Period Huts In Maharashtra: जहन्नम से ज्यादा खौफनाक हैं महाराष्ट की ‘पीरियड हट्स’, यहां आज भी मासिक धर्म के दौरान घर से ‘निर्वासित’ की जाती हैं महिलाएं!

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Period Huts In Maharashtra: जहन्नम से ज्यादा खौफनाक हैं महाराष्ट की ‘पीरियड हट्स’, यहां आज भी मासिक धर्म के दौरान घर से ‘निर्वासित’ की जाती हैं महिलाएं!

हाइलाइट्स:

  • महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं का निर्वासन आज भी जारी
  • पीरियड के दौरान महिलाओं को गांव में बाहर झोपड़ी में रहना पड़ता है
  • झोपड़ी (कुर्माघर) में नहीं होती है कोई सुविधा
  • इन झोपड़ियों में रहते हुए हुए कई महिलाओं की मौत हो चुकी है

मुंबई
हम भले ही आधुनिक भारत में पैदा हुए हों, आदिकाल से निकलकर मॉडर्न हो चुकी इक्कसवीं सदी में जी रहे हों। देश के वैज्ञानिक भले ही मंगल और चांद तक पंहुच गए हों। लेकिन देश में महिलाओं की स्थिति में आज भी कोई खास सुधार नहीं आया है। विशेषकर देश के ग्रामीण इलाकों में। पुरुष प्रधान देश हम महिलाओं को बराबरी का हक़ देने की वकालत करते हैं, उनकी बेहतरी के लिए तमाम योजनाएं भी चलाते हैं, फिर भी कई जगहों पर महिलाओं को वो सम्मान नहीं मिल पा रहा है जिसकी वे हकदार हैं।

महाराष्ट्र के आदिवासी जिलों की महिलाओं की हालत आज भी बेहद दयनीय है। खासतौर पर तब वे मासिक धर्म यानी पीरियड से गुजर रही होती हैं। इस दौरान यहां की महिलाओं, युवतियों को एक प्रकार से घर से निर्वासित कर दिया जाता है। उस दौरान ये महिलाएं गांव की सीमा से दूर जंगल के पास बनाई गई टूटी फूटी झोपड़ियों में रहने को मजबूर होती हैं।

कुर्मा घर में रहने को मजबूर
पीरियड के दौरान इन महिलाओं को जिन टूट-फूटी झोपड़ियों में पांच दिन तक रहना पड़ता है, उसे आदिवासियों की भाषा में कुर्मा घर या ग़ोकोर कहा जाता है। इस दौरान परिवार के पुरुष भी इन महिलाओं से कोई संबंध नहीं रखते हैं। अगर किसी पुरुष ने मासिकधर्म वाली महिला को छू दिया तो उसे तुरंत नहाना पड़ता है। क्योंकि इन महिलाओं को इन पांच दिनों के दौरान अपवित्र माना जाता है। इस दौरान इन महिलाओं का गांव में प्रवेश वर्जित होता है। इन्हें खाने के लिए घर की दूसरी महिलाओं पर आश्रित रहना पड़ता है। इन्हें नहाने के लिए भी एक किलोमीटर या उससे भी ज्यादा दूर नदी में जाना पड़ता है।

कालापानी से कम नहीं होते कुर्माघर
अंग्रेजों के जमाने में क्रांतिकारियों को सजा के लिए कालापानी भेजा जाता था। जितनी भयावह और तकलीफदेह सजा कालापानी की होती थी। उससे भी कहीं ज्यादा कष्टकारी होता है इन झोपड़ियों में रहना। इन कुर्मा घरों में ना कोई खाने पीने की व्यवस्था होती है और सोने की। सूरज की रौशनी भी ठीक से अंदर नहीं आ पाती। कई बार जंगली जानवर जरूर इनमें दाखिल हो जाते हैं। इन झोपड़ियों में रहते हुए कई महिलाओं की मौत सांप के काटने से भी हुई है।

एनजीओ कर रही हैं मदद
महाराष्ट्र के आदिवासी जिलों पालघर, गडचिरोली आदि में महिलाएं को इस नर्क भरी झोपड़ी से निकालने के लिए अब कई एनजीओ भी सामने आए हैं। जो इन महिलाओं के लिए एक आरामदायक और जरूरी सुविधाओं से युक्त छोटी छोटी बांस की झोपड़ियां बना रहे हैं। जो काफी सुविधाजनक और पहले से कई गुना बेहतर हैं। इन घरों को महिलाओं द्वारा भी पसंद किया जा रहा है।

मानवाधिकार आयोग ने दिया निर्देश
आदिवासी महिलाओं की इन दिल को हिलाकर रख देने वाली तकलीफों पर मानवाधिकार आयोग ने भी राज्य सरकारों को उचित कदम उठाने के आदेश दिए हैं। ताकि महिलाओं के सम्मान और स्वास्थ्य को बरकार रखा जाए। लेकिन अंत में सब कुछ परंपराओं की भेंट चढ़ जाता है।

पीरियड हट्स में नहीं जाना चाहती हैं महिलाएं
जहन्नम से कम ना लगने वाली इन पीरियड हट्स में कोई महिला नहीं जाना चाहती हैं। उन्हें यहां जाने के नाम पर गुस्सा भी आता है। यह स्वाभाविक भी है कि जहां जिंदगी कम और मौत ज्यादा अच्छी लगती हो उन झोपड़ियों में भला कौन जाना चाहेगा। लेकिन सदियों पुराने रीतिरिवाज़ों के नाम पर सदियों से इन महिलाओं पर अत्याचार होता आ रहा है। यहां की आदिवासी महिलाएं कहती हैं कि हमसे पहले भी घर और समाज की महिलाएं इन पीरियड हट्स में जाति थीं और आगे भी जाना पड़ेगा। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।

उठने लगे विरोध के स्वर
हालांकि अब बदलते जमाने के साथ महिलाओं ने इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाना शुरू कर दिया है। बस जरूरत है पुरुषों को भी अपनी मानसिकता बदलने की और ऐसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए आवाज़ बुलंद करने की। तब जाकर सही मायने में इन महिलाओं को सम्मान और न्याय मिल पायेगा।



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