UP Chunav News: माफियाओं को कैसे मिल जाते हैं टिकट? बाहुबलियों के सियासी सफर पर डालिए नजर, मिलेगा जवाब

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UP Chunav News: माफियाओं को कैसे मिल जाते हैं टिकट? बाहुबलियों के सियासी सफर पर डालिए नजर, मिलेगा जवाब
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UP Chunav News: माफियाओं को कैसे मिल जाते हैं टिकट? बाहुबलियों के सियासी सफर पर डालिए नजर, मिलेगा जवाब

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) चल रहे हों और बाहुबलियों का जिक्र न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। 2022 का ये चुनाव भी कुछ ऐसा ही है। उत्तर प्रदेश की सियासत में बाहुबली नेता कभी अपने दम पर तो कभी पार्टियों के सिंबल पर विधानसभा पहुंचते रहे हैं। सवाल ये है कि जब नेता और पार्टियां भयुक्त समाज और कानून व्यवस्था, सुरक्षित माहौल का वादा करते हैं तो इन बाहुबलियों को पार्टियों से टिकट कैसे मिल जाते हैं। चाहे सत्तारूढ़ बीजेपी हो, समाजवादी पार्टी, बसपा या कोई और पार्टी कमोबेश सभी बाहुबलियों को टिकट देते रहे हैं। बाहुबलियों को टिकट कैसे मिलते हैं, इसका उत्तर जानने के लिए हमें इनके राजनीतिक इतिहास पर नजर डालनी होगी। ये साफ बताता है कि सीट से प्रेम सिर्फ बाहुबलियों को ही नहीं है, सियासी दल भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए ऐसा करते हैं। हालांकि इस बार का चुनाव थोड़ा अलग जरूर है। इस बार तीन दशकों तक सियासी साम्राज्य चलाने वाले बाहुबली मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद चुनावों से दूर हैं।

लेकिन इस बार ये चर्चा शुरू हुई माफिया धनंजय सिंह को जौनपुर की मल्हनी सीट से जनता दल यूनाइटेड से टिकट मिलने पर। नीतीश कुमार की जेडीयू बिहार का सत्तारूढ़ दल और वहां बीजेपी के साथ गठबंधन में है। यूपी में भले ही ये गठबंधन न हो लेकिन सवाल है कि बाहुबली नेता को टिकट देने की ऐसी क्या मजबूरी आ गई? तो आपकी जानकारी के लिए बता दें जेडीयू ने धनंजय को ये दूसरी बार टिकट दिया है। दरअसल धनंजय सिंह ने जौनपुर की रारी विधानसभा सीट से पहली बार 2002 में चुनाव लड़ा। वह निर्दलीय प्रत्याशी थे लेकिन तमाम बड़ी पार्टियों को पीछे छोड़कर जीत हासिल करने में सफल रहे। इसके 5 साल बाद 2007 के चुनाव में धनंजय सिंह को जेडीयू से टिकट मिला और जेडीयू ये सीट जीतने में सफल रही।

