Nehru’s China Policy : चीन के प्रति कितने बेपरवाह थे नेहरू, दो नई पुस्तकों ने खोले नए-नए राज

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Nehru’s China Policy : चीन के प्रति कितने बेपरवाह थे नेहरू, दो नई पुस्तकों ने खोले नए-नए राज

हाइलाइट्स

  • विजय गोखले की नई पुस्तक में चीन के प्रति जवाहरलाल नेहरू के नजरिए का विस्तृत जिक्र है
  • गोखले की नई किताब The Long Game: How China Negotiates with India आई है
  • नेहरू की चीन नीति पर अवतार सिंह भसीन ने भी Nehru, Tibet and China पुस्तक लिखी है
  • दोनों ने चीन के प्रति पं. नेहरू के लापरवाह रवैये और उससे भारत को हुए नुकसान का जिक्र किया है

नई दिल्ली
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चीन पर इतना भरोसा था कि उन्होंने कभी उसके साथ भारत की सीमारेखा तय करने की कोशिश भी नहीं की। यहां तक कि जब नेहरू को अक्साई चिन की तरफ चीन के सड़क निर्माण को लेकर सचेत किया गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें नागालैंड की समस्या पर फोकस करना है, चीन से कोई खतरा नहीं है। पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले और विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी अवतार सिंह भसीन की भारत-चीन के रिश्तों पर आधारित पुस्तकों, क्रमशः ‘द लॉन्ग गेम: हाउ चाइना निगोशिएट्स विद इंडिया’ और ‘नेहरू, तिब्बत एंड चाइना’ में चीन को समझने में नेहरू की गलतियों और उसके खामियाजे का विस्तृत वर्णन किया गया है।

नेहरू ने क्यों किया था UNSC के लिए चीन का समर्थन

भसीन अपनी पुस्तक Nehru, Tibet and China में बताते हैं कि कैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद (UNSC) की सदस्यता दिलवाने को लेकर उतावले थे और उसके साथ लगने वाली अपनी सीमा पर बातचीत को लेकर उतने ही बेपरवाह। भसीन ने हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में कहा, ‘आजादी के शुरुआती वर्षों में भारत ने एशियाई देशों को एकजुट करने के लिए मकसद से चीन का दिल जीतने की कोशिश की। उस वक्त तक भारत को चीन से कोई खतरा महसूस नहीं हो रहा था। यूएन सिक्यॉरिटी काउंसिल में कुओमिंतांग चीन की जगह कम्युनिस्ट चीन को लाने की नेहरू की चाहत के पीछे कारण यह था कि माओ त्से तुंग के नेतृत्व में हुई 1949 की सशस्त्र क्रांति में चीन की केंद्रीय भूमि पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया था जिसे भारत ने भी मान्यता दी थी।’

सीमा समझौते को लेकर लापरवाह रवैया

भारत, यूएन में कम्युनिस्ट चीन की जगह पक्का करने में तो जुटा था, लेकिन चीन के साथ सीमा समझौतों को लेकर उसने कोई तैयारी नहीं की थी। भसीन कहते हैं, भारत को लगता था कि सीमारेखा को लेकर चीन से बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। नेहरू ने तो बातचीत से पहले ही तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री झाउ एन लाइ को कहा कि ‘हमारी सरकारों के अपने-अपने विचार इतने जुदा और एक-दूसरे के इतने विरोधी हैं कि उपयोगी बातचीत की जगह ही नहीं बची है।’ नेहरू ने झाउ के साथ होने वाली मीटिंग से एक हफ्ता पहले नेपाल के प्रधानमंत्री से कहा कि, ‘जहां तक मुझे दिखाई पड़ता है, इस मीटिंग से भारत-चीन के बीच समझौते की गुंजाइश नहीं है।’ स्वाभाविक है कि भारत ने इस बातचीत में आधे मन से भाग लिया।

