इंदिरा गांधी के करीबी उस नेता की कहानी, जिसके दम पर बनी थी UP में सरकार… मगर संजय और राजीव ने कुंडली बिगाड़ कर रख दी

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इंदिरा गांधी के करीबी उस नेता की कहानी, जिसके दम पर बनी थी UP में सरकार… मगर संजय और राजीव ने कुंडली बिगाड़ कर रख दी

इंदिरा गांधी के करीबी उस नेता की कहानी, जिसके दम पर बनी थी UP में सरकार… मगर संजय और राजीव ने कुंडली बिगाड़ कर रख दी

लखनऊ: हनक की राजनीति की बात जब भी होती है, हेमवती नंदन बहुगुणा का नाम उत्तर प्रदेश की राजनीति में जरूर आता है। गलत को गलत कहने और उस पर अड़ने की अकड़ वाले नेता के रूप में हेमवती नंदन का नाम लिया जाता है। उत्तर प्रदेश में भारत छोड़ो आंदोलन के अगुआ रहे हेमवती नंदन को आजादी के बाद कांग्रेस ने नजरअंदाज करने की कोशिश की, लेकिन अधिक दिनों तक कर नहीं पाई। यूपी की सत्ता में दम तोड़ती कांग्रेस के लिए संजीवनी बनकर हेमवती नंदन आए। सरकार को सत्ता में लाए। इमरजेंसी के फैसले का विरोध जब विपक्षी पार्टी के नेता नहीं कर रहे थे, यूपी से हेमवती नंदन ने इंदिरा गांधी के फैसले पर सवाल उठाए थे। आधार मिला। संजय गांधी की जिद ने उन्हें यूपी की सियासत से बाहर का रास्ता दिखा दिया। सत्ता से बाहर निकले तो विपक्षी खेमे में गए। छवि बड़ी थी। इंदिरा गांधी नजरअंदाज नहीं कर पाईं। 1980 के चुनाव से पहले कांग्रेस में उनकी घर वापसी हुई। लेकिन, फिर राजीव गांधी ने उनके करियर पर विराम लगा दिया। इस प्रकार अपने दम की सत्ता करने वाले हेमवती नंदन को आखिरी समय में कांग्रेस की राजनीति ने जमीन पर ला दिया था। आइए, इस नेता की कहानी को जानते हैं।

शास्त्री से संपर्क और बदल गई सोच
हेमवती नंदन बहुगुणा का जन्म उत्तराखंड के पौड़ी जिले के बुधाणी गांव में 25 अप्रैल 1919 को हुआ था। डीएवी कॉलेज से पढ़ाई की। पढ़ाई के समय में ही उनका संपर्क लाल बहादुर शास्त्री से हुआ और उनके जीवन की धारा बदल गई। राजनीति को करियर बनाने की ठानी। 1936 से 1942 तक के तमाम छात्र आंदोलनों में हेमवती नंदन की भागीदारी रही थी। फिर आया 1942। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भार छोड़ो का नारा दिया। यूपी की जमीन पर हेमवती नंदन उसे उतारने में जुट गए। आंदोलन को निचले स्तर तक ले जाने की ऐसी रणनीति रची, अंग्रेजी हुकूमत की आंखों में चुभने लगे। जिंदा या मुर्दा पकड़े जाने पर 5 हजार रुपये का इनाम तब उन पर घोषित किया गया था। 1 फरवरी 1943 को दिल्ली के जामा मस्जिद के पास से हेमवती नंदन की गिरफ्तारी हुई। फिर, भारत छोड़ो आंदोलन का शोर थमा। आजादी की बात शुरू हुई। 1945 में हेमवती नंदन जेल से छूटे और फिर आंदोलनों में जुट गए।

