गंदगी तक फेंकी गई। उनके साथ ऐसा होता था इसलिए वह हमेशा अपने साथ थैले में एक साड़ी अलग से लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंचने के बाद अपने कपड़े बदल लेती थीं लेकिन कभी भी विरोधियों से झगड़े में अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहती थीं।

1848 में पहले स्कूल की स्थापना

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सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव फुले ने 3 जनवरी 1848 को पहले स्कूल की स्थानपना की। सावित्रीबाई सिर्फ 18 साल की थीं। यह स्कूल पुणे में खोला गया। यह एक ऐसा स्कूल था जहां पर सारी जातियों की छात्राएं एक साथ पढ़ सकती थीं। इस स्कूल में सिर्फ 9 छात्राओं ने प्रवेश लिया। ऐसे समय में जब लड़कियों की पढ़ाई को लेकर खास जागरूकता नहीं थी, उन्होंने लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए लोगों से अपीलें कीं। एक साल के अंदर उन्होंने पति के साथ मिलकर 5 और नए स्कूल खोले। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को लेकर सरकार ने सावित्रीबाई को सम्मानित किया।

​9 साल की उम्र में हो गई थी शादी

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सावित्रीबाई की शादी 1940 में ज्योतिराव फुले के साथ हो गई थी। तब वह महज 9 साल की थीं। शादी के बाद वह अपने पति के साथ पुणे में आकर रहने लगीं। क्योंकि उनका पढ़ाई में बहुत मन लगता था इसलिए वह आगे पढ़ना चाहती थीं। उनकी पढ़ाई को लेकर लगन देखकर उनके पति ज्योतिराव फुले प्रभावित हुए और उन्होंने सावित्रीबाई को आगे पढ़ाने का मन बनाया। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने टीचर बनने की ठानी। सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में टीचर की ट्रेनिंग ली और शिक्षक बनीं।

3 जनवरी 831 को हुआ था जन्म

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सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक छोटे से गांव नयागांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। वह दलित परिवार में जन्मी थीं। इनके पिता का नाम खंदोजी नैवेसे और मां का नाम लक्ष्मीबाई था। दलित परिवार में जन्म लेने के चलते सावित्रीबाई फुले को बचपन से ही भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस भेदभाव ने ही उके मन में लड़कियों की शिक्षा के लिए कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश पैदा की। बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए सावित्रीबाई को समाज के कड़े विरोध का सामना भी करना पड़ा। सिर्फ मानसिक ही नहीं उन्हें कई बार शारीरिक प्रताड़ना का भी शिकार होना पड़ा।

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