Movie Of The Week-Zakhm (1998)

5896

जब मेरे पास कहने को बहुत कुछ होता है तब मैं अक्सर ख़ामोश हो जाती हूँ। पूजा भट्ट(माँ) और कुणाल खेमू(छोटा अजय) की “ज़ख्म”…  कल रात में ये फ़िल्म देखी और फ़िल्म देखते वक़्त तो सिसिकियां लेकर रोई ही, उसके बाद भी तब से सोच-सोचकर रोना आ रहा है और इस वक़्त भी आँख भरी हुई है।

आपमें से बहुत से लोगो ने इस फ़िल्म को देखा होगा और कई नज़रिये होंगे, कि कैसे बुरे से बुरे वक्त में भी एक नेता को सिर्फ अपनी कुर्सी दिखती है या किस तरह कोई भोला-भाला नौजवान गुमराह होता है। या फ़िर एक मुसलमान औरत और एक हिन्दू आदमी की शादी। पर मैं पूरी फिल्म में सिर्फ नन्हे से अजय(कुणाल खेमू) को निहारती रही। मैं जब-जब कुणाल को स्क्रीन पर देखती मेरी सिसकियाँ ज़ोर पकड़ ले रही थी।

ये कहानी सिर्फ एक माँ-बेटे के भरोसे की दास्तान है, बाक़ी सब तो फानी है। आप ज़रा सोचकर देखिये, एक 10-12 साल का बच्चा जिसे अभी स्कूल की किताबें समझने में ही इतनी परेशानी हो रही है उसे इस उम्र में रखैल, नाजायज़, हरामी, प्यार और सहारे का मतलब समझना पड़ रहा है। अभी तो उसकी उम्र पूरी तरह अपने माँ-बाप पर निर्भर रहने की थी। मगर उसकी नन्ही सी समझ को माँ की तकलीफों को, बाप की मजबूरियों को समाज के ताने बाने को समझना पड़ता है। उसे समझना पड़ता है कि इंसानियत और ज़िन्दगी से भी बड़ा धर्म है।

ZAKHM -

फ़िल्म में एक सीन है जब कुणाल अपने डैडी के ऑफिस जाकर उनका कैमरा और बाक़ी सामान तोड़ देता है, सिर्फ इसलिए ताकि अपने ही पिता की ज़िंदगी मे वो अपनी मौजूदगी दर्ज करा सके। उन्हें एहसास दिला सके कि वो भी उनके लिए अहम और ख़ास होना चाहिए।

उस दस साल के बच्चे के दिल पर क्या गुज़री होगी जब  उसकी आँखों के सामने उसके डैडी किसी और के साथ फ़ेरे ले रहे होते हैं। वो अधिकार वो रस्में जो वो अपनी माँ को दिलाना चाहता था, वो कोई और औरत चुपचाप ले बैठी।

10-12 साल के बच्चे को क्या समझ होती है कि सात पाउंड का बच्चा क्या होता है। माँ और बच्चा दोनों ठीक हैं इस बात का क्या मतलब हुआ। पर वो सब समझ जाता है। वो ये भी समझ जाता है कि ज़रूरी नही उसके एक फ़ोन पर उसके अपने पिता दौड़े चले आएं क्यूंकी इस पाखण्डी समाज ने उससे ये अधिकार छीन रखा है। इतने मुश्किल वक़्त में भी वो सिर्फ उम्मीद करता है कि “डैडी से कहिएगा अगर हो सके तो आ जाएं, माँ और बच्चा दोनों ठीक हैं, घबराने की कोई बात नही है और मेरे भाई का नाम सोचते आये।” फ़िर एक वक़्त आता है जब उसे अपने बाप की मौत, अपनी माँ की तकलीफों और अपनी दादी की नफ़रत को एकसाथ समझना पड़ता है।

मैं शायद कुछ ज़्यादा ही व्यक्तिगत होकर लिख रही हूँ पर ये फ़िल्म है ही ऐसी है। कुणाल को इस फ़िल्म के लिए कोई अवार्ड क्यों नही मिला ये समझ पाना मुश्किल है। दूसरी तरफ पूजा भट्ट अपने पिता महेश भट्ट के कितने क़रीब रही होंगी जो उन्होंने अपनी दादी को इतनी गहराई से समझा और इतना सशक्त रोल पर्दे पर उकेरा। गर्व महसूस होता है ऐसी बेटियों को देखकर। क्यूँ बेटी सिर्फ माँ की सहेली रहे, हिस्सा तो वो बाप के जिस्म का भी होती है। फिलहाल…. फ़िल्म का “गली में आज चाँद निकला” तो आपने कई बार सुन होगा पर इस बार “पढ़ लिख के बड़ा होके” सुनियेगा। सुनियेगा कि एक औरत किस तरह ख़ुद को गुनाहगार मानते हुए भी अपने बेटे से इंसाफ की उम्मीद कर रही है। हर शिकवा हर उम्मीद उसकी एक ही बाज़ू पर टिकी है।

“ईमान हो गया क्या मेरा खराब लिखना

मेरी खताओं का तू पूरा हिसाब लिखना

अपने सवालों का तू ख़ुद ही जवाब लिखना….”

ज़ख्म देखिये, क्योंकि ये सिर्फ फ़िल्म नही कई जिंदगियों की हक़ीक़त है। क्योंकि ये कहानी सचमुच आपके कई ज़ख्म हरे करने का माद्दा रखती है।