यूपी की राजनीति में बढ़ी सक्रियता
आजादी के बाद हेमवती नंदन यूपी की राजनीति में सक्रिय हो गए। भारत छोड़ो आंदोलन के लोगों ने उनके लोगों को जोड़ने और संगठन निर्माण की कार्यकुशलता को देखा था। 1952 में वे यूपी कांग्रेस कमिटी के सदस्य बने और लगातार रहे। हालांकि, सरकार में जगह नहीं मिल पाई। 1957 के चुनाव के बाद बनी सरकार हेमवती नंदन को नजरअंदाज नहीं कर पाई। पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी बनाया गया। 1958 में श्रम और उद्योग विभाग के उप मंत्री बनाए गए।

हेमवती नंदन का कद बढ़ रहा था। 1963 में उन्हें यूपी कांग्रेस का महासचिव बनाया गया। 1969 तक वे इस पद पर रहे। 1967 में आम चुनाव हुए। बहुगुणा के कार्यों की तारीफ हुई। अखिल भारतीय कांग्रेस का महासचिव चुना गया। फिर कांग्रेस में विवाद शुरू हुआ। इंदिरा गांधी के नेतृत्व को लेकर बवाल के बीच चरण सिंह ने सबसे पहले पार्टी छोड़ी। फिर कांग्रेस में टूट हुई। त्रिभुवन नारायण सिंह कामराज गुट के हो गए। कमलापति त्रिपाठी और हेमवती नंदन ने इंदिरा गांधी का साथ नहीं छोड़ा।

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बिगड़े हालात के नायक
कांग्रेस टूटी। उप चुनाव हुए। इंदिरा का साथ छोड़ कामराज गुट में गए सीएम त्रिभुवन नारायण सिंह उप चुनाव में उतरे। एक पत्रकार रामकृष्ण द्विवेदी ने मुख्यमंत्री को तब मात दे दी थी। त्रिभुवन नारायण सिंह की हार के बाद कमलापति त्रिपाठी को मुख्यमंत्री बनाया गया। पीएसी में उनके पर विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया। भ्रष्टाचार का आरोप भी लगा। यूपी में कांग्रेस कमजोर होने लगी। सरकार की प्रशासन पर पकड़ भी। इसी बीच 1971 में आम चुनाव हुए। हेमवती नंदन चुनावी मैदान में उतरे। जीते तो केंद्र में बड़ा मंत्री पद मिलने की उम्मीद थी। पर बने, संचार विभाग में जूनियर मंत्री। नाराज बहुगुणा 15 दिन तक चार्ज लेने ही नहीं गए। फिर, इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार बनाया।

हेमवती नंदन कांग्रेस में जगजीवन राम कैंप में खासी पकड़ रखते थे। यूपी की खराब स्थिति को देखकर तब कैंप की ओर से इंदिरा गांधी को सलाह दी गई, हेमवती को क्यों नहीं यूपी की कमान सौंप देते हैं? विश्वासपात्र भी हो जाएंगे। इंदिरा को सलाह भाई। बहुगुणा को बारा से मैदान में उतारा गया। विधायक बने। हालांकि, यूपी के तत्कालीन सीएम कमलापति त्रिपाठी और बहुगुणा के रिश्ते काफी अच्छे थे। बहु्गुणा उन्हें पिता समान मानते थे। पांव छूते थे। जब उनका नाम सीएम के लिए आया तो कमलापति भी मान गए। सीएम बने। प्रदेश में कांग्रेस के संगठन को कसा। छह माह बाद हुए चुनाव में पार्टी जीत गई।

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स्पष्ट बहुमत लाने में सफल हुए थे बहुगुणा
हेमवती नंदन बहुगुणा के नेतृत्व में हुआ 1974 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण था। इंदिरा के खिलाफ रोष बढ़ रहा था। विपक्ष कांग्रेस पर हावी हो रहा था। लेकिन, हेमवती नंदन के सत्ता संभालते ही चीजें बदली। प्रशासन पर पकड़ मजबूत हुई। पार्टी ने 215 सीटों पर जीत दर्ज की। यानी स्पष्ट बहुमत। व्यूह ऐसा रचा कि विपक्ष के दिग्गज नेता पूर्व सीएम चंद्रभानु गुप्ता की जमानत ही जब्त करा दी। चंद्रभानु इसके बाद उन्हें नटवरलाल तक कहने लगे थे।