लेकिन इसके बाद यूपी की सियासत ने तेजी से करवट ली और 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने बहुमत हासिल कर लिया। मायावती के मुख्यमंत्री बनने के दो साल बाद धनंजय बसपा में शामिल हो गए और 2009 का लोकसभा चुनाव बसपा के टिकट पर लड़ा। यहां भी जीते। धनंजय अब सांसद बन चुके थे, लेकिन दो साल में ही उनके सितारे गर्दिश चले गए। पहले बसपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित किया फिर चुनावों में उन्हें हार मिलने लगी। इस बार एक बार फिर 20 साल बाद धनंजय को जेडीयू का टिकट मिला है। वह जौनपुर की मल्हनी सीट से दावेदारी कर रहे हैं।
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कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर पहली बार चुनाव मैदान में उतरे मुख्तार
पूर्वांचल के माफिया और अर्से से जेल में बंद मुख्तार अंसारी ने भी अपने राजनीतिक कॅरियर की शुरुआत कम्युनिस्ट पार्टी से की थी। दरअसल 1993 में यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी-बीएसपी संयुक्त रूप से चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन चुनावों से ठीक पहले गाजीपुर सदर सीट से बीएसपी कैंडिडेट विश्वनाथ की हत्या हो गयी और यहां चुनाव टल गया। 1995 में उपचुनाव हुए। इस दौरान मुख्तार पर टाडा लगा था और वह तिहाड़ जेल में बंद थे। साल 1995 में गाजीपुर सदर विधानसभा सीट पर मुख्तार को कम्युनिस्ट पार्टी से टिकट मिला और वह चुनाव लड़े।
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बताया जता है कि छोटे भाई अफजाल के प्रयास से मुख्तार अंसारी को कम्युनिस्ट पार्टी से टिकट मिला और वह पहली बार चुनाव में उतरे। इन चुनावों में एसपी-बीएसपी के गठबंधन की तरह जनता दल और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठबंधन भी था। इसी गठबंधन के तहत गाजीपुर सदर की सीट कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में आई थी। लेकिन इस चुनाव में मुख्तार अंसारी को बसपा प्रत्याशी राजबहादुर ने हरा दिया था। इसके बाद 1996 में मुख्तार बसपा के टिकट पर उतरे और जीत दर्ज की। इसके बाद मऊ की सीट जैसे मुख्तार के ही नाम हो गई। इस दौरान चाहे कोई पार्टी टिकट दे या न दे, जीत मुख्तार के ही पास रही। अब करीब तीन दशक बाद अब मुख्तार अंसारी चुनावी राजनीति से दूर हो गए हैं और उन्होंने अपनी मऊ सीट बेटे को सौंप दी है। बेटा अब्बास अंसारी इस बार सपा गठबंधन का हिस्सा सुभासपा से मैदान में है।
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सात साल फरारी, अब जेल में बैठकर एमएलसी हैं बृजेश सिंह
मुख्तार अंसारी की बात हो और बृजेश सिंह का जिक्र न आए ऐस हो ही नहीं सकता। पूर्वांचल की जमीन पर इन दोनों माफियाओं अदावत के किस्से लखनऊ से बनारस तक फैले हैं। दिलचस्प बात ये है कि मुख्तार और बृजेश दोनों ही जेल में बंद हैं लेकिन यूपी की सत्ता में अपना रसूख बनाए हुए हैं। मुख्तार अंसारी गिरोह से गैंगवार में घायल होने के बाद बृजेश सिंह 2001 से फरार चल रहे थे। करीब 7 साल बाद 2008 में उसे ओडिशा से गिरफ्तार किया गया, तभी से वह जेल में बंद हैं। लेकिन 2016 में एमएलसी चुनाव जीता। इन्हें बीजेपी का समर्थन प्राप्त था। इस बार भी खबर है कि एमएलसी चुनाव के लिए बृजेश कुमार सिंह उर्फ अरुण कुमार (निर्दलीय) के नाम पर फॉर्म खरीदे गए हैं। यूपी विधानसभा चुनाव के बीच ही इस बार एमएलसी का चुनाव 3 मार्च को होना है।
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अतीक अहमद
1989 में अतीक अहमद ने इलाहाबाद पश्चिमी सीट से पहली बार निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा। इसके बाद 1991 और 1993 में भी निर्दल ही जीते। ये वो दौर था, जब मंडल की लहर चलनी शुरू हो गई थी और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बसपा उठान पर थीं। इसी दौरान अतीक अहमद की सपा से नजदीकी बढ़ी और 1996 में वह सपा के टिकट पर चुनाव लड़े और चौथी बार विधायक बने। 1999 में वह अपना दल के साथ हो गए, प्रतापगढ़ से चुनाव भी लड़ा लेकिन हार मिली। इसके बाद 2002 में वह अपना दल से इलाहाबाद पश्चिमी सीट से जीतकर पांचवी बार विधायक बने। फिर 2004 में अतीक को सपा ने टिकट दिया और यहां भी जीत उसके साथ रही। फिलहाल अतीक अहमदाबाद जेल में बंद हैं और 2022 के विधानसभा चुनाव से दूर हैं।
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विजय मिश्रा
पूर्वांचल के एक और बाहुबली हैं विजय मिश्रा। फिलहाल जेल में बंद हैं। लेकिन भदोही और आसपास के जिलों में करीब तीन दशकों से इनका सियासी रसूख किसी से छिपा नहीं है। वैसे तो विजय मिश्रा ने कांग्रेस से अपने सियासी करियर की शुरुआत की थी और ब्लॉक प्रमुख चुने गए थे लेकिन बाद में वह समाजवादी हो गए और भदोही की ज्ञानपुर सीट 2002, 2007 और 2012 में मुलायम सिंह यादव की झोली में डाली। 2017 में सपा के सर्वेसर्वा अखिलेश हो गए और काफी कोशिश के बाद भी विजय मिश्रा को जब टिकट नहीं मिला तो उन्होंने निषाद पार्टी से चुनाव लड़ लिया। इस बार भी विजय मिश्रा का ही सिक्का चला और भाजपा की लहर के बावजूद निषाद पार्टी ये एकमात्र सीट जीतने में सफल रही। हालांकि बाद में निषाद पार्टी ने विजय मिश्रा को निष्कासित कर दिया लेकिन इकलौते विधायक होने की वजह से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। इस बार के यूपी चुनाव में भी विजय मिश्रा चुनाव मैदान में हैं लेकिन एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में।
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हरिशंकर तिवारी
1985 में जेल में रहते हुए निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीतने वाली हरिशंकर तिवारी को उत्तर प्रदेश में सियासत और बाहुबल के गठजोड़ का अगुवा माना जाता है। वह गोरखपुर की चिल्लूपार विधानसभा सीट से 22 साल तक विधायक रहे। यही नहीं 1997 से लेकर 2007 तक वह तमाम सरकारों में मंत्री भी रहे। हरिशंकर तिवारी की बाहुबली छवि के बावजूद सभी पार्टियों से अच्छे रिश्ते रहे। वह कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह ही नहीं मायावती सरकार और मुलायम सरकार में भी मंत्री रहे। आखिरी बार हरिशंकर तिवारी 2012 में चुनाव हार गए और बढ़ती उम्र के चलते सियासत से दूर हो गए। फिलहाल हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी चिल्लूपार से विधायक हैं और अभी हाल में बसपा का पाला छोड़कर समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं।

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