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तिब्बत पर चीन की चालाकी में फंसे नेहरू
विजय गोखले भी अपनी पुस्तक ‘The Long Game: How China Negotiates with India’ में कहते हैं कि ‘प्रधानमंत्री नेहरू ने चीनी समकक्ष से झाउ एन लाइ से बात करने गए तो मुद्दे पर रिसर्च करके तथ्य जुटाने की तो बात ही दूर, आपस में सामान्य बातचीत भी नहीं की।’ नतीजतन, उन्होंने तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारतीय दूतावास का दर्ज घटाकर कॉन्स्युलर पोस्ट कर दिया। ऐसा करते हुए उन्होंने इसका कानूनी और राजनीतिक नतीजों पर विचार भ नहीं किया। गोखले कहते हैं, ‘वहीं, बातचीत को दौरान चीन की रणनीति पूरी व्यवस्थित और व्यावहारिक थी। उन्होंने भारत को ग्यांत्से और यादोंग से अपने सैन्य दल को वापस बुलाने पर राजी कर लिया। इस तरह भारत ने 1953 में चीन पर एक बड़ी पकड़ को खो दिया।’

अक्साई चिन पर नेहरू की गलती

दरअसल, नेहरू समेत आजाद भारत के नेताओं को राजनीतिक अनुभव तो बहुत था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के मामले में वो उतने दक्ष नहीं थे क्योंकि दो सदियों से भारत की विदेशी नीति तो उसका शासक ब्रिटेन तय कर रहा था। उधर, चीन ने अमेरिका, सोवियत संघ, जापान और ब्रिटेन से हाल ही में पंगा ले चुका था। इसका अंतर भारत और चीन की एक-दूसरे के प्रति नीतियों में साफ देखा जा सकता है। भसीन कहते हैं कि नेहरू को 1950 के दशक में अक्साई चिन की तरफ चीन के सड़क निर्माण के महत्व समझाने की कोशिश की गई तो उन्होंने इसे बिल्कुल तवज्जो नहीं दी। लेखक ने कहा, ‘अगर हम उस वक्त चीने के प्रति नेहरू के रवैये को देखें तो पता चलहा है कि वो चीन के प्रति कितने बेपरवाह थे। नेहरू ने अपने रक्षा मंत्री केएन काटजू को 28 जुलाई, 1956 को लिखे नोट लिखा। इसमें उन्होंने कहा कि वो चीन जो भी करे… लेकिन वो नागा समस्या को लेकर ज्यादा चिंतित हैं।’ चीन भी नेहरू के इस रवैये से पूरी तरह वाकिफ था।

चीन पर इतना भरोसा करते थे नेहरू!

झाउ जब अपने विदेश मंत्री चेन यी, 29 अधिकारियों और सात पत्रकारों के दल के साथ अप्रैल 1960 में भारत पहुंचे तो प्रॉटोकॉल की परवाह किए बिना उन्हें यहां के गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत और वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मुलाकात का मौका दिया गया। सीम समझौते को लेकर एक सप्ताह तक चली बातचीत में कोई नतीजा नहीं निकला। लेकिन, झाउ अक्साइ चीन को छोड़ने के बदले अरुणाचल प्रदेश देने का ऑफर लेकर आए थे। नेहरू अड़े रहे। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि चीन सीमा को लेकर भारत पर हमला कर देगा। उधर, चीन जब समझ गया कि बातचीत की मेज पर कुछ नहीं होने वाला तो अंदर ही अंदर युद्ध की तैयारी में जुट गया। चीन ने 20 अक्टूबर, 1962 को नॉर्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) के पूर्वी और लद्दाख के पश्चिमी छोर पर बेहद सुनियोजित हमला कर दिया। सिर्फ तीन दिनों में ही चीनी सेना नेफा को फतह करते हुए अक्साई चिन के बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया। फिर जो हुआ वो इतिहास ही है।

(टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इंद्राणी बागची की रिपोर्ट से इनपुट के साथ)

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देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू।



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