इमरजेंसी के साथ बदलने लगे हालात
1975 में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी। इसके पहले से ही केंद्र की सत्ता में संजय गांधी का प्रभाव दिखने लगा था। वे केंद्र में मंत्री से लेकर राज्यों में सीएम तक डिसाइड कर रहे थे। स्वर्ण सिंह को इंदिरा कैबिनेट से हटाकर बंसी लाल को रक्षा मंत्री बना चुके थे। हरियाणा में बनारसी दास गुप्ता को सीएम बनाया गया। मध्य प्रदेश में सीएम पीसी सेठी को केंद्र में बुलाकर श्यामाचरण शुक्ल को सीएम बना दिया। इसके बाद संजय गांधी की नजर यूपी की तरफ थी। लेकिन, ताकतवर हेमवती नंदन को हिलाना इतना आसान नहीं था।

संजय गांधी ने इसके बाद भी यूपी में ऑपरेशन जारी रखा। कुलदीप नैयर की किताब इमरजेंसी री-टोल्ड में इस वाकये का जिक्र है। वे इंदिरा गांधी को कन्विंस कर रहे थे कि हेमवती नंदन खुद को देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम में काम किया एक पोस्टर। 1974 के यूपी चुनाव में जीत के बाद यूपी की जनता को बधाई देते हुए पोस्टर जारी किया गया। इससे इंदिरा गांधी और संजय गांधी गायब थे। दिल्ली में इस पर काफी बवाल हुआ। हेमवती नंदन तलब भी किए गए।

संजय गांधी के व्यवहार ने हेमवती नंदन को दुखी कर दिया था। बहुगुणा ने 4 मार्च 1974 को सीएम पद से रिजाइन कर दिया था। 5 मार्च 1974 को उन्हें फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। कुलदीप नैयर अपनी किताब में लिखते हैं कि बहुगुणा शायद पहले ही बाहर कर दिए जाते, लेकिन इंदिरा को लगा कि शायद उनके जरिए इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा पर दबाव बन सकता है। जो हुआ नहीं। रायबरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को दी गई चुनौती की याचिका में कोर्ट का फैसला उनके विरोध में आया। देश में इसके साथ ही आपातकाल की घोषणा हो गई। यूपी के सीएम पद से हेमवती नंदन बहुगुणा की विदाई भी। नारायण दत्त तिवारी को यूपी का सीएम बनाया गया।

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ऐसे प्रताड़ित किए गए थे हेमवती नंदन
यूपी में सीएम रहते हेमवती नंदन बहुगुणा को हटाने के लिए खूब प्रपंच रचा गया। दिल्ली में संजय गांधी इंदिरा के कान भर रही थे। 1974 की चुनावी जीत के बाद पोस्टर को आधार बना रहे थे। इंदिरा के तेवर चढ़े तो उन्होंने यशपाल कपूर को नजर रखने के लिए सीएम आवास में तैनात करा दिया। कहा जाता है कि यशपाल कपूर संजय गांधी को यूपी सरकार के हर फैसले की जानकारी देते थे। मामला गरमाता गया। फिर यशपाल कपूर ने एक तांत्रिक के जरिए जादू-टोना कराए जाने संबंधी सूचना संजय गांधी को दी। गुस्से में संजय ने यशपाल कपूर और एमपी के सीएम पीसी सेठी को उसे पकड़ने का टास्क दिया।

मीसा के तहत कथित तांत्रिक की गिरफ्तारी हुई। इस मामले में हेमवती नंदन ने कहा था कि वह तांत्रिक नहीं वैद्य था। पूर्व सीएम कमलापति त्रिपाठी भी उसकी सेवा लेते थे। इस घटना के बाद हेमवती नंदन ने यशपाल कपूर का सामान भी सीएम हाउस से फेंकवा दिया था। कहा जाता है कि इसी घटना के बाद बहुगुणा की विदाई तय हो गई थी। माना यह गया कि बहुगुणा ने इंदिरा गांधी के निर्देशों की अवहेलना की।

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1977 में पहली बार किया विद्रोह
संजय गांधी के व्यवहार और यूपी की राजनीति से अलग किए जाने के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा ने पहली बार वर्ष 1977 के आम चुनावों में विद्रोह किया था। वे जनता पार्टी में पाले में गए थे। दरअसल, इसके पीछे की कहानी यह है कि इंदिरा गांधी के खिलाफ उपजे छात्र आंदोलन के दौरान जय प्रकाश नारायण लखनऊ यात्रा पर आए थे। यहां उन्हें बड़ी रैली करनी थी। यूपी में अन्य स्थानों पर भी कार्यक्रम होना था। इस दौरान यूपी सरकार ने जेपी के कार्यक्रमों को लेकर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई। कुछ लोग इसे यूपी में जेपी का रेड कार्पेट वेलकम भी कहते हैं। यूपी सरकार के इस व्यवहार के कारण जेपी ने अपना कार्यक्रम यूपी में अधिक नहीं रखा था। कार्यक्रम की इजाजत दिए जाने और जेपी का खैर-मखदम को संजय गांधी और इंदिरा ने बगावत के रूप में लिया। जगजीवन राम जब इंदिरा के सामने खड़े हुए तो 1977 में बहुगुणा भी साथ खड़े हो गए।

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दोबारा कांग्रेस में लौटे, फिर बगावत
इंदिरा विरोध के नाम पर एकजुट हुई जनता पार्टी तीन साल भी टिक नहीं पाई। सभी दल छिटके तो हेमवती इसमें अकेले पड़ते दिखे। हालांकि, वे लड़ाकू नेता थे। इंदिरा गांधी उन्हें जानती, समझती थीं। 1980 के आम चुनाव से पहले उन्हें कांग्रेस में वापस लाया गया। चुनाव लड़े और जीते। लेकिन, एक बार फिर इंदिरा गांधी ने उन्हें बुलाया। बहुगुणा गढ़वाल से लड़े और जीते। लेकिन, इंदिरा को उनके साथ छोड़ने की खीज थी। कांग्रेस में वापसी के समय महासचिव बनाए गए बहुगुणा को केंद्र में मंत्री तक नहीं बनाया गया। अपमानित हेमवती नंदन बहुगुणा ने 1982 में पार्टी छोड़ दी। वे लोकदल में चले गए। वर्ष 1984 के आम चुनाव में वे इलाहाबाद, अब प्रयागराज सीट से चुनावी मैदान में उतरे। राजीव गांधी ने उनके सामने फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को उतार दिया।

राजीव गांधी की इस रणनीति के बाद चुनावी मुकाबला जोरदार हो गया। एक तरफ राजनीति के दिग्गज थे तो दूसरी तरफ फिल्मी जगत के उस समय के सबसे चमकदार स्टार। अमिताभ बच्चन का ग्लैमर बहुगुणा की राजनीति पर भारी पड़ा। 1 लाख 87 हजार से अधिक वोटों से चुनाव हार गए। सहयोगियों ने तंज कसना शुरू किया तो टूट गए। इसके बाद राजनीति से सन्यास का ऐलान कर दिया। दिल की बीमारी के बाद डॉक्टरों ने आराम की सलाह दी थी। पर वे बैठने वाले कहां थे। 17 मार्च 1989 को उनका निधन हो गया। इस प्रकार एक जूझते रहने वाले नेता को पार्टी की अंदरूनी राजनीति ने हराया।

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